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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1346
    ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    38

    यु꣣ङ्क्ष्वा꣢꣫ हि के꣣शि꣢ना꣣ ह꣢री꣣ वृ꣡ष꣢णा कक्ष्य꣣प्रा꣢ । अ꣡था꣢ न इन्द्र सोमपा गि꣣रा꣡मुप꣢꣯श्रुतिं चर ॥१३४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    युङ्क्ष्व꣢ । हि । के꣣शि꣡ना꣢ । हरी꣢꣯इ꣡ति꣢ । वृ꣡ष꣢꣯णा । क꣣क्ष्यप्रा꣢ । क꣣क्ष्य । प्रा꣢ । अ꣡थ꣢꣯ । नः꣣ । इन्द्र । सोमपाः । सोम । पाः । गिरा꣢म् । उ꣡प꣢꣯श्रुतिम् । उ꣡प꣢꣯ । श्रु꣣तिम् । चर ॥१३४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युङ्क्ष्वा हि केशिना हरी वृषणा कक्ष्यप्रा । अथा न इन्द्र सोमपा गिरामुपश्रुतिं चर ॥१३४६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युङ्क्ष्व । हि । केशिना । हरीइति । वृषणा । कक्ष्यप्रा । कक्ष्य । प्रा । अथ । नः । इन्द्र । सोमपाः । सोम । पाः । गिराम् । उपश्रुतिम् । उप । श्रुतिम् । चर ॥१३४६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1346
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।

    पदार्थ

    हे (सोमपाः) सौम्य गुणों के रक्षक (इन्द्र) परमात्मन् ! जैसे आप (केशिना) सूर्य-किरणों से युक्त, (वृषणा) बलवान् (कक्ष्यप्रा) अपनी-अपनी भ्रमण-कक्षा में वेग से गति करते हुए (हरी) परस्पर आकर्षण से युक्त चन्द्रमा और भूमण्डल को आपस में जोड़ते हो, वैसे ही (केशिना) जीवात्मा के प्रकाश से युक्त, (कक्ष्यप्रा) अपने-अपने विषय की कक्षा में चलते हुए (हरी) ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों को (युङ्क्ष्व) परस्पर सहयोगवाला करो। (अथ) इस प्रकार (नः) हमारी (गिराम्) सब प्रार्थना-वाणियों की (उपश्रुतिम्) सुनवाई (चर) करो ॥३॥ यहाँ श्लिष्ट वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे भूलोक और चन्द्रलोक एक-दूसरे के साथ सामञ्जस्य से वर्तमान हुए सूर्य का परिभ्रमण करते हैं, वैसे ही ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ आपस के सहयोग से मनुष्य का जीवन सञ्चालित करती हैं ॥३॥ इस खण्ड में अध्यात्म और राष्ट्र का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ दशम अध्याय में द्वादश खण्ड समाप्त ॥ दशम अध्याय समाप्त॥ पञ्चम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (सोमपाः-इन्द्र) हे उपासनारस के पान कर्ता—स्वीकारकर्ता तू (वृषणा कक्ष्यप्रा) सुखवर्षक कक्षगत—कक्षीवान् तेरे समीपवर्ती आत्मा को तृप्त करने वाले (केशिना) रश्मिमान्६ व्यापक प्रभाव वाले (हरी) तुझे हम तक ले आने वाले और हमें तुझ तक ले जाने वाले ऋक्, साम—ज्योति, शान्ति गुणों को७ (युङ्क्ष्व हि) अवश्य युक्त कर (अथ) अनन्तर—फिर (नः) हमारी (गिरां श्रुतिम्-उपचर) वाणियों की श्रुति—श्रवणीय प्रार्थना को उपयुक्त कर—स्वीकार—पूरी कर॥३॥

    विशेष

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    विषय

    तीन महान् कर्तव्य

    पदार्थ

    प्रभु 'मधुच्छन्दा' से कहते हैं १ . (हि) = निश्चय से तू (हरी) = इन्द्रियाश्वों को अपने इस शरीररूप रथ में (युङ्क्ष्व) = जोत । कैसे इन्द्रियाश्वों को ? [क] (केशिना:) = जो प्रकाशवाले हैं [प्रकाशवन्तौ] अर्थात् जो ज्ञान की दीप्ति से दीप्त हैं [ख] (वृषणा) = शक्तिशाली हैं। ज्ञान और शक्ति प्राप्त करके जो [ग] (कक्ष्यप्रा) = [कक्ष्या - अंगुलि - नि० २.५] कर्मों के द्वारा अंगुलियों का पूरण करनेवाले हैं, अर्थात् जो इन्द्रियाश्व सदा ज्ञानपूर्वक कर्म में प्रवृत्त हैं । २. (अथ) = ऐसा करके, अर्थात् इन्द्रियाश्वों को शरीर-रथ में जोतकर हे (इन्द्र) = इन्द्रियाश्वों को वश में रखनेवाले इन्द्र ! तू (नः) = हमारी प्राप्ति के लिए (सोमपा:) = सोम का – वीर्यशक्ति का – पान करनेवाला बन । सोम को अपने ही अन्दर सुरक्षित रख और ३. (नः गिराम्) = इन हमारी वेदवाणियों का (उपश्रुतिम्) = श्रवण (चर) = कर । तू सदा वेदवाणियों का श्रवण करनेवाला बन ।

    भावार्थ

    इस प्रकार मधुच्छन्दा के तीन महान् कर्त्तव्य हैं

    १. प्रकाशमय, शक्तिशाली-कर्म-व्यापृत घोड़ों - इन्द्रियों को शरीर-रथ में जोतना ।

    २. सोम-शक्ति को शरीर में ही सुरक्षित रखना।

    ३. वेदवाणियों का श्रवण करना ।

    गत मन्त्र में कहा था कि यह साधक अपने कर्त्तव्य को स्पष्ट देखता है। उन्हीं कर्त्तव्यों का उल्लेख प्रस्तुत मन्त्र में हो गया है ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे (सोमपाः) सोमरूप आनन्दरस का पान करने हारे (इन्द्र) आत्मन् ! (अथा) अब (नः) हमारे (गिराम्) वाणियों की (उपश्रुतिम्) ध्वनि को (चर) श्रवण कर। और (केशिना) ज्ञान, साधना से सम्पन्न (वृषणा) सुखों के वर्षक (कक्ष्यप्रा) कक्षा वालों को पूर्ण करने हारे प्राण और अपान दोनों को (युक्ष्वहि) साधना में नियुक्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (सोमपाः) सौम्यगुणानाम् रक्षक (इन्द्र) परमात्मन् ! यथा त्वम् (केशिना) केशिनौ सूर्यरश्मियुक्तौ। [केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति। निरु० १२।२५।] (वृषणा) वृषणौ बलवन्तौ, (कक्ष्यप्रा) कक्ष्यप्रौ स्वस्वभ्रमणकक्षामनुधावमानौ। [कक्ष्यां सूर्यपरिभ्रमणमार्गं प्रवेते गच्छतः यौ तौ।] (हरी) परस्पराकर्षणयुक्तौ चन्द्रभूगोलौ परस्परं योजयसि, तथैव (केशिना) जीवात्मप्रकाशयुक्तौ (वृषणा) बलवन्तौ कक्ष्यप्रा स्वस्वविषयकक्षामनुधावमानौ (हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ (युङ्क्ष्व) परस्परं सहयोगिनौ कुरु। (अथ) एवं च (नः) अस्माकम् (गिराम्) सर्वासां प्रार्थनावाचाम् (उपश्रुतिम्) श्रवणम्, पूर्तिम् (चर) कुरु ॥३॥२ अत्र श्लिष्टो वाचकलुप्तोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    यथा भूलोकचन्द्रलोकौ परस्परं सामञ्जस्येन वर्तमानौ सूर्यं परितो भ्रमतस्तथैव ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रिये पारस्परिकसहयोगेन मनुष्यस्य जीवनं सञ्चालयतः ॥३॥ अस्मिन् खण्डेऽध्यात्मविषयस्य राष्ट्रविषयस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥ इति बरेलीमण्डलान्तर्गतफरीदपुरवास्तव्यश्रीमद्गोपालराम-भगवतीदेवी तनयेन हरिद्वारीयगुरुकुलकाङ्गड़ी-विश्वविद्यालयेऽधीतविद्येन विद्यामार्तण्डेन आचार्यरामनाथवेदालङ्कारेण महर्षिदयानन्द सरस्वतीस्वामिकृतवेदभाष्यशैलीमनुसृत्य विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते सामवेदभाष्ये उत्तरार्चिके पञ्चमः प्रपाठकः समाप्तिमगात् ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, the enjoyer of happiness listen to the sound of our praise songs. Harness in the chariot of thy destination, the two horses of knowledge and action, that will bring thee happiness and lake thee to thy goal!

    Translator Comment

    Chariot means body. Destination means salvation.

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    Meaning

    Indra, lord of light blazing in the sun, protector and promoter of the soma of life and joy, yoke your team of sunbeams like chariot-horses, equal, opposite and complementary as the positive-negative currents of energy-circuit, beautiful in their operative field, generous, pervasive in the skies all round, listen to our prayer and advance the yajna of knowledge and action on earth. (Rg. 1-10-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सोमपाः इन्द्र) હે ઉપાસનારસનું પાનકર્તા-સ્વીકારકર્તા તું (वृषणा कक्ष्यप्रा) સુખવર્ષક કક્ષગતપાર્શ્વવાન તારી સમીપવર્તી આત્માને તૃપ્ત કરનારા (केशिना) રશ્મિવાન વ્યાપક પ્રભાવવાળા (हरी) તને અમારા સુધી લઈ આવનાર અને અમને તારા સુધી લઈ જનાર ઋક્, સામ-જ્યોતિ, શાન્તિ ગુણોને (युङ्क्ष्व हि) અવશ્ય યુક્ત કર (अथ) ત્યાર પછી-ફરી (नः) અમારી (गिरां श्रुतिम् उपचर) વાણીઓની શ્રુતિશ્રવણીય પ્રાર્થનાને ઉપયુક્ત કર-સ્વીકાર-પૂરી કર. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे भूलोक व चंद्रलोक एकमेकांबरोबर सामंजस्याने वर्तमान असून सूर्याभोवती परिभ्रमण करतात, तसेच ज्ञानेन्द्रिये व कर्मेन्द्रिये आपापसात सहयोग करून माणसाचे जीवन संचालित करतात. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात अध्यात्म व राष्ट्राचा विषय वर्णित असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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