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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1220
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
44
प्रो꣢थ꣣द꣢श्वो꣣ न꣡ यव꣢꣯सेऽवि꣣ष्य꣢न्य꣣दा꣢ म꣣हः꣢ सं꣣व꣡र꣢णा꣣द्व्य꣡स्था꣢त् । आ꣡द꣢स्य꣣ वा꣢तो꣣ अ꣡नु꣢ वाति शो꣣चि꣡रध꣢꣯ स्म ते꣣ व्र꣡ज꣢नं कृ꣣ष्ण꣡म꣢स्ति ॥१२२०॥
स्वर सहित पद पाठप्रो꣡थ꣢꣯त् । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । य꣡वसे꣢꣯ । अ꣣विष्य꣢न् । य꣣दा꣢ । म꣣हः꣢ । सं꣣व꣡र꣢णात् । स꣣म् । व꣡र꣢꣯णात् । व्य꣡स्था꣢꣯त् । वि꣣ । अ꣡स्था꣢꣯त् । आत् । अ꣣स्य । वा꣡तः꣢꣯ । अ꣡नु꣢꣯ । वा꣣ति । शोचिः꣢ । अ꣡ध꣢꣯ । स्म꣣ । ते । व्र꣡ज꣢꣯नम् । कृ꣣ष्ण꣢म् । अ꣣स्ति ॥१२२०॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रोथदश्वो न यवसेऽविष्यन्यदा महः संवरणाद्व्यस्थात् । आदस्य वातो अनु वाति शोचिरध स्म ते व्रजनं कृष्णमस्ति ॥१२२०॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रोथत् । अश्वः । न । यवसे । अविष्यन् । यदा । महः । संवरणात् । सम् । वरणात् । व्यस्थात् । वि । अस्थात् । आत् । अस्य । वातः । अनु । वाति । शोचिः । अध । स्म । ते । व्रजनम् । कृष्णम् । अस्ति ॥१२२०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1220
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में विद्वान् का विषय है।
पदार्थ
(अश्वः न) घोड़ा जैसे (यदा) जब (महः संवरणात्) विशाल घुड़साल से (व्यस्थात्) छूटता है, तब (अविष्यन्) खाना चाहता हुआ (यवसे) घास पाने के हेतु (प्रोथत्) हिनहिनाता है, वैसे ही जो अग्नि अर्थात् विद्वान् स्नातक (यदा) जब (संवरणात्) गुरुकुल के नियन्त्रण से (व्यस्थात्) छूटता है, तब (यवसे) मानव-समाज में (प्रोथत्) पूर्णता लाता है। (आत्) उसके अनन्तर (वातः) समाज का वातावरण (अस्य) इस विद्वान् स्नातक की (शोचिः) दीप्ति के अर्थात् प्रभाव के (अनु वाति) पीछे-पीछे चलता है। आगे प्रत्यक्षरूप में कहते हैं—(अध) उसके बाद, हे विद्वान् स्नातक ! (ते) तेरा (व्रजनम्) चलना-फिरना आदि व्यापार (कृष्णम् अस्ति) आकर्षक हो जाता है ॥२॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥२॥
भावार्थ
जिसका समावर्तन संस्कार हो चुका है, ऐसा विद्वान् स्नातक गुरुकुल से बाहर आकर समाज में विद्या और सच्चरित्र का प्रसार करे ॥२॥
पदार्थ
(अश्वः-न यवसे प्रोथत्) जैसे घोड़े को घास भोजन के लिये जहाँ तहाँ परिप्राप्त होता है४ (यदा) जब (अविष्मन्) परमात्मा उपासक की रक्षा करने के हेतु (महः संवरणात्-व्यवस्थात्) महान् मोक्ष स्थान से अपने कृपापात्र उपासक आत्मा के अन्दर व्यवस्थित—साक्षात् हो जाता है (आत्) अनन्तर (वातः-अस्य-अनुवाति) जब उपासक आत्मा५ इस परमात्मा के अनुकूल हो जाता है (अधस्म) तब ही (ते शोचिः कृष्णं वृजनम्-अस्ति) तेरी ज्योति आकर्षक बल६ है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
हवा के रुख को बदल देना
पदार्थ
(यवसे) = घास के लिए (अविष्यन्) = कामना करता हुआ (न) = जैसे (प्रोथद् अश्वः) = शब्द करता हुआ घोड़ा (महः संवरणात्) = एक महान् बाड़े से (व्यस्थात्) = बाहर आता है, इसी प्रकार (यवसे) = संसार के इन भोग्य-पदार्थों के लिए (अविष्यन्) = कामना करता हुआ अथवा (यवसे) = [यु- मिश्रण-अमिश्रण] संसार को पाप से पृथक् व पुण्य से संयुक्त करने की कामना करता हुआ (प्रोथत्) = [प्रोथ=to withstand, overcome] सब विरोधी शक्तियों का मुकाबला करता हुआ और विघ्नों को जीतता हुआ (अश्वः) = शक्तिशाली पुरुष (यदा) = जब (महः संवरणात्) = आचार्यकुल के महनीय संवरण [shelter] से (व्यवस्थात्) = बाहर – संसार में आता है, तब (आत्) = शीघ्र ही (अस्य शोचिः अनुः) = इसकी दीप्ति के अनुसार (वातः वाति) = वायु बहती है । यह जितना अधिक ज्ञान का प्रसार करता है उतने ही लोग इसके अनुयायी बनने लगते हैं। लोगों का झुकाव इसकी ज्ञानदीप्ति के अनुसार ही परिवर्तित हो जाता है ।
हे अग्ने ! नेतः ! (अध) = अब (ते) = तेरा (व्रजनम्) = गमन (कृष्णम्) = आकर्षक (अस्ति स्म) = हो जाता है । जिधर यह चाहता है उधर ही लोगों को ले जाता है । यह लोगों में एक क्रान्ति-सी उत्पन्न कर देता है। उनमें आगे बढ़ने के लिए, (यवसे) = रूढ़ियों से अलग होकर उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ चलने के लिए, उत्साह का सञ्चार कर देता है ।
भावार्थ
नेता विरोधों को जीतता हुआ लोगों में एक हलचल उत्पन्न कर देता है।
विषय
missing
भावार्थ
(प्रोथत्) शब्द करता हुआ (अश्वः न) अश्व जिस प्रकार (अविष्यन्) भोजन करने की कामना से (यवसे) घास पर जाता है उसी प्रकार (यदा) जब (महः) महान् श्रेष्ठ (संवरणात्) संवरण निरोधस्थान या वरण योग्य उत्तम ब्रह्मचर्याश्रम, या गुरुगृह से अपने यश और धनादि प्राप्ति और गृहस्थादि भोग्य आश्रमों के लिये (वि अस्थात्) बाहर आता है और (आत्) अनन्तर (अस्य) इसके (शोचिः) तेज के (अनु) अनुकूल (वातिः) प्राण भी (वाति) गति करता है (अध) तब ही हे विद्वान् ! (ते) तेरा (व्रजनं) मार्ग या गमन करना (कृष्णम्) समस्त लोकों को अपनी ओर आकर्षण करने वाला (अस्ति) होता है। ब्रह्मचर्य करने के बाद गृहस्थ में भी उत्तम सदाचार और स्वस्थता से व्यवहार और जीवन यापन करने वाले विद्वानों के जीवनपथ पर दुनियां भी खिंची चली आती है। मम वर्त्मानुवर्त्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः। गीता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ प्रतर्दनो दैवोदामिः। २-४ असितः काश्यपो देवलो वा। ५, ११ उचथ्यः। ६, ७ ममहीयुः। ८, १५ निध्रुविः कश्यपः। ९ वसिष्ठः। १० सुकक्षः। १२ कविंः। १३ देवातिथिः काण्वः। १४ भर्गः प्रागाथः। १६ अम्बरीषः। ऋजिश्वा च। १७ अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः। १८ उशनाः काव्यः। १९ नृमेधः। २० जेता माधुच्छन्दसः॥ देवता—१-८, ११, १२, १५-१७ पवमानः सोमः। ९, १८ अग्निः। १०, १३, १४, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—२-११, १५, १८ गायत्री। त्रिष्टुप्। १२ जगती। १३ बृहती। १४, १५, १८ प्रागाथं। १६, २० अनुष्टुप् १७ द्विपदा विराट्। १९ उष्णिक्॥ स्वरः—२-११, १५, १८ षड्जः। १ धैवतः। १२ निषादः। १३, १४ मध्यमः। १६,२० गान्धारः। १७ पञ्चमः। १९ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह।
पदार्थः
(अश्वं न) अश्वो यथा (यदा) यस्मिन् काले (महः संवरणात्) महत्याः वाजिशालायाः (व्यस्थात्) विमुक्तो भवति तदा (अविष्यन्) अत्तुमिच्छन्। [अविष्यन्निति अत्तिकर्मसु पठितम्। निघं० २।९।] (यवसे) घासे निमित्ते (प्रोथत्) हेषते। [प्रोथृ पर्याप्तौ, भ्वादिः, लेटि तिपि रूपम्। प्रोथोऽश्वघोणा, तयोत्थाप्यमाने शब्देऽपि प्रोथतिः प्रयुज्यते।]तथैव यः अग्निः विद्वान् स्नातकः (यदा) यस्मिन् काले (संवरणात्) गुरुकुलस्य नियन्त्रणात् (व्यस्थात्) विमुक्तो जायते तदा (अविष्यन्) रक्षणं करिष्यन् (यवसे) मानवसमाजे। [यु मिश्रणामिश्रणयोः। बाहुलकादौणादिकः अस् प्रत्ययः। यूयते परस्परं मिलति यः स यवसः समाजः।] (प्रोथत्) पूर्णतामानयति। [प्रोथृ पर्याप्तौ ‘पर्याप्तिः पूर्णता’ इति क्षीरस्वामी।] (आत्) अनन्तरम् (वासः) समाजस्य वातावरणम् (अस्य) एतस्य अग्नेः विदुषः स्नातकस्य (शोचिः) दीप्तिम्, प्रभावम् (अनु वाति) अनुसरति। अथ प्रत्यक्षकृतमाह—(अध) तदनन्तरम्, हे अग्ने विद्वन् स्नातक ! (ते) तव (व्रजनम्) गमनम्, व्यापारः इति यावत् (कृष्णम् अस्ति) आकर्षकं जायते ॥२॥२
भावार्थः
कृतसमावर्तनसंस्कारो विद्वान् स्नातको गुरुकुलाद् बहिरागम्य समाजे विद्यायाः सच्चारित्र्यस्य च प्रसारं कुर्यात् ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।३।२। २. इममपि मन्त्रमृग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्विद्युद्विषये व्याख्यातवान्। तथा च तत्कृतो भावार्थः—‘यदा मनुष्या अग्नियानेन गमनं तडिता समाचारांश्च गृह्णीयुस्तदैते सद्यः कार्याणि साद्धुं शक्नुवन्ति’ इति।
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as a steed neighing eagerly goes to the grass, just so when a Brahmachari comes out of the house of his preceptor to enter the domestic life after finishing his studies. and thereafter his breath follows his dignity, then, alone, O learned person, does thy conduct in life, attract mankind towards thee.
Translator Comment
After entering the Grihastha Ashrama, if a man follows the path of virtue and righteousness, he sets an example for others and persuades them to follow In his wake.
Meaning
Roaring and consuming its food like a horse exulting in grass, it rises from its source and moves like velocity itself, splitting, protecting, accomplishing. Currents of wind and energy follow the rise of its power. O fiery energy, attraction and repulsion, thats your path of motion. (Rg. 7-3-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अश्वः न यवसे प्रोथत्) જેમ ઘોડાને જ્યાં-ત્યાં ઘાસ ભોજન પરિપ્રાપ્ત થાય છે. (यदा) જ્યારે (अविष्मन्) પરમાત્મા ઉપાસકની રક્ષા કરવા માટે (महः संवरणात् व्यवस्थात्) મહાન મોક્ષસ્થાનથી પોતાના કૃપાપાત્ર ઉપાસક આત્માની અંદર વ્યવસ્થિત-સાક્ષાત્ થઈ જાય છે. (आत्) અનન્તર (वातः अस्य अनुवाति) જ્યારે ઉપાસક આત્મા એ પરમાત્માને અનુકૂળ બની જાય છે, (अधस्म) ત્યારે જ (ते शोचिः कृष्णं वृजनम् अस्ति) તારી જ્યોતિ આકર્ષક બળ છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याचा समावर्तन संस्कार झालेला आहे अशा विद्वान स्नातकाने गुरुकुलातून बाहेर पडल्यानंतर समाजात विद्या व सच्चरित्राचा प्रसार करावा.॥२॥
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