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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1305
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
44
स꣢ म꣣ह्ना꣡ विश्वा꣢꣯ दुरि꣣ता꣡नि꣢ सा꣣ह्वा꣢न꣣ग्नि꣡ ष्ट꣢वे꣣ द꣢म꣣ आ꣢ जा꣣त꣡वे꣢दाः । स꣡ नो꣢ रक्षिषद्दुरि꣣ता꣡द꣢व꣣द्या꣢द꣣स्मा꣡न्गृ꣢ण꣣त꣢ उ꣣त꣡ नो꣢ म꣣घो꣡नः꣢ ॥१३०५॥
स्वर सहित पद पाठसः । म꣣ह्ना꣢ । वि꣡श्वा꣢ । दु꣣रिता꣡नि꣢ । दुः꣣ । इता꣡नि꣢ । सा꣣ह्वा꣢न् । अ꣣ग्निः꣢ । स्त꣣वे । द꣡मे꣢꣯ । आ । जा꣣त꣡वे꣢दाः । जा꣣त꣢ । वे꣣दाः । सः꣢ । नः꣣ । रक्षिषत् । दुरिता꣢त् । दुः꣣ । इता꣢त् । अ꣣वद्या꣢त् । अ꣣स्मा꣢न् । गृ꣣णतः꣢ । उ꣣त꣢ । नः꣣ । म꣡घो꣢नः ॥१३०५॥
स्वर रहित मन्त्र
स मह्ना विश्वा दुरितानि साह्वानग्नि ष्टवे दम आ जातवेदाः । स नो रक्षिषद्दुरितादवद्यादस्मान्गृणत उत नो मघोनः ॥१३०५॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । मह्ना । विश्वा । दुरितानि । दुः । इतानि । साह्वान् । अग्निः । स्तवे । दमे । आ । जातवेदाः । जात । वेदाः । सः । नः । रक्षिषत् । दुरितात् । दुः । इतात् । अवद्यात् । अस्मान् । गृणतः । उत । नः । मघोनः ॥१३०५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1305
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 8; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि परमेश्वर हमें किस तरह उपकृत करे।
पदार्थ
(मह्ना) महिमा से (विश्वा) सब (दुरितानि) पाप, दुःख, दुर्गुण, दुर्व्यसन आदियों को (साह्वान्) नष्ट कर देनेवाला, (जातवेदाः) सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी (अग्निः) अग्रणायक परमेश्वर (दमे) अन्तरात्मा-रूप घर में (आ स्तवे) प्रतिष्ठा पाता है। (सः) वह परमेश्वर (नः) हमें (अवद्यात्) निन्दनीय (दुरितात्) पाप से (रक्षिषत्) बचाये। (गृणतः) अर्चना करनेवाले (अस्मान्) हम स्तोताओं को (उत्) और (नः) हमारे (मघोनः) धनिक पुत्र, पौत्र, पत्नी आदि की (रक्षिषत्) रक्षा करे ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा को ध्याकर, उससे शुभ प्रेरणा पाकर हम और हमारे सम्बन्धी जन सब दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुःख आदि को दूर कर देवें ॥२॥
पदार्थ
(सः) वह (जातवेदाः-अग्निः) उत्पन्नमात्र एवं प्रसिद्ध मात्र का जानने वाला अग्रणी ज्ञानप्रकाशक परमात्मा (मह्ना) अपने महत्त्व से (विश्वा दुरितानि साह्वान्) हमारे सब कष्टों दुःखों को दबाने दूर करने वाला है (दमे आष्टवे) वह प्राप्त घर में समन्त रूप से स्तुति किया जाता है (सः) वह (नः) हमें हमारी (रक्षिषत्) रक्षा करे (अस्मान्-गृणतः-दुरितात्) हम स्तुति करने वालों की दुःखों से रक्षा करे (उत) अपि-और (नः-मघोनः-अवद्यात्) हम अध्यात्म-यज्ञ वालों या अध्यात्म धन वालों१ की निन्दनीयरूप पाप से रक्षा करे॥२॥
विशेष
<br>
विषय
प्रभु-स्तवन व यज्ञ
पदार्थ
(सः) = वह (अग्नि:) = हमारी अग्रगति का साधक, (जातवेदा:) = सर्वज्ञ प्रभु (दमे) = इस शरीररूप घर में (आस्तवे) = समन्तात् स्तुति किया जाता है। हम इस शरीर के अन्दर ही हृदय-प्रदेश में प्रभु का ध्यान करते हैं। प्रभु का बाहर किया गया ध्यान मूर्त्तिपूजा के रूप में परिणत हो जाता है फिर वह प्रभु का ध्यान न रहकर अन्ततः मूर्त्ति का ध्यान हो जाता है और मानव को मानव से फाड़ने का कारण बनता है । वे प्रभु हमसे जब भी स्तुत होते हैं तो हमारे सामने एक लक्ष्यदृष्टि उत्पन्न होती है और हम अपने जीवन-पथ में आगे बढ़ते हुए मनुष्य से देव बनते हैं। वे प्रभु 'अग्नि' तो हैं ही फिर हमारी उन्नति क्यों न होगी? सर्वज्ञ होने से वे प्रभु हमारी स्थिति के अनुसार हमें उचिततम साधन प्राप्त कराते हैं जिससे हम भरपूर उन्नति कर पाएँ ।
जब हम प्रभु के सच्चे भक्त बनते हैं तब (सः) = वे (मह्ना) = अपनी महिमा से (विश्वा दुरितानि साह्वान्) = सब बुराइयों को पराभूत करनेवाले होते हैं। प्रभु-स्तवन उच्च लक्ष्य उपस्थित करके हमें अशुभ कार्यों से बचाता है। (सः) = वे प्रभु (न:) = हमें (दुरितात्) = अशुभ आचरणों से तथा (अवद्यात्) = सब निन्दनीय बातों से (रक्षिषत्) = बचाएँ, परन्तु क्या हमारा यत्न अपेक्षित नहीं? क्या उसके बिना ही यह सब-कुछ हो जाएगा? इसका उत्तर इन शब्दों में दिया गया है कि ‘वे प्रभु बचाएँ' किनको? (अस्मान् गृणतः) = हम स्तुति करते हुओं को (उत) = और (नः) = हममें से (मघोनः) = [मघ=मख] यज्ञशील व्यक्तियों को। एवं, प्रभु हमें दुरित से बचाएँगे जब हमारा जीवन स्तुतिशील तथा यज्ञमय होगा।
भावार्थ
हम प्रभु-स्तवन यज्ञ को अपनाकर प्रभु से की जा रही रक्षा के पात्र बनें ।
विषय
missing
भावार्थ
(सः) वह (मह्ना) अपनी महिमा से (विश्वा दुरितानि) समस्त पापों को (साह्वान्) दूर करने हारा, (अग्निः) अग्निस्वरूप परमात्मा (जातवेदाः) समस्त पदार्थों का जानने हारा (दमे) हमारे हृदयरूप या ब्रह्माण्डरूप गृह में या यज्ञस्थल में (आ स्तवे) सर्व प्रकार से स्तुति किया जाता है। (सः) वह (नः) हमें (अवद्यात्) निन्दनीय (दुरितात्) पापाचरण से (रक्षिषत्) रक्षा करे। और (गृणतः) स्तुति करने हारे (अस्मान्) हम लोगों को बचावें। (उत) और (मघोनः) ज्ञान धन-सम्पन्न (नः) हमें पापाचरण से बचायें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरोऽस्मान् कथमुपकुर्यादित्याह।
पदार्थः
(मह्ना) महिम्ना (विश्वा) विश्वानि (दुरितानि) पापदुःखदुर्गुणदुर्व्यसनादीनि (साह्वान्) अभिभूतवान्। [सहतेः लिटः क्वसौ ‘दाश्वान्साह्वान्मीढ्वांश्च। अ० ६।१।१२’ इत्यनेन परस्मैपदमुपधादीर्घत्वमद्विर्वचनमनिट्त्वं च निपात्यते।] (जातवेदाः) सर्वज्ञः सर्वान्तर्यामी च (अग्निः) अग्रनायकः परमेश्वरः (दमे) अन्तरात्मरूपे गृहे। [दम इति गृहनाम। निघं० ३।४।] (आ स्तवे) आ स्तूयते। (सः) परमेश्वरः (नः) अस्मान् (अवद्यात्) गर्ह्यात्। [अवद्यपण्यवर्या गर्ह्यपणितव्यानिरोधेषु। अ० ३।१।१०१ इति गर्ह्यार्थे निपातनम्।] (दुरितात्) पापात् (रक्षिषत्) रक्षतु। [रक्षतेर्लेटि रूपम्।] (गृणतः) अर्चतः। [गृणातिः अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४।] (अस्मान्) स्तोतॄन् (उत) अपि च (नः) अस्माकम् (मघोनः) धनिकान् पुत्रपौत्रकलत्रादीन् (रक्षिषत्) रक्षतु ॥२॥२
भावार्थः
परमात्मानं ध्यात्वा ततः सत्प्रेरणां प्राप्य वयमस्माकं सम्बन्धिनश्च सर्वाणि दुर्गुणदुर्व्यसनदुःखादीनि दूरीकुर्याम ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Through His great might, overcoming all sins, praised in the heart is the Omniscient God. May He preserve us from despicable, sinful behaviour, both of us, who land Him and are wealthy in knowledge.
Meaning
May that Agni, self refulgent lord of cosmic energy, omnipresent percipient of every thing in existence and destroyer of all negativities and evils by his greatness in the world on prayer, save us all, devotees and celebrants blest with wealth, power and excellence, from sin and scandal. (Rg. 7-12-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सः) તે (जातवेदाः अग्निः) ઉત્પન્ન માત્ર અને પ્રસિદ્ધ પ્રકટ માત્ર ને જાણનાર અગ્રણી જ્ઞાન પ્રકાશક પરમાત્મા (मह्ना) પોતાના મહત્વથી (विश्वा दुरितानि साह्वान्) અમારા સમસ્ત કષ્ટો દુઃખોને દબાવી દૂર કરનાર છે. (दमे आष्टवे) તેની પ્રાપ્ત ઘરમાં સમગ્ર રૂપથી સ્તુતિ કરવામાં આવે છે. (सः) તે (नः) અમારી (रक्षिषत्) રક્ષા કરે. (अस्मान् गृणतः दुरितात्) અમે સ્તુતિ કરનારાઓની દુઃખોથી રક્ષા કરે. (उत) અને (नः मघोनः अवद्यात्) અમે અધ્યાત્મયજ્ઞ વાળા અથવા અધ્યાત્મ - ધનવાળાની નીંદનીયરૂપ પાપથી રક્ષા કરે. (2)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराचे ध्यान करून त्याच्याकडून शुभ प्रेरणा घेऊन आम्ही व आमच्या नातेवाईकांनी संपूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन, दु:ख इत्यादी दूर करावे. ॥२॥
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