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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1201
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    28

    प्र꣢꣫ वाच꣣मि꣡न्दु꣢रिष्यति समु꣣द्र꣡स्याधि꣢꣯ वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । जि꣢न्व꣣न्को꣡शं꣢ मधु꣣श्चु꣡त꣢म् ॥१२०१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । इ꣡न्दुः꣢꣯ । इ꣣ष्यति । समुद्र꣡स्य꣢ । स꣣म् । उद्र꣡स्य꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । वि꣣ष्ट꣡पि꣢ । जि꣡न्व꣢꣯न् । को꣡श꣢꣯म् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् ॥१२०१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र वाचमिन्दुरिष्यति समुद्रस्याधि विष्टपि । जिन्वन्कोशं मधुश्चुतम् ॥१२०१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । वाचम् । इन्दुः । इष्यति । समुद्रस्य । सम् । उद्रस्य । अधि । विष्टपि । जिन्वन् । कोशम् । मधुश्चुतम् । मधु । श्चुतम् ॥१२०१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1201
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा की कृपा का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    (इन्दुः) रस का भण्डार परमात्मा अपने (मधुश्चुतम्) मधुस्रावी (कोशम्) आनन्द-रस के कोश को (समुद्रस्य) जीवात्मरूप समुद्र के (विष्टपि अधि) धरातल पर (जिन्वन्) प्रेरित करता हुआ (वाचम्) उपदेशरूप वाणी को (प्र इष्यति) देता है ॥६॥ यहाँ शब्दशक्तिमूलक ध्वनि से यह ध्वनित होता है कि जैसे चन्द्रमा (इन्दु) समुद्र के धरातल पर अपने चाँदनीरूप मधुस्रावी कोश को प्रेरित करता है ॥६॥

    भावार्थ

    उपासकों को जगदीश्वर निरन्तर आनन्द-रस की धाराओं से सींचता रहता है और उन्हें दिव्य सन्देश देता रहता है ॥६॥

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    पदार्थ

    (समुद्रस्य-अधि विष्टपि) दिव्—मोक्षधाम६ के अन्दर ब्रह्मलोक—ब्रह्मदर्शक पद में७ ब्रह्मदर्शन स्थिति में (वाचं प्रेष्यति) वक्ता को, स्तुतिकर्ता जन को८ प्रेषित करता है—पहुँचाता है (मधुश्चुतं कोशं जिन्वन्) मधुर रस बरसाने वाले कोश—मधु भण्डार को प्राप्त कराने के हेतु स्तुतिकर्ता को परमात्मा मोक्षधाम में अपने स्वरूप दर्शन पद में स्थापित करता है मधुभण्डार के रसास्वादनार्थ॥६॥

    विशेष

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    विषय

    हृदय में प्रकाश का दर्शन

    पदार्थ

    जब सौम्य व पवित्र व्यक्ति का प्रभु आलिंगन करते हैं तब वे (इन्दुः) = प्रभु (समुद्रस्य) = हृदय के [समुद्र: अन्तरिक्षनाम – नि० १९.३; ; मनो वै समुद्रः – श० ७.५.२.५२] (अधिविष्टपि) = स्थान में निवास करते हुए (वाचम्) = वेदवाणी को (प्र इष्यति) = प्रकर्षेण प्रेरित करते हैं। प्रभु हम सबके हृदय में सदा वेदज्ञान का प्रकाश कर रहे हैं, क्योंकि प्रभु तो हैं ही ज्ञान प्रकाशमय, परन्तु हम उस ज्ञान के प्रकाश को तभी देख पाते हैं जब हम सौम्यता व पवित्रता को धारण करते हैं ।

    जब प्रभु इस प्रकार ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराते हैं तब वे हमारे (मधुश्चुतम्) = माधुर्य को प्रवाहित करनेवाले (कोशम्) = आनन्दमयकोश को (जिन्वन्) = प्रीणित करते हैं, अर्थात् ज्ञान के प्रकाश को देखने पर हम एक विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं । आनन्द तो है ही प्रकाश में । अन्धकार में भय है । ज्ञान हमें उस एकत्व व अद्वैत का अनुभव कराता है जहाँ भय का अभाव है।

    भावार्थ

    हम ज्ञान के प्रकाश में मानव की एकता को देखकर शोक-मोह से ऊपर उठ जाएँ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (इन्दुः) ज्ञानी पुरुष (समुद्रस्य) समस्त आनन्द-रसों के सागर परमेश्वर के (अधिविष्ठपि) परम तेज या ज्ञानरूप परमपद में विराजमान होकर (मधुश्चुतम्) परम आनन्दरस को देने हारे, आनन्दमय (कोशं) कोश को (जिन्वन्) प्राप्त करता हुआ, मधुमय पुष्प कोश को प्राप्त भौंरे के समान (वाचं) स्तुतिमय वेदवाणी के उत्तम ज्ञान को (इष्यति) प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मनः कृपामाह।

    पदार्थः

    (इन्दुः) रसागारः परमात्मा (मधुश्चुतम्) मधुस्राविणम् (कोशम्) स्वकीयम् आनन्दरसकोशम् (समुद्रस्य) जीवात्मसमुद्रस्य (विष्टपि अधि) धरातले (जिन्वन्) गमयन् (वाचम्) उपदेशगिरम् (प्र इष्यति) प्रेरयति। [इष गतौ दिवादिः] ॥६॥ अत्र यथा इन्दुश्चन्द्रः समुद्रस्य धरातले स्वकीयं चन्द्रिकारूपं मधुश्चुतं कोशं जिन्वति प्रेरयतीति शब्दशक्तिमूलेन ध्वनिना ध्वन्यते ॥६॥

    भावार्थः

    उपासकान् जगदीश्वरो निरन्तरमानन्दरसधाराभिः सिञ्चति, तेभ्यो दिव्यसन्देशं च प्रयच्छति ॥६॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१२।६।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    A learned person, enjoying the supreme glow of God, the Ocean of joy, achieving the sheath of supreme happiness, receives the exalted knowledge of Vedic speech, worthy of veneration.

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    Meaning

    Soma, self-refulgent lord of bliss who pervades unto the bounds of space, augments the treasure-hold of the honey sweets of nature, inspires the holy minds, and the voice of divinity overflows in poetry and ecstasy. (Rg. 9-12-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (समुद्रस्य अधि विष्टपि) દિવ-મોક્ષધામની અંદર બ્રહ્મલોક-બ્રહ્મદર્શક પદમાં બ્રહ્મદર્શન સ્થિતિમાં (वाचं प्रेष्यति) વક્તાને, સ્તુતિકર્તાને પ્રેષિત કરે છે-પહોંચાડે છે. (मधुश्चुतं कोशं जिन्वन्) મધુ૨૨સની વર્ષા કરનાર કોશ-મધુર ભંડારને પ્રાપ્ત કરાવવા માટે સ્તુતિકર્તાને પરમાત્મા મોક્ષધામમાં પોતાના સ્વરૂપ દર્શન પદમાં સ્થાપિત કરે છે. મધુર ભંડારના રસના સ્વાદન માટે. [સ્થાપિત કરે છે.] (૬)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जगदीश्वर उपासकांना निरंतर आनंद-रस धारांनी सिंचित करतो व त्यांना दिव्य संदेश देत असतो. ॥६॥

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