Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1345
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
42
य꣢꣫त्सानोः꣣ सा꣡न्वारु꣢꣯हो꣣ भू꣡र्यस्प꣢꣯ष्ट꣣ क꣡र्त्व꣢म् । त꣢꣫दिन्द्रो꣣ अ꣡र्थं꣢ चेतति यू꣣थे꣡न꣢ वृ꣣ष्णि꣡रे꣢जति ॥१३४५॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । सा꣡नोः꣢꣯ । सा꣡नु꣢꣯ । आ꣡रु꣢꣯हः । आ꣣ । अ꣡रुहः꣢꣯ । भू꣡रि꣢꣯ । अ꣡स्प꣢꣯ष्ट । क꣡र्त्व꣢꣯म् । तत् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । अ꣡र्थ꣢꣯म् । चे꣣तति । यूथे꣡न꣢ । वृ꣣ष्णिः꣢ । ए꣣जति ॥१३४५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्सानोः सान्वारुहो भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् । तदिन्द्रो अर्थं चेतति यूथेन वृष्णिरेजति ॥१३४५॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । सानोः । सानु । आरुहः । आ । अरुहः । भूरि । अस्पष्ट । कर्त्वम् । तत् । इन्द्रः । अर्थम् । चेतति । यूथेन । वृष्णिः । एजति ॥१३४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1345
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 12; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमेश्वर के सहायक होने का वर्णन है।
पदार्थ
मनुष्य (यत्) जब (सानोः सानु) एक शिखर से दूसरे उच्चतर शिखर पर, अर्थात् एक लक्ष्य को पार करके उससे ऊँचे दूसरे लक्ष्य पर (आरुहः) चढ़कर पहुँच जाता हैऔर (भूरि) बहुत से (कर्त्वम्) करने योग्य कार्य को (अस्पष्ट) करता है, (तत्) तब (इन्द्रः) विघ्नविनाशक परमेश्वर, उसके (अर्थम्) उदेश्य को (चेतति) जान लेता है और (वृष्णिः) बल, सुख, आदि को बरसानेवाला होता हुआ (यूथेन) गुणसमूह के साथ (एजति) उसे प्राप्त होता है ॥२॥
भावार्थ
प्रगति के पथ पर जाते हुए मनुष्य का जगदीश्वर परम सहायक हो जाता है ॥२॥
पदार्थ
(यत्) कि जब उपासक (सानोः सानु-आरुहः) एक उच्च योगभूमि से दूसरी योगभूमि पर आरूढ़ होता जाता है (भूरि कर्त्वम्-अस्पष्ट) बहुत कर्म—अभ्यासकर्म३ को स्पर्श—सेवन या पार कर लेता है४ (तत्) तो वह (इन्द्रः-अर्थं चेतति) परमात्मा अभीष्ट को समझाता है, पुनः (वृष्णिः-यूथेन रेजति) सुखवर्षक परमात्मा मिलने योग्य सब अर्थमात्र प्रदान के मिष से प्राप्त होता है५॥२॥
विशेष
<br>
विषय
सानु से सानु पर आरोहण
पदार्थ
उन्नति के मार्ग पर आगे और आगे बढ़ता हुआ १. (यत्) = जब यह साधक (सानो: सानु आरुहः) = एक पर्वत शिखर से अगले पर्वत शिखर पर चढ़ता है, अर्थात् जब योग की एक भूमिका से अगली भूमिका में प्रवेश करता है तब २. यह (कर्त्वम्) = अपने कर्त्तव्य को (भूरि अस्पष्ट) = खूब ही स्पष्ट रूप से देखता है [स्पश् to see, behold, perceive] । हम जितना-जितना साधना के मार्ग पर आगे बढ़ते चलेंगे उतना ही हमें अपना कर्त्तव्य-पथ स्पष्ट दिखेगा । ३. (तत्) = तभी (इन्द्रः) = यह इन्द्रियवृत्तियों को आत्मवश्य करनेवाला आत्मा (अर्थम्) = वस्तुतत्त्व को (चेतति) = ठीक-ठीक जानता है । संसार की वास्तविकता को समझने के लिए भी योगमार्ग पर चलना आवश्यक है। इस मार्ग पर चले बिना हम आत्मा और अनात्मा के, अशुचि व शुचि के, अनित्य व नित्य के और सुख व दु:ख के स्वरूप में
विवेक नहीं कर पाते । ४. इस वस्तुतत्त्व को जानकर यह साधक (वृष्णिः) = शक्तिशाली होता हुआ तथा सबपर सुखों की वर्षा करनेवाला बनकर (यूथेन) = जनसमूह के साथ ही (एजति) = गतिवाला होता है । यह लोगों से दूर भागने का विचार नहीं करता । लोगों में ही रहता हुआ उनके अज्ञान व दुःख को करने के लिए यत्नशील होता है।
सबके लिए माधुर्यमय इच्छाओंवाला यह 'मधुच्छन्दाः' सबका मित्र ‘वैश्वामित्र' होता है। यह केवल अपने ही हित को नहीं चाहता।
भावार्थ
हम योग की भूमिकाओं में आगे और आगे बढ़ें, अपने कर्त्तव्य को अधिक स्पष्ट रूप में देखें, वस्तुतत्त्व को पहचानें और शक्तिशाली बनकर जनसमूह के साथ ही रहते हुए उन्हें उन्नत करें ।
विषय
missing
भावार्थ
(यत्) जब (सानोः सानु) ऊंची से ऊंची चित्तभूमि में साधक (आरुहः) चढ़ जाता है और (भूरि) बहुत कुछ मन संकल्प (कर्त्वं) पूर्ण करने के लिये (अस्पष्ट) साधन करता है । (तद्) तब (इन्द्रः) परमेश्वर (अर्थं) उसके इष्ट प्रयोजन को (चेतति) जान लेता है और तब (वृष्णिः) सुखों की वर्षा करने हारा वह आत्मा (एजति) सेनापति के समान आगे बढ़ता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ पराशरः। २ शुनःशेपः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४, ७ राहूगणः। ५, ६ नृमेधः प्रियमेधश्च। ८ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा। ९ वसिष्ठः। १० वत्सः काण्वः। ११ शतं वैखानसाः। १२ सप्तर्षयः। १३ वसुर्भारद्वाजः। १४ नृमेधः। १५ भर्गः प्रागाथः। १६ भरद्वाजः। १७ मनुराप्सवः। १८ अम्बरीष ऋजिष्वा च। १९ अग्नयो धिष्ण्याः ऐश्वराः। २० अमहीयुः। २१ त्रिशोकः काण्वः। २२ गोतमो राहूगणः। २३ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः॥ देवता—१—७, ११-१३, १६-२० पवमानः सोमः। ८ पावमान्यध्येतृस्तृतिः। ९ अग्निः। १०, १४, १५, २१-२३ इन्द्रः॥ छन्दः—१, ९ त्रिष्टुप्। २–७, १०, ११, १६, २०, २१ गायत्री। ८, १८, २३ अनुष्टुप्। १३ जगती। १४ निचृद् बृहती। १५ प्रागाथः। १७, २२ उष्णिक्। १२, १९ द्विपदा पंक्तिः॥ स्वरः—१, ९ धैवतः। २—७, १०, ११, १६, २०, २१ षड्जः। ८, १८, २३ गान्धारः। १३ निषादः। १४, १५ मध्यमः। १२, १९ पञ्चमः। १७, २२ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरस्य सहायकत्वमाह।
पदार्थः
मनुष्यः (यत्) यदा (सानोः सानु) शिखरात् उच्चतरं शिखरान्तरम्, एकं लक्ष्यं प्राप्य उच्चतरं लक्ष्यान्तरमित्यर्थः (आरुहः) आरोहति। [अत्र पुरुषव्यत्ययः।] (भूरि) बहु च (कर्त्वम्) कर्तुं योग्यं कार्यम् (अस्पष्ट) स्पृशति, करोतीत्यर्थः। [स्पश बाधनस्पर्शयोः, भ्वादिः। लडर्थे लुङ्,व्यत्ययेनात्मनेपदम्।] (तत्) तदा (इन्द्रः) विघ्नविदारकः परमेश्वरः तस्य (अर्थम्) उद्देश्यम् (चेतति) जानाति, अपि च (वृष्णिः) बलसुखादीनां वर्षकः सन् (यूथेन)) गुणगणेन सह (एजति) तं प्राप्नोति [एजति गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥२॥२
भावार्थः
प्रगतिपथं गच्छतो मानवस्य जगदीश्वरः परमः सहायको जायते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When a Yogi reaches the highest pinnacle of mental development, he exerts for the accomplishment of the aim, God, at that stage he knows his resolve, and his soul, the showerer of happiness, and advances like a general with his troop.
Translator Comment
.
Meaning
As the sun-beams radiate with waves of energy from one peak to another of a mountain illuminating each in succession, similarly when a person rises from one peak of action to another, accomplishing one after another as holy duty, then Indra, lord of light, generously illuminates one meaning of life and mystery after another for him. (Rg. 1-10-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यत्) જ્યારે ઉપાસક (सानोः सानुः आरुहः) એક ઊંચ યોગભૂમિથી બીજી યોગભૂમિ પર આરૂઢ થતો જાય છે, ત્યારે (भूरि कर्त्वम् अस्पष्ट) બહુજ કર્મ અભ્યાસ કર્મને સ્પર્શ-સેવન અર્થાત્ પાર કરી લે છે. (तत्) ત્યારે તે (इन्द्रः अर्थं चेतति) પરમાત્મા અભીષ્ટને સમજે છે, પુનઃ (वृष्णिः यूथेन रेजति) સુખવર્ષક પરમાત્મા પ્રાપ્ત થવા યોગ્ય સર્વ અર્થમાત્ર પ્રદાનને માટે પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
प्रगती पथावर जाणाऱ्या मनुष्याचा जगदीश्वर अत्यंत सहायक असतो. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal