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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1202
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    31

    नि꣡त्य꣢स्तोत्रो꣣ व꣢न꣣स्प꣡ति꣢र्धे꣣ना꣢म꣣न्तः꣡ स꣢ब꣣र्दु꣡घा꣢म् । हि꣣न्वानो꣡ मानु꣢꣯षा यु꣣जा꣢ ॥१२०२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि꣡त्य꣢꣯स्तोत्रः । नि꣡त्य꣢꣯ । स्तो꣣त्रः । व꣢न꣣स्प꣡तिः꣢ । धे꣣ना꣢म् । अ꣣न्त꣡रिति꣢ । स꣣बर्दु꣡घा꣢म् । स꣣बः । दु꣡घा꣢꣯म् । हि꣡न्वानः꣢ । मा꣡नु꣢꣯षा । यु꣣जा꣢ ॥१२०२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नित्यस्तोत्रो वनस्पतिर्धेनामन्तः सबर्दुघाम् । हिन्वानो मानुषा युजा ॥१२०२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नित्यस्तोत्रः । नित्य । स्तोत्रः । वनस्पतिः । धेनाम् । अन्तरिति । सबर्दुघाम् । सबः । दुघाम् । हिन्वानः । मानुषा । युजा ॥१२०२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1202
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मा स्तोता का कैसे उपकार करता है।

    पदार्थ

    (नित्यस्तोत्रः) सन्ध्योपासनारूप नित्यकर्म द्वारा स्तुति करने योग्य, (वनस्पतिः) तेजों का अधिपति सोम परमात्मा, (मानुषा युजा) मनुष्य स्त्री-पुरुषों के (अन्तः) अन्तःकरण में (सबर्दुघाम्) आनन्द-रस को दुहनेवाली (धेनाम्) दिव्यवाणी को (हिन्वानः) प्रेरित करता रहता है ॥७॥ यहाँ ‘दुघाम्’ कहने से धेना (वाणी) में गोत्व का आरोप व्यङ्ग्य है ॥७॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की उपासना का यही लाभ है कि दिव्य आनन्द और शुभकर्मों में उत्साह प्राप्त होता है ॥७॥

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    पदार्थ

    (नित्यस्तोत्रः) नित्य स्तुति योग्य (वनस्पतिः) वरन सम्भजन स्तुति स्तवन करने वाले उपासकों का पालक—रक्षक शान्तस्वरूप परमात्मा९ (सबर्दुघां धेनाम्) सर्व—सब कामनाओं को दूहने वाली१० या सबेर्—संवरणीय वस्तुओं को दूहने वाली वाणी—वेदवाणी को११ (युजा मानुषा-अन्तः) तेरे अन्दर युक्त हुए मनुष्यों में श्रेष्ठ मनुष्यों—ऋषियों के अन्दर१२ (हिन्वानः) प्रेरणा करता हुआ साक्षात् होता है॥७॥

    विशेष

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    विषय

    वेदवाणी का प्रेरण किनमें

    पदार्थ

    (नित्यस्तोत्रः) = सदा जिसका स्तवन होता है - वे प्रभु । धर्मात्मा तो प्रभु का स्मरण व कीर्तन करते ही हैं, आपत्ति आने पर पापात्मा भी प्रभु के आर्तभक्त बनते हैं । इस प्रकार वे प्रभु 'नित्यस्तोत्र' । अथवा वेदवाणी ही स्तोत्र है, क्योंकि यह [सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति] उस प्रभु का प्रतिपादन कर रही है। वे प्रभु नित्य, अविनश्वर वेदवाणीवाले हैं । (वनस्पति:) = [वनम् इति रश्मिनाम – नि० १. ५. ८ ] - वे प्रभु ज्ञान की रश्मियों के पति हैं। हैं

    वे प्रभु इस (सबर्दुघाम्) = ज्ञान के दुग्ध का दोहन [पूरण] करनेवाली (धेनाम्) = वेदवाणी को [धेना वाङ्नाम – नि० १.११.३९] (युजा) = योग के द्वारा अपने साथ मेल करनेवाले (मानुषा) = मननशील पुरुषों के (अन्तः) = हृदय में (हिन्वान:) = प्रेरित करते हैं । वेदवाणी की प्रेरणा उन्हीं के अन्दर होती है जो योगमार्ग पर चलकर उस प्रभु के साथ अपना योग [सम्पर्क] स्थापित करते हैं । प्रभु का ज्ञान तो नित्य है - वे प्रभु ज्ञान की रश्मियों के पति हैं। मेरा उनके साथ सम्पर्क होते ही मुझे वह ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होने लगता है ।

    भावार्थ

    मैं योगमार्ग पर चलूँ और प्रकाश का अनुभव करूँ।
     

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    विषय

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    भावार्थ

    (वनस्पतिः) समस्त लोकों का स्वामी (नित्यस्तोत्रः) नित्य स्तुतिकर्त्ता ज्ञानी (युजा) योग सम्पादन करने हारे (मानुषा) मनुष्यों के (अन्तः) भीतर (सबर्दुघाम्) सुख, परमानन्द रस का दोहन करने वाली (धना) सरस्वती या आनन्द पान कराने वाली ज्ञानमयी चिति शक्ति को (हिन्वानः) प्रेरण करने और उसके बल को बढ़ाने हारा है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मा स्तोतारं कथमुपकरोतीत्याह।

    पदार्थः

    (नित्यस्तोत्रः) सन्ध्योपासनरूपनित्यकर्मत्वेन स्तवनीयः, (वनस्पतिः) वनसां तेजसां पतिः अधीश्वरः सोमः परमात्मा (मानुषा युजा) मानुषयोः युजोः उपासकयोः स्त्रीपुरुषयोः। [उभयत्र सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९ इत्यनेन षष्ठीद्विवचनस्य आकारादेशः।] (अन्तः) अन्तःकरणे (सबर्दुघाम्) आनन्दरसदोग्ध्रीम् (धेनाम्) दिव्यां वाचम् [धेना इति वाङ्नाम। निघं० १।११।] (हिन्वानः) प्रेरयन्, भवतीति शेषः। [हि गतौ वृद्धौ च स्वादिः। आत्मनेपदं छान्दसम्] ॥७॥ अत्र ‘दुघाम्’ इति कथनेन धेनायां गोत्वारोपो व्यङ्ग्यः ॥७॥

    भावार्थः

    परमेश्वरोपासनाया अयमेव लाभो यद् दिव्यानन्दः शुभकर्मसूत्साहश्च प्राप्यते ॥७॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१२।७, ‘धी॒नाम॒न्तः स॑ब॒र्दुघः॑। हि॒न्वा॒नो मानु॑षा यु॒गा’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    A learned person, the lord of eulogies, worthy of praise, enhances mental force, that yields supreme bliss in the hearts of persons who practise Yoga.

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    Meaning

    Soma eternally sung in hymns of adoration, creator, protector and sustainer of nature, indwelling inspirer of mind, intelligence and will, giver of the nectar of nourishment and joy, inspires and fulfils the couples and communities of humanity as a friend and companion. (Rg. 9-12-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (नित्य स्तोत्रः) નિત્ય સ્તુતિ યોગ્ય (वनस्पतिः) વરન સંભજન સ્તુતિ સ્તવન કરનારા ઉપાસકોના પાલક-રક્ષક શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (सबर्दुघां धेनाम्) સર્વ-સમસ્ત કામનાઓનું દોહન કરનારી અથવા સબેર-સંવરણીય વસ્તુઓને દોહનારી વાણી-વેદવાણીને (युजा मानुषा अन्तः) તારી અંદર યુક્ત થયેલા મનુષ્યોમાં શ્રેષ્ઠ મનુષ્યો-ૠષિઓની અંદર (हिन्वानः) પ્રેરણા કરતાં સાક્ષાત્ થાય છે. (૭)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराची उपासना करण्याचा हा लाभ होतो, की त्यामुळे दिव्य आनंद व शुभ कर्मात उत्साह वाढतो. ॥७॥

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