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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 129
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
28
ए꣡न्द्र꣢ सान꣣सि꣢ꣳ र꣣यि꣢ꣳ स꣣जि꣡त्वा꣢नꣳ सदा꣣स꣡ह꣢म् । व꣡र्षि꣢ष्ठमू꣣त꣡ये꣢ भर ॥१२९॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । इ꣣न्द्र । सानसि꣢म् । र꣣यि꣢म् । स꣣जि꣡त्वा꣢नम् । स꣣ । जि꣡त्वा꣢꣯नम् । स꣣दास꣡ह꣢म् । स꣣दा । स꣡ह꣢꣯म् । व꣡र्षि꣢꣯ष्ठम् । ऊ꣣त꣡ये꣢ । भ꣣र । ॥१२९॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्र सानसिꣳ रयिꣳ सजित्वानꣳ सदासहम् । वर्षिष्ठमूतये भर ॥१२९॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । इन्द्र । सानसिम् । रयिम् । सजित्वानम् । स । जित्वानम् । सदासहम् । सदा । सहम् । वर्षिष्ठम् । ऊतये । भर । ॥१२९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 129
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में इन्द्र से धन की प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशाली, परम ऐश्वर्य के दाता परमात्मन् और राजन् ! आप (सानसिम्) संभजनीय, (सजित्वानम्) सहोत्पन्न शत्रुओं को जीतनेवाले, (सदासहम्) सदा दुष्ट शत्रुओं का अभिभव करानेवाले और दुःखों को सहन करानेवाले, (वर्षिष्ठम्) अतिशय बढ़े हुए और बढ़ानेवाले (रयिम्) अहिंसा, सत्य, शम, दम आदि दैवी सम्पदा को तथा विद्या, धन, बल, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक ऐश्वर्य को (ऊतये)) हमारी रक्षा, प्रगति, प्रीति और तृप्ति के लिए (आ भर) प्रदान कीजिए ॥५॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को परमधनी परमात्मा और राजा से याचना करके और अपने पुरुषार्थ द्वारा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान, शम, दम, तेज तप, क्षमा, धृति आदि दैवी सम्पदा और विद्या, धन, बल, दीर्घायुष्य, पशु, पुत्र, पौत्र, कलत्र, चक्रवर्ती राज्य आदि भौतिक सम्पदा का उपार्जन करना चाहिए ॥५॥
पदार्थ
(इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू (सानसिम्) सम्भजनीय (सजित्वानम्) समान जय कराने वाले शत्रु के समकक्ष में जिताने वाले—(सदासहम्) सदा शत्रु के बल को अभिभूत करने वाले (वर्षिष्ठम्) अत्यन्त बढ़े चढ़े—(रयिम्) धन-आत्मबलरूप धन को “वीर्यं वै रयिः” [श॰ १३.४.२.११] (ऊतये) स्वरक्षा करने के लिये (आभर) समन्तरूप से हमारे अन्दर भर दें।
भावार्थ
परमात्मन्! तू निरन्तर सेवन करने योग्य है, शत्रु के समकक्ष में सदा विजय कराने वाले सदा शत्रु के दमन करने वाले परमात्मन् अध्यात्म धन को हमारे अन्दर भरपूर कर दें॥५॥
विशेष
ऋषिः—मधुच्छन्दाः (मधु तन्त्र या मीठी इच्छा वाला)॥<br>
विषय
कैसा धन ?
पदार्थ
हे (इन्द्र)=परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (रयिं आभर) = हमें धन प्राप्त कराइए। कैसा धन? १. (सानसिम्)=सम्भजनीय धन। धन को मैं अकेला ही न खा लूँ। मैं उसका पञ्चयज्ञों में विनियोग करके यज्ञशेष को खानेवाला बनूँ। ('केवलाघो भवति केवलादी') अकेला खानेवाला पापी होता है - मैं इस तत्त्व को न भूलूँ। २.( सजित्वानम्) = उस धन को, जो मुझे सदा विजयशील बनाता है, जिस धन को पाकर मैं इन्द्रियों का दास नहीं बन जाता। ३. (सदासहम्) = जो धन सदा कामादि वासनाओं का अभिभव करनेवाला है। जिस धन से मैं लोभाभिभूत हो सदा मारा-मारा नहीं फिरता । ४. (वर्षिष्ठम्) = जो धन सदा अतिवृद्ध है और खूब बरसनेवाला है। धन की मात्रा भी मेरे पास पर्याप्त हो और मैं उसका खूब दान करनेवाला बनूँ। बस ऐसा ही धन तो (ऊतये) = हमारी रक्षा के लिए होता है।
इन उल्लिखित गुणों से युक्त धन नाश का कारण न बनकर कल्याण का साधक होता है। इस स्थिति में मैं 'मधुच्छन्दा' - उत्तम इच्छाओंवाला ‘वैश्वामित्रः' - सभी का मित्र होता हूँ।
भावार्थ
हम सदा औरों के साथ बाँटकर धन का उपभोग करें। बादल जल जुटाते-जुटाते काला होता जाता है, बरसता है तो सफेद हो जाता है। हम भी बरसने पर ही शुभ्र होंगे।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = हे इन्द्र ! ( सानासिं ) = उत्तम प्रकार से विभाग करने योग्य ( सजित्वानं ) = अपने शत्रु पर विजय दिलाने वाले, ( सदासहं ) = निरन्तर आने वाले आक्रमणों को सहन करने वाले, ( वर्षिष्ठं ) = शत्रु पर बाणों और आयुधों की वर्षा करने वाले या बहुत अधिक ( रायिं ) = सेना को ( ऊतये ) = रक्षा के लिये ( आ भर ) = प्राप्त कर । आत्मा के पक्ष में रयिः -प्राण या आत्मिक ज्ञान, बल जो शरीर में स्थान २ पर बटा हुआ है, सब दोषों पर विजय करता है सब कष्टों को सहता है, सब सुखों को उत्पन्न करता है और निरन्तर गति करता है।
रयि: रीङ् गतौः – रीयते गच्छति इति रयिः । यद्वा रातेदानार्थस्य । गच्छत्याक्रामति शत्रून् इति रयिः सेना । कोशायत्तत्वाद् भृतिरक्षिता सेना वा रयिः । सजित्वानं सदासहमिति विशेषणबलाद्रयि: सेनार्थः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - मधुच्छन्दा: ।
छन्दः - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रो धनं प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यशालिन् परमैश्वर्यप्रद परमात्मन् राजन् वा ! त्वम् (सानसिम्) संभजनीयम्। सानसि पर्णसि उ० ४।११० अनेनायं षण सम्भक्तौ धातोरसि प्रत्ययान्तो निपातितः। (सजित्वानम्२) सहभवान् शत्रून् जयतीति सजित्वा तम्। अत्र अन्येभ्योऽपि दृश्यते अ० ३।२।७५ अनेन जिधातोः क्वनिप् प्रत्ययः। सहस्य सभावः। (सदासहम्) सर्वदा दुष्टानां शत्रूणाम् अभिभवहेतुम्, सदा दुःखानां सहनहेतुं च। सदा पूर्वात् षह मर्षणे धातोः क्विप् प्रत्ययः। (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धं वृद्धिकारकं च। अत्र वृद्धशब्दात् अतिशायने इष्ठनि प्रियस्थिर० अ० ६।४।१५७ इत्यनेन वृद्धस्य वर्षिरादेशः। (रयिम्) अहिंसासत्यशमदमादिकां दैवीं सम्पदम् विद्याधनबलचक्रवर्तिराज्यादिकं भौतिकमैश्वर्यं च अस्माकम् (ऊतये) रक्षणाय, प्रगतये, प्रीतये, तृप्त्यै वा। अव रक्षणगतिकान्तिप्रीतितृप्त्यादिषु, तस्मात् क्तिनि रूपम्। (आभर) आहर। हृञ् हरणे, हृग्रहोर्भश्छन्दसि ८।२।३५ वा० इति हस्य भः ॥५॥३ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥५॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैः परमैश्वर्यवन्तं परमात्मानं राजानं च याचित्वा स्वपौरुषेण चाहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहशौचसन्तोषतपः- स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानशमदमतेजस्तपःक्षमाधृत्यादिरूपा दैवी सम्पद् विद्याधनबलदीर्घायुष्यपशुपुत्रपौत्रकलत्रचक्रवर्तिराज्यादिरूपा भौतिकी सम्पच्च समुपार्जनीया ॥५॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।८।१, अथ० २०।७०।१७। २. सजित्वानं सहभूतानां शत्रूणां जेतृ—इति वि०। सजित्वानो जयशीलाः पुरुषाः तैः सहितम्—इति भ०। समानशत्रुजयशीलम्, धनेन हि शूरान् भृत्यान् सम्पाद्य शत्रवो जीयन्ते—इति सा०। समानानां शत्रूणां विजयकारकम्—इति ऋ० १।८।१ भाष्ये द०। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं परमात्मपक्षे व्याख्यातवान्।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, grant me that adequate spiritual wealth, which is nicely distributed, is the conqueror of passions, and is competent to endure onslaughts.
Translator Comment
Nicely distributed means spread throughout all the organs of the body.^Onslaughts means mental and physical tortures.
Meaning
Indra, lord supreme of power and glory, bless us with the wealth of life and well-being that gives us the superiority of action over sufferance, delight and victory, courage and endurance, excellence and generosity, and leads us on way to progress under divine protection. (Rg. 1-8-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન્ પરમાત્મન્ ! તું (सानसिम्) સંભજનીય (सजित्वानम्) સમાન જય કરનાર શત્રુની સમકક્ષ જિતનાર , (सदासहम्) સદા શત્રુના બળને અભિભૂત કરનાર (वर्षिष्ठम्) વૃદ્ધિ પામેલ (रयिम्) ધન આત્મબળ રૂપ ધનની (ऊतये) સ્વરક્ષા કરવા માટે (आभर) સમગ્ર રૂપથી અંદર અંદર ભરી દે. (૫)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! તું નિરંતર સેવન કરવા યોગ્ય છે , શત્રુની સમકક્ષમાં સદા વિજય કરાવનાર , સદા શત્રુનું દમન કરનાર પરમાત્મન્ અધ્યાત્મધનને અમારી અંદર પુષ્કળ કરી દે. (૫)
उर्दू (1)
Mazmoon
سُکھ شانتی دینے والا دھن
Lafzi Maana
(اِندر) ہے ایشوریہ دانی پرماتمن! تُو (سان سِم سجِتوانم) سکھ شانتی دینے والے شتروؤں کے درمیان جے دلانے والے اور نفسانی خواہشات کو بھی ختم کرانے والے (سدا سہم) دشمن طاقتوں کو دبانے والے (ورششِٹہم) شروشریشٹھ سب سے اُتم (رِیم) ادھیاتمک بل شکتی رُوپ دھن کو (اُوتیے آبھر) ہماری سب طرف سے رکھشا کے لئے دیجئے۔
Tashree
ہے اِندر وہ دھن دو ہمیں جو بھگتی سے بھرپُور ہو، دیکھ جس کو دُشمنوں کا حوصلہ سب چُور ہو۔
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व माणसांनी परम धनी परमात्मा व राजाला याचना करून व आपल्या पुरुषार्थाद्वारे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान, शम, दम, तेज, तप, क्षमा, धृती इत्यादी दैवी संपदा व विद्या, धन, बल, दीर्घायुष्य, पशु, पुत्र, पौत्र, कलत्र, चक्रवर्ती राज्य इत्यादी भौतिक संपदांचे उपार्जन केले पाहिजे ॥५॥
विषय
पुढील मंत्रात इंद्राकडे धनाची याचना केली आहे -
शब्दार्थ
हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान, परमैश्वर्य प्रदाता परमात्मा आणि हे राजा, आपण (सानीसम्) भजनीय असून (सजित्वानम्) दूर वा जवळच्या शत्रूंना जिंकणारा आहात. अशा (सदासहम्) सदा दुष्ट शत्रूंचा पराभव करणाऱ्या अथवा भीषण दुःख सहन करण्याचे सामर्थ्य असलेल्या (वर्षिष्ठम्) अतिशय बृद्धीमान वा अतिशय उत्कर्ष देणाऱ्या आपणास विनंती करतो की (रयिम्) अहिंसा, सत्य, शम, दम आदी दैवीय संपदा तसेच विद्या, धन, शक्ती, चक्रवर्ती राज्य आदी जे भौतिक ऐश्वर्य आहे ते (ऊतमे) आमच्या रक्षणासाठी, प्रगती व समाधानासाठी (आ भर) आम्हींस द्या ।। ५।।
भावार्थ
सर्व लोकांनी परमधनी परमेश्वराला व राजाला याचना करीत स्व पुरुषार्थाद्वारे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयर्य़, अपरिग्रह, सौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान, शम, दम, तेज, तप, क्षमा, धृती आदी दैवीय संपदा प्राप्त केली पाहिजे. याव्यतिरिक्त सर्वांनी, विद्या, धन, बल, चक्रवर्ती राज्य, दीर्घायुष्य, पुत्र, पौत्र कलत्र आदींची याचना परमेश्वराजवळ केली पाहिजे. ।। ५।।
तमिल (1)
Word Meaning
எங்கள் உதவிக்கு சந்தோஷமளிப்பவனும் ஜயத்திற்குக் காரணமாயும் சதாகாலம் ஜயிக்கும் சிறப்புடன் செம்மையாகுபவனான ஐசுவர்யத்தை இந்திரனே! கொண்டுவரவும்.
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