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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1207
    ऋषिः - उचथ्य आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    32

    अ꣢व्या꣣ वा꣢रैः꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣य꣡ꣳ ह꣢꣯रिꣳ हिन्व꣣न्त्य꣡द्रि꣢भिः । प꣡व꣢मानं मधु꣣श्चु꣡त꣢म् ॥१२०७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡व्याः꣢꣯ । वा꣡रैः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् । ह꣡रि꣢꣯म् । हि꣣न्वन्ति । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । प꣡व꣢꣯मानम् । म꣣धुश्चु꣡त꣢म् । म꣣धु । श्चु꣡त꣢꣯म् ॥१२०७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव्या वारैः परि प्रियꣳ हरिꣳ हिन्वन्त्यद्रिभिः । पवमानं मधुश्चुतम् ॥१२०७॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अव्याः । वारैः । परि । प्रियम् । हरिम् । हिन्वन्ति । अद्रिभिः । अ । द्रिभिः । पवमानम् । मधुश्चुतम् । मधु । श्चुतम् ॥१२०७॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1207
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह कथन है कि कैसे परमेश्वर का किस प्रकार साक्षात्कार करना चाहिए।

    पदार्थ

    (प्रियम्) उपासकों के प्यारे, (हरिम्) दुःखों को हरनेवाले, (पवमानम्) हृदय को पवित्र करनेवाले, (मधुश्चुतम्) आनन्द को परिस्रुत करनेवाले सोम परमात्मा को, उपासक जन (अव्याः वारैः) चित्तभूमि के विक्षेप का निवारण करनेवाले उपायों से और (अद्रिभिः) ध्यानरूप सिल-बट्टों से (परिहिन्वन्ति) अपने आत्मा में प्रेषित करते हैं अर्थात् उसका साक्षात्कार करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    योग के विघ्नरूप व्याधि, स्त्यान, संशय आदि तथा दुःख, दौर्मनस्य आदि का निवारण करके ध्यान द्वारा परमात्मा का साक्षात्कार करके सबको आनन्द-रस की धारा में स्नान करना चाहिए ॥३॥

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    पदार्थ

    (अद्रिभिः-‘अद्रयः’) श्लोककर्ता—स्तुतिकर्ताजन६ (प्रियं हरिम्) प्रिय दुःखापहर्ता सुखाहर्ता सोम—शान्त एकरूप परमात्मा को (अव्याः-वारैः) पृथिवी—पार्थिव देह के वरणीय शुद्ध साधनों—मन, वाणी आदि द्वारा स्तुति करके (परिहिन्वन्ति) परिवृद्ध७ करते हैं—साक्षात् करते हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु-प्राप्ति के तीन उपाय

    पदार्थ

    (अव्या) = वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचाने के द्वारा (वारैः) = काम-क्रोधादि के निवारणों से तथा (अद्रिभिः) = दृढ़ संकल्पों से ‘उचथ्य' लोग उस प्रभु को (परिहिन्वन्ति) = सर्वथा प्राप्त होते हैं, जो प्रभु १. (प्रियम्) = प्रिय हैं-आत्मिक तृप्ति देनेवाले हैं [प्री-तर्पणे] २. (पवमानम्) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले हैं— तथा ३. (मधुश्चुतम्) = माधुर्य को क्षरित करनेवाले हैं- हमारे जीवनों में रस का उत्पादन करनेवाले हैं । ४. (हरिम्) = सब दुःखों का हरण करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    वे प्रभु हमारे जीवनों में तृप्ति, पवित्रता व रस का संचार करते हैं। उस प्रभु की प्राप्ति का उपाय १. वाणी, मन आदि का अशुभवृत्तियों से रक्षण २. वासनाओं का निवारण तथा ३. प्रभु-प्राप्ति का दृढ़ संकल्प है।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    विद्वान् लोग (प्रियं) तृप्तिकर, उत्कृष्ट, (हरिं) दुःखों को दूर करने हारे, (पवमानं) हृदय को पवित्र करने वाले, (मधुश्चुतम्) अमृतरस को चुआने वाले उस प्रभु को (अद्रिभिः) योगसाधनों या गुरुओं, ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट साधनों से (अव्याः वारैः) चितिशक्ति की वृत्तियों, धारणा और निदिध्यासनादि व्यापारों द्वारा (हिन्वन्ति) साक्षात् करते हैं, उत्पादन करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘अव्यो वारे’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशः परमेश्वरः कथं साक्षात्करणीय इत्याह।

    पदार्थः

    (प्रियम्) उपासकानां प्रेमास्पदम्, (हरिम्) दुःखानां हर्तारम्, (पवमानम्) हृदयं पवित्रयन्तम्, (मधुश्चुतम्) आनन्दस्राविणम् सोमं परमात्मानम्, उपासकाः जनाः (अव्याः वारैः) चित्तभूमेः विक्षेपनिवारणोपायैः (अद्रिभिः) ध्यानरूपैः पेषणसाधनैश्च (परिहिन्वन्ति) स्वात्मनि प्रेषयन्ति, परिपश्यन्तीत्यर्थः ॥३॥

    भावार्थः

    योगविघ्नभूतान् व्याधिस्त्यानसंशयादीन् दुःखदौर्मनस्यादींश्च विनिवार्य ध्यानद्वारा परमात्मानं साक्षात्कृत्य सर्वैरानन्दवारिधारायां स्नातव्यम् ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।५०।३, ‘अव्या वारैः’ इत्यत्र ‘अव्यो॒ वारे॒’ इति पाठः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Learned persons realise through Yogic practices, abstraction and deep meditation, God, Dear, the Alleviator of miseries, Purifying and the Distiller of divine bliss.

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    Meaning

    The devotees, who are seekers of your protection for advancement in their heart of hearts, intensify their awareness through relentless concentration and meditate on your presence dearer than dearest, eliminator of negative fluctuations of mind, pure and purifying spirit of divinity replete with honey sweets of ecstasy. (Rg. 9-50-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अद्रिभिः 'अद्रयः') શ્લોકકર્તા-સ્તુતિ-કર્તાજન (प्रियं हरिम्) પ્રિય દુઃખહર્તા, સુખદાતા સોમશાન્ત એકરૂપ પરમાત્માને (अव्याः वारैः पृथिवी) પાર્થિવ દેહનાં વરણીય શુદ્ધ સાધનો-મન, વાણી આદિ દ્વારા સ્તુતિ કરીને (परिहिन्वन्ति) પરિવૃદ્ધ કરે છે-સાક્ષાત્ કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    योगाच्या विघ्नरूपी व्याधी, स्त्यान, संशय इत्यादी व दु:ख, दौर्मनस्य इत्यादीचे निवारण करून ध्यानाद्वारे परमेश्वराचा साक्षात्कार करून सर्वांनी आनंद-रसाच्या धारांमध्ये स्नान केले पाहिजे ॥३॥

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