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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1382
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    28

    उ꣣त꣡ ब्रु꣢वन्तु ज꣣न्त꣢व꣣ उ꣢द꣣ग्नि꣡र्वृ꣢त्र꣣हा꣡ज꣢नि । ध꣣नञ्जयो꣡ रणे꣢꣯रणे ॥१३८२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣣त꣢ । ब्रु꣣वन्तु । जन्त꣡वः꣢ । उत् । अ꣣ग्निः꣢ । वृ꣣त्र꣢हा । वृ꣣त्र । हा꣢ । अ꣣जनि । धनञ्जयः꣢ । ध꣣नम् । जयः꣢ । र꣡णे꣢꣯रणे । र꣡णे꣢꣯ । र꣢णे ॥१३८२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत ब्रुवन्तु जन्तव उदग्निर्वृत्रहाजनि । धनञ्जयो रणेरणे ॥१३८२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत । ब्रुवन्तु । जन्तवः । उत् । अग्निः । वृत्रहा । वृत्र । हा । अजनि । धनञ्जयः । धनम् । जयः । रणेरणे । रणे । रणे ॥१३८२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1382
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में उपासक क्या कहें, यह वर्णन है।

    पदार्थ

    (उत) और (जन्तवः) द्वितीय जन्म ग्रहण किये हुए द्विज उपासक (ब्रुवन्तु) हर्ष के साथ कहें कि यह (वृत्रहा) विघ्नविनाशक (अग्निः) अग्रनायक परमेश्वर (उद् अजनि) हमारे हृदय में प्रादुभूर्त हो गया है, जो (रणे-रणे) प्रत्येक देवासुरसङ्ग्राम में (धनञ्जयः) दिव्य धन प्राप्त करानेवाला है ॥४॥

    भावार्थ

    आन्तरिक और बाह्य देवासुरसङ्ग्राम में परमेश्वर-विश्वासियों की विजय होती है और विजय से उन्हें दिव्य तथा भौतिक धन प्राप्त होते हैं ॥४॥ इस खण्ड में परमेश्वरोपासना का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ बारहवें अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (रणे रणे) काम आदि शत्रुओं के साथ प्रत्येक संघर्ष प्रसङ्ग में (धनञ्जयः) उनके बल को६ जीतने वाला (वृत्रहा) पाप७ का नष्टकर्ता (अग्निः) परमात्मा (उदजनि) हृदय में उद्भूत हुआ—साक्षात् होता है (जन्तवः-उत) उपासकजन८ हाँ—अवश्य (ब्रुवन्तु) उस परमात्मा की स्तुति करें॥४॥

    विशेष

    <br>

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    विषय

    मन्त्रोच्चारण, ज्ञान, वासनाविजय

    पदार्थ

    (उत) = प्रभु कहते कि मेरी कामना [would that] है कि (जन्तवः) = जन्म लेनेवाले व्यक्ति (ब्रुवन्तु) = [ब्रू=व्यक्तायां वाचि] वेदमन्त्रों का स्पष्ट उच्चारण करें । ज्ञानप्राप्ति का क्रम ही यह था कि शैशव में गुरु से उच्चरित मन्त्रों का शिष्य उच्चारण करते थे। ज्ञानप्राप्ति का यही तो मुख्य द्वार था । इस उच्चारण प्रक्रिया का परिणाम यह होगा कि (अग्निः) = ज्ञानाग्नि (उदजनि) = उत्कृष्टरूप से प्रज्वलित होकर (वृत्रहा) = ज्ञान के आवरक काम का ध्वंस कर डालेगी।

    यह वसिष्ठ—जिसके जीवन में इस ज्ञानाग्नि का प्रकाश फैलता है - (रणे-रणे) = वासनाओं से चलनेवाले प्रत्येक रण में (धनं जय:) = धन का विजेता होता है। प्रत्येक युद्ध में विजय प्राप्त करके यह अपने ज्ञानधन को और अधिक बढ़ानेवाला होता है।

    भावार्थ

     हम शैशव से ही मन्त्रोच्चारण करें, जिससे हमारी ज्ञानाग्नि बढ़े और हम वासनाओं के साथ होनेवाले संग्राम में धनों के विजेता हों ।

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    विषय

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    भावार्थ

    और इसी प्रकार (जन्तवः) सब लोग (ब्रुवन्तु) उसका वर्णन करें और जानें कि (वृत्रहा) आवरणकारी अज्ञान और अंधकार का नाश करने हारा (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी, ज्ञानवान्, पथदर्शक और प्रकाशस्वरूप आचार्य और राजा (रणे रणे) रमणीय रमणीय प्रदेशों और संग्रामों में (धनंजयः) ज्ञान और धन का विजय करने हारा हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोपासकाः किं कुर्वन्त्वित्याह।

    पदार्थः

    (उत) अपि च (जन्तवः) अधिगतद्वितीयजन्मानो द्विजाः उपासकाः। [जन्यन्ते आचार्येण ये ते जन्तवो द्विजाः। कमिमनिजनिगाभायाहिभ्यश्च। उ० १।७३ इति जनेस्तुः प्रत्ययः।] (ब्रुवन्तु) हर्षेण कथयन्तु यत् अयम् (वृत्रहा) विघ्नहन्ता (अग्निः) अग्रनायकः परमेश्वरः (उद् अजनि) अस्माकं हृदये प्रादुर्भूतोऽस्ति। यः (रणे-रणे) संग्रामे संग्रामे, प्रतिदेवासुरसंग्रामम् (धनञ्जयः२) दिव्यधनस्य प्रापयिता वर्तते ॥४॥३

    भावार्थः

    आन्तरिके बाह्ये चापि देवासुरसंग्रामे परमेश्वरविश्वासिनां विजयो भवति विजयेन च तैर्दिव्यानि भौतिकानि च धनानि प्राप्यन्ते ॥४॥ अस्मिन् खण्डे परमेश्वरोपासनाविषयस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्तीति मन्तव्यम् ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Yea, let men say, Agni is born, who dispels ignorance and darkness, and winneth wealth in every battle.

    Translator Comment

    Agni means the King or Acharya. A preceptor wins every intellectual debate or fight as a King wins a battle.

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    Meaning

    And let the people praise and celebrate Agni who dispels the clouds of darkness, creates and protects the wealth of the charitable yajamana, and gives us victory in the battles for wealth one after another. (Rg. 1-74-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (रणे रणे) કામ આદિ શત્રુઓની સાથે પ્રત્યેક સંગ્રામ પ્રસંગમાં (धनञ्जयः) તેના બળને જીતનાર (वृत्रहा) પાપનો નાશ કરનાર (अग्निः) પરમાત્મા (उदजनि) હૃદયમાં ઉદ્ભૂત થઈને-સાક્ષાત્ થાય છે. (जन्तवः उत) ઉપાસકજનો હાં,-અવશ્ય (ब्रुवन्तु) તે પરમાત્માની સ્તુતિ કરે. (૪)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आंतरिक व बाह्य देवासुर संग्रामात परमेश्वर विश्वासू लोकांचा विजय होतो व त्या विजयामुळे त्यांना दिव्य व भौतिक धन प्राप्त होते. ॥४॥

    टिप्पणी

    या खंडात परमेश्वरोपासनेचा विषय वर्णित असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे

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