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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1212
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
21
प꣡रि꣢ णो꣣ अ꣡श्व꣢मश्व꣣वि꣡द्गोम꣢꣯दिन्दो꣣ हि꣡र꣢ण्यवत् । क्ष꣡रा꣢ सह꣣स्रि꣢णी꣣रि꣡षः꣢ ॥१२१२॥
स्वर सहित पद पाठप꣡रि꣢꣯ । नः꣣ । अ꣡श्व꣢꣯म् । अ꣣श्ववि꣢त् । अ꣣श्व । वि꣢त् । गो꣡म꣢꣯त् । इ꣣न्दो । हि꣡र꣢꣯ण्यवत् । क्ष꣡र꣢꣯ । स꣣हस्रि꣡णीः꣢ । इ꣡षः꣢꣯ ॥१२१२॥
स्वर रहित मन्त्र
परि णो अश्वमश्वविद्गोमदिन्दो हिरण्यवत् । क्षरा सहस्रिणीरिषः ॥१२१२॥
स्वर रहित पद पाठ
परि । नः । अश्वम् । अश्ववित् । अश्व । वित् । गोमत् । इन्दो । हिरण्यवत् । क्षर । सहस्रिणीः । इषः ॥१२१२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1212
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर तथा वीर मनुष्य को सम्बोधन है।
पदार्थ
हे (इन्दो) सम्पत्ति की वर्षा करनेवाले परमात्मन् वा वीर मनुष्य ! (अश्ववित्) प्राणबल वा अश्व प्राप्त करानेवाले आप (नः) हमारे लिए (अश्वम्) प्राणबल वा अश्वसमूह (परिक्षर) चारों ओर से बरसाओ। (गोमद्) वाणी के बल से युक्त वा धेनुओं से युक्त तथा (हिरण्यवत्) ज्योति से युक्त वा सुवर्ण से युक्त (सहस्रिणीः) सहस्र संख्यावाली (इषः) अभीष्ट सम्पदाएँ (परिक्षर) चारों ओर से बरसाओ ॥३॥
भावार्थ
परमेश्वर की कृपा से सब दिव्य तथा भौतिक सम्पदाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। साथ ही जो वीर होते हैं, उन्हें ही सम्पदाएँ हस्तगत होती हैं और वे अन्यों को भी उन्हें प्रदान करते हैं ॥३॥
पदार्थ
(इन्दो) हे आनन्दरसपूर्ण परमात्मन्! तू (अश्ववित्) व्यापनशील मन को—मनोभाव को जानने वाला है (नः) हमारे लिये (अश्वम्) व्यापनशील मन को (गोमत्) स्तुति वाणी वाला (हिरण्यवत्) यश वाला यशस्वी५ तथा (सहस्रिणीः-इषः) सहस्रों में ऊँची कामनाओं को भी (परिक्षर) सम्पन्न कर॥३॥
विशेष
<br>
विषय
अश्व-गौ-हिरण्य-इष
पदार्थ
हे (इन्दो) = शक्ति के पुञ्ज सोम! तू (न:) = हमारे लिए (अश्वविद्) = उत्तम कर्मेन्द्रियों को प्राप्त करानेवाला है। [अश्व=कर्मेन्द्रियाँ] १. (अश्वम्) = उत्तम कर्मेन्द्रियसमूह को (परिक्षर) = प्रकट कीजिए । यह उत्तम कर्मेन्द्रियों का समूह २. (गोमत्) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियोंवाला हो । ३. (हिरण्यवत्) = उत्तम धनवाला हो [हितरमणीय धनवाला हो] ।
हे सोम! तू (सहस्रिणी: इषः) = शतश: प्रेरणाओं को (परिक्षर) = देनेवाला हो । परमात्मपक्ष में तो इस मन्त्रभाग का अर्थ स्पष्ट ही है। सोम रक्षावाले पक्ष में जब सोम की ऊर्ध्वगति होकर हम दीप्त ज्ञानाग्निवाले तथा निर्मल हृदयवाले बनते हैं तब हम उस प्रभु के प्रकाश को देखनेवाले होते हैं और प्रभु की प्रेरणा को सुनते हैं ।
भावार्थ
सुरक्षित सोम हमें उत्तम कर्मेन्द्रियाँ, उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ, उत्तम धन व ज्ञान तथा प्रभु की शतश: प्रेरणाएँ प्राप्त कराता है ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (इन्दो) रसरूप आत्मन् ! (अश्वविद्) इन्द्रिय और मन को उत्तम रूप से लाभ करने हारा, (गोमत्) ज्ञानेन्द्रियों और (हिरण्यवत्) हरणशील प्राणेन्द्रियों से युक्त (अश्वं) मन को वश करके (नः) हमें (सहस्रिणीः) सहस्रों प्रकार से वर्त्तने वाली या बलवती (इषः) कामनाओं को (क्षर) पूर्ण कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरो वीरो जनश्च सम्बोध्यते।
पदार्थः
हे (इन्दो) सम्पद्वर्षक परमात्मन् वीर जन वा ! (अश्ववित्) अश्वानां प्राणबलनां तुरगाणां वा लम्भकः त्वम् (नः) अस्मभ्यम्, (अश्वम्) प्राणबलम् अश्वसमूहं वा (परिक्षर) परितो वर्ष। अपि च (गोमद्) वाग्बलयुक्तं धेनुयुक्तं वा, (हिरण्यवत्) ज्योतिर्युक्तं सुवर्णयुक्तं वा यथा स्यात् तथा (सहस्रिणीः) सहस्रसंख्योपेताः (इषः) अभीष्टसम्पदः (परिक्षर) परितो वर्ष ॥३॥
भावार्थः
परमेशकृपया सर्वा दिव्या भौतिक्यश्च सम्पदः प्राप्तुं शक्यन्ते। किञ्च ते वीरा भवन्ति तेषामेव सम्पदो हस्तगता जायन्ते, ते चान्यानपि ता लम्भयन्ति ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६१।३।
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, controlling the mind, endowed with action, knowledge, and supremacy, fulfil thousands of our desires !
Meaning
And for us, let abundant streams of food, energy and wealth of a thousandfold riches and variety flow abounding in horses, transport and progress, lands, cows and beauties of culture and literature, gold and golden graces. O creator, ruler and controller of peace and joy, you know the values and dynamics of evolution and progress. (Rg. 9-61-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्दो) હે આનંદરસપૂર્ણ પરમાત્મન્ ! તું (अश्ववित्) વ્યાપનશીલ મનને મનોભાવને જાણવાવાળો છે (नः) અમારા માટે (अश्वम्) વ્યાપનશીલ મનને (गोमत्) સ્તુતિ વાણીવાળા, (हिरण्यवत्) યશવાળા યશસ્વી તથા (सहस्रिणीः इषः) હજારોમાં શ્રેષ્ઠ કામનાઓને પણ (परिक्षर) સંપન્ન કર-પ્રાપ્ત કરાવ. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या कृपेने संपूर्ण दिव्य व भौतिक संपदा प्राप्त केली जाऊ शकते. जे वीर असतात त्यांनाच संपदा प्राप्त होते व ते इतरांनाही ती प्रदान करतात. ॥३॥
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