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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1199
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
32
दि꣣वो꣡ नाभा꣢꣯ विचक्ष꣣णो꣢ऽव्या꣣ वा꣡रे꣢ महीयते । सो꣢मो꣣ यः꣢ सु꣣क्र꣡तुः꣢ क꣣विः꣢ ॥११९९॥
स्वर सहित पद पाठदि꣣वः꣢ । ना꣡भा꣢꣯ । वि꣣चक्षणः꣢ । वि꣣ । चक्षणः꣢ । अ꣡व्याः꣢꣯ । वा꣡रे꣢꣯ । म꣣हीयते । सो꣡मः꣢꣯ । यः । सु꣣क्र꣡तुः꣢ । सु꣣ । क्र꣡तुः꣢꣯ । क꣣विः꣢ ॥११९९॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो नाभा विचक्षणोऽव्या वारे महीयते । सोमो यः सुक्रतुः कविः ॥११९९॥
स्वर रहित पद पाठ
दिवः । नाभा । विचक्षणः । वि । चक्षणः । अव्याः । वारे । महीयते । सोमः । यः । सुक्रतुः । सु । क्रतुः । कविः ॥११९९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1199
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
अब परमात्मा की महिमा का वर्णन है।
पदार्थ
(विचक्षणः) सर्वद्रष्टा (सोमः) परमेश्वर, (यः) जो (सुक्रतुः) शुभकर्म करनेवाला और (कविः) जगद्रूप दृश्य काव्य का तथा वेदरूप श्रव्य काव्य का कवि है, वह (दिवः) तेजस्वी जीवात्मा के (नाभा) केन्द्रभूत प्राण में और (अव्याः वारे) प्रकृति के बाल के समान विद्यमान अर्थात् प्रकृति से निकले हुए व्यक्त जगत् में (महीयते) महिमा प्राप्त करता है ॥ अथर्व० १०।८।३१ में कहा गया है कि अवि नाम की एक देवता है, जो ऋत से परिवृत है, उसी के रूप से ये वृक्ष हरे और हरित माला को धारण करनेवाले बने हुए हैं। इस प्रमाण से अवि शब्द प्रकृतिवाचक होता है ॥४॥
भावार्थ
जड़-चेतनरूप सब जगत् में अन्तर्यामी रूप से विद्यमान, सर्वज्ञ सब कर्मों को करनेवाला जगदीश्वर सर्वत्र कीर्ति प्राप्त किये हुए है ॥४॥
पदार्थ
(यः) जो (विचक्षणः) विशेष द्रष्टा, अन्तर्यामी (सुक्रतुः) उत्तम कर्ता—विश्वरचयिता (कविः) क्रान्तदर्शी—सर्वज्ञ (सोमः) शान्तस्वरूप परमात्मा है, वह (दिवः-नाभा) द्युलोक के—मोक्ष के१ मध्य में२ (अव्याः-वारे) पृथिवी के वरनेवाले अन्तःस्तर में—पार्थिव शरीर के वरनेवाले आधार हृदय में (महीयते) महान् रूप में विराजमान है। वही परमात्मा द्युलोक के मध्य में है, वही पृथिवी के गर्भ में है, वही मोक्षधाम में है, वही शरीरस्थ हृदय में है। हृदय में ढूँढो तो मोक्ष में पाओ, मोक्ष में पाना चाहो तो हृदय में देखो॥४॥
विशेष
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विषय
महिमा की अनुभूति
पदार्थ
वह व्यक्ति (अव्या) = [अव्= रक्षण] वासनाओं से अपने रक्षण के द्वारा (वारे) = वरणीय प्रभु में (महीयते) = महिमा का अनुभव करता है। जब हम सब वासनाओं से अपने को सुरक्षित कर लेते हैं तब प्रभु में स्थित होकर अपनी महिमा को देख पाते हैं—आत्मोत्कर्ष का साक्षात्कार करते हैं। ऐसा कर वही पाता है (यः) = जो -
१. (दिवः नाभा) = [नाभि=centre, chief point वा home] ज्ञान के केन्द्र में विचरण करता है। जिसकी क्रियाओं का मुख्य ध्येय ज्ञान की प्राप्ति होता है । जो ज्ञान को ही अपना घर बनाता है । २. (यः विचक्षणः) = ज्ञान में विचरण करने के कारण जो वस्तुतत्त्व को विशेषरूप से देखनेवाला होता है। ३. (सोमः) = वस्तुतत्त्व को देखने के कारण ही इस अनन्त संसार में अपनी शक्ति व ज्ञान की सीमाओं को देखता हुआ जो सदा सौम्य स्वभाववाला होता है – कभी गर्व नहीं करता । ४. (सुक्रतुः) = सदा उत्तम सङ्कल्पों व कर्मोंवाला होता है । ५. (कविः) = क्रान्तदर्शी बनता है [कौति] तथा ज्ञान का प्रचार करता है ।
भावार्थ
हम ज्ञान के केन्द्र में ही विचरण करें और ज्ञान का ही प्रसार करें ।
विषय
वेदाध्ययन का फल
शब्दार्थ
(य: ) जो व्यक्ति, उपासक (ऋषिभिः) ऋषियों द्वारा (सम्, भृतम्) धारण की गई (पावमानी:) अन्तकरण को पवित्र करनेवाली (रसम्) वेद की ज्ञानमयी ऋचाओं का (अध्येति) अध्ययन करता है (सरस्वती) वेदवाणी (तस्मै ) उस मनुष्य के लिए (क्षीरम्) दूध, (सर्पि:) घी (मधु उदकम् ) मधुर जल, शरबत आदि (दुहे) प्रदान करती है ।
भावार्थ
वेदाध्ययन से क्या मिलता है ? मन्त्र में वेदाध्ययन से मिलनेवाले फलों का सुन्दर वर्णन है । वेद के अध्ययन और उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य के जीवन-निर्वाह के लिए सभी उपयोगी वस्तुओं की प्राप्ति होती है । जो व्यक्ति वेद का स्वाध्याय करते हैं उन्हें दूध और घी आदि शरीर के पोषक तत्त्वों की कमी नहीं रहती । वैदिक विद्वान् जहाँ जाते हैं वहीं घी, दुग्ध और शर्बत आदि से उनका स्वागत और सत्कार होता है। जीवन की आवश्यकताओं की प्राप्ति के लिए प्रत्येक व्यक्ति को वेद का अध्ययन करना चाहिए ।
विषय
missing
भावार्थ
(विचक्षणः) विशेष तत्व का द्रष्टा, (कविः) क्रान्तदर्शी, मेधावी, (सुक्रतुः) उत्तम प्रज्ञावान्, (दिवः) समस्त द्यौलोक को (नाभौ) अपनी शक्ति में बांधने वाले (अव्याः वारे) महान् प्रकृति को भी आवरण करने हारे परमात्मा या प्राण के बने अन्तःकरण में (महीयते) महत्व को प्राप्त करता, बड़ी शक्ति प्राप्त करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनो महिमानं वर्णयति।
पदार्थः
(विचक्षणः) सर्वद्रष्टा (सोमः) परमेश्वरः (यः सुक्रतुः) शुभकर्मा, (कविः) जगद्रूपस्य दृश्यकाव्यस्य वेदरूपस्य श्रव्यकाव्यस्य च कर्ता वर्तते, सः (दिवः) द्योतमानस्य जीवात्मनः (नाभा) नाभौ, केन्द्रभूते प्राणे। [अत्र ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति सप्तम्या डाऽऽदेशः।] किञ्च (अव्याः वारे) अवेः प्रकृतेः बालवद् विद्यमाने प्रकृत्या आविर्भूते व्यक्ते जगतीत्यर्थः, (महीयते) महिमानं प्राप्नोति। [महीङ् पूजायाम्, कण्ड्वादिः। अवि॒र्वै नाम॑ दे॒वत॒र्तेना॑स्ते॒ परी॑वृता। तस्या॑ रू॒पेणे॒मे वृ॒क्षा हरि॑ता॒ हरि॑तस्रजः ॥ अथ० १०।८।३१ इति प्रामाण्याद् अविशब्दस्य प्रकृतिवाचकत्वम्] ॥४॥
भावार्थः
जडचेतनात्मके सर्वस्मिन्नपि जगत्यन्तर्यामितया विद्यमानः सर्वज्ञः सर्वकर्मा जगदीश्वरः सर्वत्र कीर्तिं लभते ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१२।४, ‘विचक्ष॒णोऽव्यो॒ वारे॑’ इति पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
A highly intellectual and wise person, the seer of Truth, achieves great power through God, Who encompasses Matter, and controls the Heaven.
Meaning
Soma, lord of eternal bliss, omnipotent creator of the noble universe, omniscient visionary, centre of the universe of heavenly beauty, all watching, who transcends the best and highest, is the adorable love of all. (Rg. 9-12-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यः) જે (विचक्षणः) વિશેષ દ્રષ્ટા, અન્તર્યામી (सुक्रतुः) ઉત્તમકર્તા-વિશ્વરચયિતા (कविः) ક્રાન્તદર્શી - સર્વજ્ઞ (सोमः) શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા છે, તે (दिवः नाभा) દ્યુલોકના-મોક્ષના-મધ્યમાં (अव्याः वारे) પૃથિવીનાં આવરણનાં-અન્તસ્તરમાં-પાર્થિવ શરીરમાં વરણીયનાં આધાર હૃદયમાં (महीयते) મહાન રૂપમાં વિરાજમાન છે. તે જ પરમાત્મા દ્યુલોકનાં મધ્યમાં છે, તે જ પૃથિવીના ગર્ભમાં છે, તે જ મોક્ષધામમાં છે, તે જ શરીરસ્થ હૃદયમાં છે. હૃદયમાં શોધો તો મોક્ષમાં મેળવો, મોક્ષમાં મેળવવા ચાહો તો હૃદયમાં જુઓ. (૪)
मराठी (1)
भावार्थ
जड-चेतनरूप सर्व जगात अंतर्यामी रूपाने विद्यमान, सर्वज्ञ, सर्व कर्म करणारा जगदीश्वर सर्वत्र कीर्ती प्राप्त करतो. ॥४॥
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