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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1186
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
31
वृ꣣ष्टिं꣢ दि꣣वः꣡ परि꣢꣯ स्रव द्यु꣣म्नं꣡ पृ꣢थि꣣व्या꣡ अधि꣢꣯ । स꣡हो꣢ नः सोम पृ꣣त्सु꣡ धाः꣢ ॥११८६॥
स्वर सहित पद पाठवृ꣣ष्टि꣢म् । दि꣣वः꣡ । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व । द्युम्न꣢म् । पृ꣣थिव्याः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । स꣡हः꣢꣯ । नः꣣ । सोम । पुत्सु꣢ । धाः꣢ ॥११८६॥
स्वर रहित मन्त्र
वृष्टिं दिवः परि स्रव द्युम्नं पृथिव्या अधि । सहो नः सोम पृत्सु धाः ॥११८६॥
स्वर रहित पद पाठ
वृष्टिम् । दिवः । परि । स्रव । द्युम्नम् । पृथिव्याः । अधि । सहः । नः । सोम । पुत्सु । धाः ॥११८६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1186
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आगे फिर वही विषय है।
पदार्थ
हे (सोम) सब सुखों के प्रेरक परमात्मन् ! आप (दिवः) दिव्य आनन्दमय कोश से (वृष्टिम्) आनन्द की वर्षा (परिस्रव) बरसाओ, (पृथिव्याः अधि) पृथिवी पर (द्युम्नम्) यश और तेज (परिस्रव) बहाओ। (नः) हमारी (पृत्सु) सेनाओं में (सहः) साहस और बल (धाः) धारण कराओ ॥९॥
भावार्थ
जगदीश्वर जैसे अन्तरिक्ष से जलधाराएँ बरसाता है, वैसे ही अपने आनन्द के कोश से आनन्द की धाराएँ बरसाए। जैसे वह पृथिवी में स्वर्ण आदि धन स्थापित करता है, वैसे ही राष्ट्र में कीर्ति और तेजस्विता स्थापित करे। जैसे वह राष्ट्र की सेनाओं में साहस प्रेरित करता है, वैसे ही हमारी सत्य, अहिंसा आदि की दिव्य सेनाओं में बल और वेग धारण कराये ॥९॥ इस खण्ड में परमात्मा के आविर्भाव, उसके गुण-कर्मों, ब्रह्मानन्द-रस तथा जीवात्मा का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(सोम) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! (नः) हम उपासकों के लिये (दिवः-वृष्टिं परिस्रव) मोक्षधाम से९ स्वधा१०—अमृतधारा को बहादे (पृथिव्या-अधि द्युम्नम्) पृथिवी के अन्दर—पार्थिव११ देह में द्योतमान यश को१२ स्थापित कर (पृत्सु सहः-धाः) कामादि संघर्ष अवसरों पर१३ साहस—सहनबल दबाने वाले बल को धारण करा॥९॥
विशेष
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विषय
सोम-लता
पदार्थ
सोमलता की जब अग्निहोत्र में आहुतियाँ दी जाती हैं तब कहते हैं कि हे प्रभो ! तू १. (दिवः) = अन्तरिक्ष से (वृष्टिं परिस्रव) = वर्षा करनेवाला हो २. उस वर्षा के परिणामस्वरूप (पृथिव्याः अधिद्युम्नं परिस्रव) = इस पृथिवी में अधिक अन्न का जन्म देनेवाला बन । ३. और इस अन्न के द्वारा (नः) = हममें (पृत्सु) = रोगादि से संग्रामों में (सहः) = शक्ति को (धाः) = धारण कर।
एवं, सोमाहुति वृष्टि का कारण बनती है, अन्न को उत्पन्न करती है, और हमें शक्ति देती है कि हम रोगादि से संग्राम में सदा विजयी बनें ।
सोम का अर्थ प्रभु करें तो मन्त्रार्थ इस प्रकार होगा ।
१. हे (सोम) = प्रभो ! धर्ममेघ समाधि में (दिवः) = मस्तिष्करूप द्युलोक से वृष्टिम् आनन्द की वृष्टि को (परिस्रव) = कीजिए । २. (पृथिव्याः अधि) = इस शरीररूप पृथिवी में (द्युम्नम्) = ज्योति व शक्ति को उत्पन्न कीजिए । ३. (पृत्सु) = वासनाओं के साथ संग्रामों में (नः) = हमारे अन्दर (सह:) = इन शत्रुओं के पराभव के बल को (धाः) = धारण कीजिए ।
भावार्थ
हम यज्ञों में सोमलता की आहुति दें। इस जीवन-यज्ञ में प्रभु का पूजन करनेवाले बनें ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (सोम) परमात्मन् (दिवः) अपने तेजमय प्रकाश से आकाश से मेघ के समान (पृथिव्याः अधि) पृथिवी के ऊपर (वृष्ठिं) सुखों की वर्षा (परिस्रव) बरसा। और (द्युम्नं) तेज, यश या धन और (सहः) सहन शक्ति या बल को (नः) हमारी (पृत्सु) इन्द्रियों और प्रजाओं में (धाः) धारण करा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
पदार्थः
हे (सोम) सर्वसुखप्रेरक परमात्मन् ! त्वम् (दिवः) दिव्यात् आनन्दमयकोशात् (वृष्टिम्) आनन्दवर्षाम् (परिस्रव) परिक्षर। (पृथिव्याः अधि) पृथिव्याम्। [अधि सप्तम्यर्थानुवादः।] (द्युम्नम्) यशः तेजः च (परिस्रव) परिक्षर। (नः) अस्माकम् (पृत्सु)सेनासु। [पदादिषु मांसपृत्स्नूनामुपसंख्यानम्। अ० ६।१।६३ इति वार्तिकेन पृतनाशब्दस्य पृदादेशः।] (सहः) साहसं बलं च (धाः) धेहि ॥९॥
भावार्थः
जगदीश्वरो यथाऽन्तरिक्षाद् जलधारां वर्षति तथा स्वकीयादानन्दकोशादानन्दधारा वर्षेत्। यथा स पृथिव्यां सुवर्णादिधनं दधाति तथा राष्ट्रे कीर्तिं तेजस्वितां च दधातु। यथा स राष्ट्रस्य सेनासु साहसं प्रेरयति तथाऽस्माकं सत्याहिंसादिदिव्यसेनासु बलं वेगं च निदध्यात् ॥९॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मन आविर्भावस्य, तद्गुणकर्मणां, ब्रह्मानन्दरसस्य, जीवात्मनश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।८।८।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, rain happiness on the Earth, as a cloud sends water from the sky. Give us spirit and forbearance in life’s struggles!
Meaning
O Soma, shower the lights of heaven and wealth, power and glory over the earth. Give us courage, patience and fortitude, hold on to us in battles of life and give us the final victory. (Rg. 9-8-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सोम) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (नः) અમારા-ઉપાસકોને માટે (दिवः वृष्टिं परिस्रव) મોક્ષધામથી સ્વધા-અમૃતધારાને વહાવી દે (पृथिव्या अधि द्युम्नम्) પૃથિવીની અંદર-પાર્થિવ દેહમાં પ્રકાશમાન યશને સ્થાપિત કર. (पुत्सु सहः धाः) કામ આદિથી સંઘર્ષના અવસરો પર સાહસ-સહનબળ દબાવનાર બળને ધારણ કરાવ. (૯)
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वर जसा अंतरिक्षातून जलधाराची वृष्टी करतो तसेच आपल्या आनंदकोशातून आनंदधारांचा वर्षाव करावा. जसा तो पृथ्वीमध्ये सुवर्ण इत्यादी धन स्थापित करतो तसेच राष्ट्रात कीर्ती व तेजस्विता स्थापित करावी. जसा तो राष्ट्राच्या सेनेत साहस प्रेरित करतो तसेच आमच्या सत्य, अहिंसा इत्यादीच्या दिव्य सेनेमध्ये बल व वेग धारण करवावे. ॥९॥
टिप्पणी
या खंडात परमात्म्याचे आविर्भाव, त्याच्या गुणकर्मांचे ब्रह्मानंद-रस व जीवात्म्याचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे
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