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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1314
    ऋषिः - सप्तर्षयः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती) स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
    42

    नू꣣नं꣡ पु꣢ना꣣नो꣡ऽवि꣢भिः꣣ प꣡रि꣢ स्र꣣वा꣡द꣢ब्धः सुर꣣भि꣡न्त꣢रः । सु꣣ते꣡ चि꣢त्वा꣣प्सु꣡ म꣢दामो꣣ अ꣡न्ध꣢सा श्री꣣ण꣢न्तो꣣ गो꣢भि꣣रु꣡त्त꣢रम् ॥१३१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नू꣢नम् । पु꣣नानः꣢ । अ꣡वि꣢꣯भिः । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व । अ꣡द꣢꣯ब्धः । अ । द꣣ब्धः । सुरभि꣡न्त꣢रः । सु꣣ । रभि꣡न्त꣢रः । सु꣣ते꣢ । चि꣣त् । त्वा । अप्सु꣢ । म꣣दामः । अ꣡न्ध꣢꣯सा । श्री꣣ण꣡न्तः꣢ । गो꣡भिः꣢꣯ । उ꣡त्त꣢꣯रम् ॥१३१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नूनं पुनानोऽविभिः परि स्रवादब्धः सुरभिन्तरः । सुते चित्वाप्सु मदामो अन्धसा श्रीणन्तो गोभिरुत्तरम् ॥१३१४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नूनम् । पुनानः । अविभिः । परि । स्रव । अदब्धः । अ । दब्धः । सुरभिन्तरः । सु । रभिन्तरः । सुते । चित् । त्वा । अप्सु । मदामः । अन्धसा । श्रीणन्तः । गोभिः । उत्तरम् ॥१३१४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1314
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा को सम्बोधन किया गया है।

    पदार्थ

    हे सोम ! हे रसनिधि परमात्मन् ! (नूनम्) निश्चय ही (अविभिः) अपनी रक्षाओं से (पुनानः) हमें पवित्र करते हुए, (अदब्धः) किसी से न हराये जा सकनेवाले, (सुरभिन्तरः) अतिशय सौरभमय आप (परि स्रव) आनन्द-रस को प्रवाहित करो। (अन्धसा) आनन्द-रस के साथ (अप्सु) हमारे कर्मों में (सुते चित्) आपके परिस्रुत होने पर (उत्तरम्) अत्यन्त उत्कृष्ट (त्वा) आपको (गोभिः) आत्मा, मन, एवं बुद्धि से (श्रीणन्तः) पकाते हुए अर्थात् ध्याते हुए, हम (मदामः) मुदित होते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा में ध्यान से रक्षा, पवित्रता, सद्गुणों की सुगन्ध और परमानन्द प्राप्त होते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (अदब्धः) हे सोम—परमात्मन्! तू अबाधित (सुरभिन्तरः) अति शोभन जीवन निर्माणकर्ता प्राणों का प्राण४ (पुनानः) प्रार्थना किया हुआ (अविभिः परिस्रव) प्राप्तिसाधनों—योगाभ्यासों के द्वारा५ हृदय में परिप्राप्त हो (सुतेचित्) तेरे साक्षात् हो जाने पर (अन्धसा-अप्सु त्वा) आध्यान, स्मरण, चिन्तन से तुझे प्राणों में६ (उत्तरम्) पश्चात् (गोभिः श्रीणन्तः) इन्द्रियों में मिलाते हुए (नूनं मदामः) निश्चय हम हर्षित—आनन्दित होते हैं। हृदय में साक्षात् परमात्मा प्राणों इन्द्रियों में सुख सञ्चार करता है॥२॥

    विशेष

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    विषय

    सप्तर्षय

    पदार्थ

    ‘सप्तर्षयः'—[सप्त च ते ऋषयः सप् समवाये] उत्तम सोम का अपने शरीर में ही समवाय करनेवाले अतएव तत्त्वद्रष्टा लोग इस मन्त्र के ऋषि हैं। इनका महान् कार्य उत्पन्न सोम की शरीर में रक्षा करना ही है। इन (अविभिः) = रक्षकों से (नूनम्) = निश्चयपूर्वक (पुनान:) = पवित्र किया जाता हुआ हे सोम! तू (परिस्रव) = शरीर में चारों ओर परिस्रुत हो । (अदब्धः) = तू अहिंसित है। शरीर में तेरे व्याप्त होने पर शरीर में किसी प्रकार के रोग का आक्रमण नहीं होता। (सुरभिन्तरः) = शरीर को तू अत्यन्त सुगन्धवाला बना देता है । जब शरीर रोग व मलों से युक्त होता है तब शरीर से दुर्गन्ध आने लगती है। पूर्ण स्वस्थ शरीर यह दुर्गन्ध नहीं आती।

    (सुते चित्) = तेरे उत्पन्न होने पर ही १. (त्वा) = तेरे द्वारा (अप्सु) = कर्मों में (मदामः) = हम एक आनन्द का अनुभव करते हैं । निर्वीर्यता में अकर्मण्यता होती है- क्रियाओं में स्फूर्ति का अभाव होता है । हम २. (अन्धसा) = अत्यन्त ध्यान देने योग्य ध्यान से रक्षा करने योग्य तेरे द्वारा ही (श्रीणन्तः) = अपना परिपाक करते हैं और ३. (गोभिः) - इन्द्रियों के द्वारा (उत्तरम्) = ऊपर और ऊपर उठते हैं। सोमरक्षा से हम इन्द्रियों के द्वारा उत्तम कार्य करते हुए ऊपर उठते हैं । गोभिः = शब्द मुख्यरूप से ज्ञानेन्द्रियों का वाचक है। ज्ञानेन्द्रियों से उन्नति करते हुए हम ऋषि बन पाते हैं। सोम के अभाव में ये ज्ञानेन्द्रियाँ क्षीणशक्ति रहती हैं ।

    भावार्थ

    हम सोमरक्षा द्वारा अपने को पवित्र, अहिंसित व स्वस्थ बनाएँ । सोमरक्षा ही हमें क्रियाओं में आनन्द लेनेवाला, परिपक्व तथा ज्ञानी बनाये ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे सोम ! तू (अदब्धः) किसी से हिंसित न होने वाला, अधिक बलशाली (सुरभिंतरः) सब प्राणों से अधिक उत्तम गंध और बल वाला, (नूनं) निश्चय से (अविभिः) प्राणों द्वारा (पुनानः) अति पवित्र होता हुआ (परि स्रव) समस्त शरीर में गति कर। और (सुतेचित्) शरीर में उत्पन्न होने पर (अन्धसा) प्राण जीवन देने वाले अन्न और (गोभिः) इन्द्रियों के पुष्टिकारक दुग्धादि रसों द्वारा (श्रीणन्तः) तुझे परिपक्व करते हुए (अप्सु) शारीरिक कर्मों और मानसिक विचार क्रियाओं में हम (मदामः) आनन्द लाभ करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘परिस्वानः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं सम्बोधयति।

    पदार्थः

    हे सोम ! हे रसनिधे परमात्मन् ! (नूनम्) निश्चयेन (अविभिः) स्वकीयाभिः रक्षाभिः (पुनानः) अस्मान् पवित्रान् कुर्वाणः, (अदब्धः) केनापि अपराजितः, (सुरभिन्तरः) अतिशयेन सौरभमयः त्वम् (परिस्रव) आनन्दरसं प्रवाहय। (अन्धसा) आनन्दरसेन सह (अप्सु) अस्माकं कर्मसु (सुते चित्) त्वयि परिस्रुते सति (उत्तरम्) उत्कृष्टतरम् (त्वा) त्वाम् (गोभिः) आत्ममनोबुद्धिभिः (श्रीणन्तः) परिपचन्तः, ध्यायन्तः इति यावत्। [श्रीञ् पाके, क्र्यादिः।] (मदामः) मोदामहे। [मदी हर्षग्लेपनयोः, भ्वादिः] ॥२॥

    भावार्थः

    परमात्मध्यानेन रक्षा पवित्रता सद्गुणसौरभं परमानन्दश्च प्राप्यते ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O invincible, more odorous semen, purified through breathing exercises, flow in the whole of the body. On thy production in the body, ripening thee with food and milk, we take delight in performing physical and mental feats.

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    Meaning

    For sure, pure and purifying, flow on with protective and promotive forces, gracious, undaunted, more and more charming and blissful. When you are realised in our actions, mixed as one with our energies, will and senses, then we rejoice and celebrate you in our perceptions with hymns of praise, and later in silent communion. (Rg. 9-107-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अदब्धः) હે સોમ-પરમાત્મન્ ! તું અબાધિત (सूरभिन्तरः) અતિશોભન જીવન નિર્માણકર્તા પ્રાણોનો પ્રાણ (पुनानः) પ્રાર્થના કરેલ (अविभिः परिस्रव) પ્રાપ્તિ સાધનો-યોગાભ્યાસોના દ્વારા હૃદયમાં પરિપ્રાપ્ત થા. (सुतेचित्) તારો સાક્ષાત્ થયા પછી (अन्धसा अप्सु त्वा)  આધ્યાન, સ્મરણ, ચિંતનથી તને પ્રાણોમાં (उत्तरम्) પશ્ચાત્ (गोभिः श्रीणन्तः) ઇન્દ્રિયોમાં મેળવતાં (नूनं मदामः) નિશ્ચય અમે હર્ષિત-આનંદિત થઈએ છીએ. હૃદયમાં સાક્ષાત્ પરમાત્મા પ્રાણો ઇન્દ્રિયોમાં સુખ સંચાર કરે છે. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या ध्यानाने रक्षण, पवित्रता, सद्गुण, सुगंध व परमानंद प्राप्त होतात. ॥२॥

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