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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1323
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    28

    त्व꣡ꣳ सो꣢मासि धार꣣यु꣢र्म꣣न्द्र꣡ ओजि꣢꣯ष्ठो अध्व꣣रे꣢ । प꣡व꣢स्व मꣳह꣣य꣡द्र꣢यिः ॥१३२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्व꣢म् । सो꣣म । असि । धारयुः꣢ । म꣣न्द्रः꣢ । ओ꣡जि꣢꣯ष्ठः । अ꣣ध्वरे꣢ । प꣡व꣢꣯स्व । म꣣ꣳहय꣡द्र꣢यिः । म꣣ꣳहय꣢त् । र꣣यिः ॥१३२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वꣳ सोमासि धारयुर्मन्द्र ओजिष्ठो अध्वरे । पवस्व मꣳहयद्रयिः ॥१३२३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । सोम । असि । धारयुः । मन्द्रः । ओजिष्ठः । अध्वरे । पवस्व । मꣳहयद्रयिः । मꣳहयत् । रयिः ॥१३२३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1323
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमेश्वर के गुणों का वर्णन करके उससे प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (सोम) जगत् के रचयिता रसनिधि परमात्मन् ! (त्वम्) आप (धारयुः) आनन्द-धाराओं को देने के इच्छुक, (मन्द्रः) तृप्त करनेवाले और (ओजिष्ठः) सबसे अधिक ओजस्वी (असि) हो। (मंहयद्रयिः) जिनका धन वृद्धि प्रदान करनेवाला वा कीर्ति देनेवाला है, ऐसे आप (अध्वरे) जीवन-यज्ञ में (पवस्व) हमें पवित्र करते हो ॥१॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य परमात्मा की आराधना करके पुण्य, धन, आनन्द और सन्तुष्टि को अपने जीवन में प्राप्त करें ॥१॥

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    पदार्थ

    (सोमः) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! (त्वम्) तू (अध्वरे) मेरे अध्यात्मयज्ञ—ध्यानसमाधि में (धारयुः) धाराप्रवाह वाला—धाराप्रवाह में आता हुआ (मन्द्रः) हर्षकारी अत्यन्त ओजस्वी—आत्मबल देने वाला (मंहयद्रयिः) दातव्य धन वाला (पवस्व) प्राप्त हो॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—भरद्वाजः (अमृत अन्नभोग अपने अन्दर भरण—धारण करनेवाला उपासक)॥ देवता—पवमानः सोमः (धारारूप में प्राप्त होने वाला शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    ज्ञान की कामना व ओजस्विता

    पदार्थ

    'भरद्वाज' अपने अन्दर शक्ति भरनेवाले और 'बार्हस्पत्य' ज्ञानी से प्रभु कहते हैं कि १. (त्वम्) = तू हे (सोम) = शान्तस्वभाव पुरुष ! (धारयुः) = [धारा=वाङ्] वाणी की कामनावाला (असि) = है । तू सदा ज्ञान की कामनावाला होकर सतत वेदवाणी का अध्ययन कर । २. (मन्द्रः) = तू सदा प्रसन्न मनवाला बन । ३. (ओजिष्ठः) = अत्यन्त शक्तिशाली हो । ४. (अध्वरे) = यज्ञों में लगा हुआ (पवस्व) = अपने जीवन को पवित्र बना । तथा ५. (मंहयद् रयिः) = धन का सदा दान देनेवाला बन । =

    १. धन न देनेवाला २. यज्ञों में प्रवृत नहीं हो सकता । यज्ञों से दूर रहनेवाला व्यक्ति ३. विषयविलास की ओर जाकर शक्ति खो दाता है और कभी भी ओजिष्ठ नहीं बनता । ४. अन्ततः मानस आह्लाद भी इसे छोड़ जाता है और ५. 'यह ज्ञान की कामनावाला होगा' इस बात की तो सम्भावना ही नहीं रहती।

    भावार्थ

    हम ज्ञान की कामनावाले हों, ओजिष्ठ बनें।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (सोम) परमेश्वर ! (त्वं) तू (धारयुः) धारणायुक्त अथवा धारा या वेदवाणी का स्वामी, (मन्द्रः) अति आनन्दपूर्ण (ओजिष्ठः) अति बलवान्, (मंहयद् रयिः) ऐश्वर्य का प्रापक होकर (अध्वरे) उपासनामय यज्ञ में (पवस्व) प्रकाशित हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ परमेश्वरस्य गुणानुपवर्ण्य तं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (सोम) जगत्स्रष्टः रसनिधे परमात्मन् ! (त्वम्) धारयुः आनन्दधाराप्रदानकामः। [धाराः परेषामिच्छतीति धारयुः। छन्दसि परेच्छायां क्यच्, तत उः प्रत्ययः।] (मन्द्रः) तृप्तिकारकः, (ओजिष्ठः) ओजस्वितमश्च (असि) वर्तसे। (मंहयद्रयिः२) वृद्धिप्रदधनः कीर्तिकरधनो वा। [मंहयन् वृद्धिं कीर्तिं वा कुर्वन् रयिः धनं यस्य स इति बहुव्रीहिः। महि वृद्धौ भ्वादिः, ण्यन्तः, यद्वा महि भासार्थः चुरादिः, शतरि मंहयद् इति] त्वम् (अध्वरे) जीवनयज्ञे (पवस्व) अस्मान् पुनीहि ॥१॥

    भावार्थः

    सर्वे जनाः परमेश्वरमाराध्य पुण्यं धनमानन्दं सन्तुष्टिं च स्वजीवने प्राप्नुवन्तु ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, Thou art the Lord of Vedic speech, the Embodiment of joy, Mighty, and the Giver of prosperity. Shine in my heart!

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    Meaning

    O Soma, you are the spirit and constant stream of love, life and beauty of the life and flux of existence, sustaining integrative power, joyous and most vigorous in the cosmic yajna of love free from violence, hate and destruction. Flow on, O sustaining stream, pure, purifying and sanctifying life, giving showers of wealth, honour and excellence of life in bliss. (Rg. 9-67-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोमः) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (त्वम्) તું (अध्वरे) મારા અધ્યાત્મયજ્ઞ ધ્યાન સમાધિમાં (धारयुः) ધારા પ્રવાહવાળા-ધારા પ્રવાહમાં આવતાં (मन्द्रः) હર્ષકારી અત્યંત ઓજસ્વી-આત્મબળદાતા (मंहयद्रयिः) દેનાર ધનવાળા (पवस्व) પ્રાપ્ત થા. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी परमात्म्याची आराधना करून पुण्य, धन, आनंद व संतुष्टी आपल्या जीवनात प्राप्त करावी. ॥१॥

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