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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 128
ऋषिः - श्रुतकक्षः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
33
मा꣡ न꣢ इन्द्रा꣣भ्या꣢३꣱दि꣢शः꣣ सू꣡रो꣢ अ꣣क्तु꣡ष्वा य꣢꣯मत् । त्वा꣢ यु꣣जा꣡ व꣢नेम꣣ त꣢त् ॥१२८॥
स्वर सहित पद पाठमा ꣢ । नः꣣ । इन्द्र । अभि꣢ । आ꣣दि꣡शः꣢ । आ꣣ । दि꣡शः꣢꣯ । सूरः꣢꣯ । अ꣣क्तु꣡षु꣢ । आ । य꣣मत् । त्वा꣢ । यु꣣जा꣢ । व꣣नेम । त꣢त् ॥१२८॥
स्वर रहित मन्त्र
मा न इन्द्राभ्या३दिशः सूरो अक्तुष्वा यमत् । त्वा युजा वनेम तत् ॥१२८॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । नः । इन्द्र । अभि । आदिशः । आ । दिशः । सूरः । अक्तुषु । आ । यमत् । त्वा । युजा । वनेम । तत् ॥१२८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 128
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह प्रार्थना है कि इन्द्र की मैत्री प्राप्त कर हम आक्रान्ता शत्रुओं पर विजय पा लें।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमवीर परमात्मन् अथवा राजन् ! (आदिशः) किसी भी दिशा से (सूरः) अवसर देखकर चुपके से आजानेवाला काम-क्रोधादि राक्षसगण या चोर आदि का समूह (अक्तुषु) अज्ञान-रात्रियों में अथवा अँधेरी रातों में (नः) हमें (मा) मत (अभि आ यमत्) आक्रान्त करे। यदि आक्रान्त करे तो (त्वा) आप (युजा) सहायक के द्वारा हम (तत्) उस कामादि राक्षसगण को अथवा चोरों के गिरोह को (वनेम) विनष्ट कर दें, समूल उन्मूलन करने में समर्थ हों ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥
भावार्थ
इस संसार में अज्ञानान्धकार में अथवा अँधियारी रात में पड़े हुए हम लोगों की न्यूनता देखकर जो कोई काम-क्रोधादि या चोर-लुटेरा आदि हम पर आक्रमण कर हमे विनष्ट करना चाहे, उसे परमात्मा और राजा की सहायता से हम धूल में मिला दें ॥४॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (आदिशः) दिशा-दिशा से किसी भी दिशा से या दिशा-दिशा में वर्तमान—किसी भी दिशा में वर्तमान “आङ् अभिविध्यर्थे” (सूरः) सूर्य के समान तापक पीडक “लुप्तोपमावाचकालङ्कारः” (अक्तुषु) रात्रियों के समान अवसरों—अज्ञानादि में या (अक्तुषु सूरः) रात्रियों में—रात्रियों का सूर्य—रात्रियों अन्धकारों में ताप देने वाला पाप पापिष्ठ हिंसक (नः) हमें (मा-आयमत्) मत आयत कर—दबावें (तत्) तिससे—अतः प्रथम ही (त्वा युजा वनेम) तुझसे युक्त होने वाले साथी परमात्मा के साथ—मेरी सहायता से हिंसित करें—नष्ट करें उसको दबाने का अवसर न दें।
भावार्थ
परमात्मन्! किसी दिशा से रात्रि—अज्ञान अवसर पाकर जो तापक पापभाव पापिष्ठ प्राणी हमें न दबा लें अतः प्रथम ही तुझ साथी से युक्त हुए हम उसे हिंसित कर दें॥४॥
विशेष
ऋषिः—श्रुतकक्षः (श्रवण किया है अध्यात्मकक्ष जिसने ऐसा जन)॥<br>
विषय
प्रभु से मिलकर
पदार्थ
हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो! (नः) = हमें (अक्तुषु) = रात्रि के समान अज्ञानान्धकारों में यह वासना (मा)=मत (आयमत्) = काबू कर ले। मनुष्य का जीवन प्रायः अन्धकार में चलता है। कभी-कभी उसके जीवन में प्रकाश की किरण [ flash of light] चमक उठती है, परन्तु सामान्यतः अन्धकार ही रहता है। उसे अपने जीवन के उद्देश्य का ध्यान ही नहीं होता। 'क्या करने आया था और क्या करने में वह लगा हुआ है ? ' धन-सम्पत्तिके जोड़ने में और भोगों के भोगने में वह अहर्निश लिप्त रहता है। यही उसका रात्रि के समान अन्धकारमय जीवन है और इन रात्रियों में कामादि वासनाएँ उसे और अधिक काबू किये चली जातीं हैं। वासनाओं से अभिभूत यह व्यक्ति अपनी दुर्गति का आभास होने पर प्रभु से इस रूप में प्रार्थना करता है कि ये व्यसन हमें दबा न लें। यह वासनाएँ कैसी हैं?
१. (अभि आ दिश:) = ' यह कमा लिया है', अब यह कमाओ; उस शत्रु को मार लिया है, अब इसे मारो; यह कर लिया है, अब वह करो; इतना जुटा लिया है, अब इतना जुटाने की व्यवस्था करो;-इस प्रकार ये वासनाएँ हमें चारों ओर अपने आदेशों से दौड़ लगवा रही हैं। इस व्यक्ति को शान्ति नहीं, घर में रहने का सुख नहीं।
२. (सूरः) = [सु अतिशयितम् उरो यस्य] यह वासना बड़ी बलवान् है । न चाहते हुए भी हम उससे धकेले जा रहे हैं। चाहते हुए भी इसे हम काबू में नहीं कर पाते । काबू किये बिना कल्याण नहीं, परन्तु काबू करना भी कठिन है। हाँ, त्वा युजा वनेम तत्-हे प्रभो! तेरे साथ युक्त होकर हम इसे समाप्त कर डालें। आपके सहायक होने पर इस वासना ने हमारा क्या बिगाड़ना? आपकी तो दृष्टि से ही यह भस्म हो जाती है। मुझे आपका ज्ञान हुआ, आपका मेरे हृदय में वास हुआ और यह वासना नष्ट हुई। एवं, आपका ज्ञान ही मेरी शरण है।
हे प्रभो! कृपा करो। आपकी कृपा ही मुझे वासना पर विजयी बनाएगी। श्रुत - विज्ञान ही मेरा कक्ष है, सुरक्षा स्थान है और आपकी मित्रता ही मुझे शक्तिशाली ‘आङ्गिरस' बनानेवाली है।
भावार्थ
प्रभु के ज्ञान द्वारा मैं प्रभु को अपना मित्र बनाऊँ और इस मित्रता द्वारा वासना का विनाश करने में समर्थ बनूँ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे ( इन्द्र ) = इन्द ! ऐश्वर्यवन् ! ( आ दिश: ) = चारों दिशाओं से भी ( नः !) = हमारे ( अभि ) = प्रति ( अक्तुषु ) = रात्रि, अन्धकार युक्त कालों में, राजस तामस अवस्थाओं में भी ( सूरः ) = चुपके २ छापा मारने वाला चोर या हिंसक जन्तु या काम क्रोध आदि शत्रु ( नः मा अभि आ यमत्१ ) = हम पर काबू न करले, फांस न ले बल्कि हम ( तत् ) = उस समय ( त्वा युजा ) = तुझ अपने सहायक द्वारा उसे ( वनेम ) = मार डालें ।
अक्रु: रात्रिनाम । नि० १। ७ ॥२.यम परिवेषणे ( भ्वादिः ) ३. श्वथ ऋथ हिंसार्था: वन चेति भ्वादिः ।
टिप्पणी
१२८-'आयमन्' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्रुतकक्षः।
छन्दः - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रस्य सख्यं प्राप्य वयमाक्रान्तॄन् विजयेमहीति प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे (इन्द्र) परमवीर परमात्मन् राजन् वा ! (आदिशः२) कस्मादपि दिग्भागात् (सूरः३) अवसरं दृष्ट्वाऽकस्मात् सरणशीलः कामक्रोधादिरक्षोगणश्चौरादिवर्गो वा। यथा यास्काचार्येण सूर्य शब्दः सृ गतौ धातोर्निष्पादितस्तथैव सूरशब्दोऽपि तस्मादेव धातोर्निष्पादयितुं शक्यम्। द्रष्टव्यम् निरु० १२।१४। (अक्तुषु) अज्ञानरात्रिषु तिमिरनिशासु वा। अक्तुरिति रात्रिनाम। निघं० १।७। (नः) अस्मान् (मा) न (अभि आ यमत्४) अभ्याक्रामेत्। अभि आङ् पूर्वाद् यम उपरमे धातोर्लेटि बहुलं छन्दसि अ० २।४।७३ इति शपो लुकि यच्छादेशाभावः। लेटोऽडाटौ अ० ३।४।९४ इत्यडागमः। यदि च अभ्याक्रामेत् तर्हि (त्वा) त्वया। युष्मदस्तृतीयैकवचने सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (युजा) सहायकेन, वयम् (तत्) रक्षोगणं चौरादिवर्गं वा (वनेम५) हिंस्याम, समूलमुन्मूलयितुं प्रभवेम ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥४॥
भावार्थः
जगत्यस्मिन्नज्ञानतिमिरे तमःपूर्णायां रात्रौ वा निवसतामस्माकं छिद्रं प्रेक्ष्य यः कोऽपि कामक्रोधादिश्चौरलुण्ठकादिर्वाऽऽक्रम्यास्मान् जिघांसति तं परमात्मनो नृपस्य च साहाय्येन वयं धूलिसात् कुर्याम ॥४॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९२।३१ ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। २. आभिमुख्येन युद्धार्थं ये आदिश्यन्ते ते अभ्यादिशः आज्ञाकरा इत्यर्थः—इति वि०। आदेष्टा, प्रवृत्तिरोधक आदेशः। यो नः पूषन्नघो वृको दुःशेव आदिदेशति। अप स्म तं पथोजहि। ऋ० १।४२।२ इति मन्त्रदर्शनात्—इति भ०। आदिशः आदेष्टा समन्तादायुधानि अतिसृजन्—इति सा०। ३. सूरः प्रेरकः शत्रुः०—इति भ०। सूरः, सृ गतौ, सर्वत्र सरणशीलः राक्षसः—इति सा०। उणादौ तु सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन् उ० २।२५ इति षू धातोः क्रन्। ४. मा आयमत् नाभिगच्छेदयम् इत्यर्थः—भ०। मा अभ्यागमत् आ आभिमुख्येन मा नियन्ताऽऽगन्ता भवतु—इति सा०। ५. वनेम वनतिर्यद्यप्यन्यत्र सम्भजनार्थस्तथापीह हिंसार्थो द्रष्टव्यः। हिंस्याम—इति० वि०। वनेम लभेमहि—इति भ०। वनेम हन्याम, श्रथश्लथक्लथ हिंसार्थाः, वन च इत्यत्र पठितत्वाद् हिंसार्थः—इति सा०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, Jet not lust or anger, our foe, overpower us stealthily from any direction, due to our ignorance. May we, with Thee as our Friend subdue that.
Meaning
Indra, powerful friend and ally in spirit and conduct, let no force, how so ever strong it may be, from any direction come at night and overtake us by violence. With you as a friend and inspirer, let us counter that attack and win. (Rg. 8-92-31)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (आदिशः) દિશામાં - કોઈપણ દિશામાં અથવા પ્રત્યેક દિશામાં વિદ્યમાન - કોઈપણ દિશામાં વિદ્યમાન (सूरः) સૂર્યની સમાન તાપક , પીડક (अक्तुषु) રાત્રીઓની સમાન અવસરો - અજ્ઞાનાદિમાં અથવા (अक्तुषु सूरः) રાત્રિઓમાં - રાત્રિઓનો સૂર્ય - રાત્રિઓ અંધકારોને તાપ આપનાર પાપ , પાપીષ્ઠ , હિંસક (नः) અમને (मा आयमत्) દબાવ નહિ (तत्) તેથી - પ્રથમ જ (त्वा युजा वनेम) તારાથી યુક્ત થનાર સાથી પરમાત્માની સાથે - મારી સહાયતાથી હિંસિત કરે - નષ્ટ કરે , તેને દબાવવાનો અવસર ન આપે. (૪)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! કોઈપણ દિશાથી રાત્રિ - અજ્ઞાન અવસર પ્રાપ્ત કરીને જે તાપક પાપભાવ પાપીષ્ઠ પ્રાણી અમને દવાવે નહિ , તેથી પ્રથમથી જ તારા સાથીપણાથી યુક્ત થયેલ અમે તેનો નાશ કરી નાખીએ. (૪)
उर्दू (1)
Mazmoon
جہالت کی تاریکی میں تیری مدد چاہیئے
Lafzi Maana
(اِندر کتُوشُو) اگیان اندھکار کی راتوں میں آپ (مانہ ابھی آدِشا) نہ تو ہمیں آپ سیدھا راستہ سُجھاتے ہیں اور نہ (سُورہ) پریرنا دیتے ہیں اور نہ (آیمت) ہمارے اندر بیٹھے معلوم ہوتے ہیں۔ (اگیان وش ہم آپ کو انتر آتما میں جان بھی نہیں پاتے) (تُوا یُجاتت ونیم) ہم تو آپ کی مدد کے ذریعے ہی جہالت کی تاریکیوں کو مِٹا سکیں گے۔ یہ ہے ہمارا الیقینِ واثق۔
Tashree
رات ہونے پر نہیں جب راہ کوئی سُوجھتی! ہو پر جا ویاکل اندھیرے میں ہے تجھ کو ڈھونڈتی۔
मराठी (2)
भावार्थ
या जगात अज्ञानांधकारात किंवा अंधार रात्री पडलेल्या आम्हा लोकांची कमतरता पाहून काम, क्रोध इत्यादी किंवा चोर लुटारू आमच्यावर आक्रमण करून आम्हाला नष्ट करू इच्छितात, त्यांना परमात्मा व राजाच्या साह्याने आम्ही धूळ चारावी ॥४॥
शब्दार्थ
हे (इन्द्र) परमवीर परमात्मा अथवा हे राजा, (आदिशः) कोणत्याही दिशेने (सूरः) मोका साधून हळूच शिरणारा काम, क्रोध आदी राक्षस गण अथवा चोरांची टोळी यांनी (अक्तुषु) अज्ञानरूप रात्रीमध्ये अथवा अंधाऱ्या रात्रीत (नः) आम्हावार वा आमच्या घरावर (मा अभि आ यमत्) आक्रमण करू नये (अशी कृपा करावा हे राजा, अशी व्यवस्था करा) त्या काम- क्रोधादी राक्षसांनी वा चोर- दरोडोखोरांनी यदा कदाचित आक्रमण केले, तर (त्वा) तुमच्यासारख्या (यजा)सहायकाच्या साह्याने आम्ही (तत्) त्या राक्षसांना व चोरांना (वनेम) नष्ट करू शकू वा त्यांचे समूळ उच्चाटन करण्यात यशस्वी होऊ, असे करा. ।। ४।।
भावार्थ
अज्ञानीधकारात सापडलेल्या या अंधाऱ्या रात्रीत झोपलेल्या आम्हा (नागरिकांवर) तसेच आम्हास बेसावध पाहून काम- क्रोध आदी मानसिक शत्रू अथवा चोर- दरेडोखोर आमच्यावर आक्रमण करून आम्हाला नष्ट करू पाहतील, तर आम्ही परमेश्वराच्या साह्याने मानसिक शत्रूंचा व राजाच्या साह्याने चोर आदी दुष्टांचा पूर्णपणे नायनाट करू ।। ४।।
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।। ४।।
तमिल (1)
Word Meaning
இந்திரனே! கருமையான கருத்துக்கள் எக்காலத்திலும் எங்களைச் சுற்றிலும் வேண்டாம், ரட்சகனான உன் உதவியால் நாங்கள் ஜயிக்கட்டும்.
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