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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1429
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
29
य꣡ज्जाय꣢꣯था अपूर्व्य꣣ म꣡घ꣢वन्वृत्र꣣ह꣡त्या꣢य । त꣡त्पृ꣢थि꣣वी꣡म꣢प्रथय꣣स्त꣡द꣢स्तभ्ना उ꣣तो꣡ दिव꣢꣯म् ॥१४२९॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । जा꣡य꣢꣯थाः । अ꣣पूर्व्य । अ । पूर्व्य । म꣡घ꣢꣯वन् । वृ꣣त्रह꣡त्या꣢य । वृ꣣त्र । ह꣡त्या꣢꣯य । तत् । पृ꣣थिवी꣢म् । अ꣣प्रथयः । त꣢त् । अ꣣स्तभ्नाः । उत꣢ । उ꣣ । दि꣡व꣢꣯म् ॥१४२९॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्जायथा अपूर्व्य मघवन्वृत्रहत्याय । तत्पृथिवीमप्रथयस्तदस्तभ्ना उतो दिवम् ॥१४२९॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । जायथाः । अपूर्व्य । अ । पूर्व्य । मघवन् । वृत्रहत्याय । वृत्र । हत्याय । तत् । पृथिवीम् । अप्रथयः । तत् । अस्तभ्नाः । उत । उ । दिवम् ॥१४२९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1429
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ६०१ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ भी वही विषय प्रकारान्तर से दर्शाया जा रहा है।
पदार्थ
हे (अपूर्व्य) स्वयम्भू, (मघवन्) ऐश्वर्यशाली इन्द्र जगदीश्वर ! (यत्) क्योंकि, आप (वृत्रहत्याय) विघ्नों के विनाश के लिए (जायथाः) समर्थ हो, (तत्) इसी कारण, आप (पृथिवीम्)भूमण्डल को (अप्रथयः) फैला सके हो, (उत उ) और (तत्) इसी कारण (दिवम्) सूर्य को (अस्तभ्नाः) स्थिर कर सके हो ॥१॥
भावार्थ
जो विघ्नों को विनष्ट करने में समर्थ होता है, वही हाथ में लिये कार्यों में सफल होता है ॥१॥
पदार्थ
(अपूर्व्य मघवन्) हे अपूर्व गुणसम्पन्न मोक्षैश्वर्यवन् परमात्मन्! (वृत्रहत्याय) आत्मा को प्रथम से आवृत करने वाले अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये (यत् ‘यद्’-जायथाः) जब तू सृष्टि रचने की भावना से प्रसिद्ध होता है (तत् ‘तद्’) तब (पृथिवीम्-अप्रथयः) उसके लिये शरीर को५ प्रथित करता है—नाड़ी तन्तुओं, मांस हड्डियों से विस्तृत करता है कर्म करने को (उत-उ) और फिर (उत्-दिवम्-अस्तभ्नाः) तब अमृतधाम—मोक्ष को६ सम्भालता है मोक्ष प्राप्त कराने को॥१॥
विशेष
ऋषिः—नृमेधपुरुमेधावृषी (मुमुक्षु मेधा वाला और बहुत मेधा वाला)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—अनुष्टुप्॥<br>
विषय
वृत्रहत्या
पदार्थ
प्रभु कहते हैं कि हे (अपूर्व्य) = अद्वितीय [In-comparable] उन्नति कर सकनेवाले जीव ! (मघवन्) = अध्यात्मक ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले जीव ! (यत्) = जो तू (वृत्रहत्याय) = ज्ञान की आवरणभूत कामवासना के हनन के लिए (जायथा:) = उद्दिष्ट [to be destined for any thing] होता है, अर्थात् जब तेरा लक्ष्य वासना का विनाश हो जाता है और तू उसमें समर्थ होता है १. (तत्) = तब (पृथिवीम् अप्रथयः) = तू इस अपने पार्थिव शरीर को ठीक विस्तृत कर पाता है । वासना के विनाश के बिना शारीरिक विकास सम्भव नहीं। वासनाएँ शरीर को जीर्ण कर देती हैं । २. (उत तत् उ) = और तभी (दिवम्) = तू अपने मस्तिष्करूप द्युलोक को (अस्तभ्नाः) = थामनेवाला होता है । वृत्र - विनाश से वीर्यरक्षा होती है—यह वीर्य ही मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और मनुष्य की विचारशक्ति को ठीक रखता है— उसकी बुद्धि मन्द नहीं पड़ जाती – सठिया नहीं जाती।
यह स्वस्थ शरीर व स्वस्थ मस्तिष्कवाला व्यक्ति ‘नृ-मेध'=अन्य मनुष्यों के साथ सम्पर्कवाला बनता है। वासना-विनाश से इसके लिए स्वार्थ से ऊपर उठ सकना सम्भव हुआ— यह लोकहित में प्रवृत्त हो सका। इसका यह मेध=सङ्गम लोकरक्षण के लिए है, अत: यह 'पुरुमेध' [पृ=पालन] कहलाता है। यह वस्तुत: इस परार्थ के द्वारा ही स्वार्थ का भी साधन कर पाता है, क्योंकि यह परार्थ उसे वासनाओं से बचानेवाला प्रमाणित होता है, यह वासना का विजेता सचमुच 'अपूर्व्य'- अनुपम है – सच्ची अध्यात्म-सम्पत्ति को पाकर 'मघवा' कहलाने के योग्य है ।
भावार्थ
हम वृत्रहत्या द्वारा स्वस्थ शरीर व दीप्त मस्तिष्क को प्राप्त करनेवाले बनें।
विषय
missing
भावार्थ
हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! समस्त संसार को यज्ञरूप में सम्पादन करने हारे, समस्त विभूतियों के स्वामिन् ! हे (अपूर्व्य) सबसे पूर्व होने हारे ! अद्वितीय मूलकारण परमेश्वर ! (यत्) जब (वृत्रहत्याय) आवरणकारी ‘तुच्छ्व’ रूप प्रकृति के रजः पटल को गति देने और उस में विक्षोभ उत्पन्न करने के लिये (जायथाः) उस में शक्तिरूप से प्रकट होता है (तत्) तब (पृथिवी) अति विस्तृत व्यापक पृथिवी, मूलकारण प्रकृति को या जीवों के निवास के लिये इस पृथिवी को (अप्रथयः) तू ही विस्तृत करता है और (दिवं) इस समस्त आकाश स्थित लोकसमूह को भी (अस्तभ्नाः) अपने अपने स्थान पर स्तम्भित, स्थापित करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ६०१ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये व्याख्याता। अत्र स एव विषयः प्रकारान्तरेण निरूप्यते ॥
पदार्थः
हे (अपूर्व्य) स्वयम्भूः ! [पूर्वैः कृतः पूर्व्यः। ‘पूर्वैः कृतमिनयौ च।’ अ० ४।४।११३ इति य प्रत्ययः। न पूर्वैः कृतः अपूर्व्यः स्वयम्भूरित्यर्थः।] (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् इन्द्र जगदीश्वर ! (यत्) यस्मात्, त्वम् (वृत्रहत्याय) विघ्नविनाशाय (जायथाः) अजायथाः, समर्थोऽभवः, (तत्) तस्मात् (पृथिवीम्) भूमण्डलम् (अप्रथयः) व्यस्तृणाः, (उत उ) अपि च (तत्) तस्मादेव च (दिवम्) सूर्यम् (अस्तभ्नाः) स्थिरीकृतवानसि ॥१॥
भावार्थः
यो विघ्नान् विहन्तुं समर्थो भवति स एव हस्तगृहीतेषु कार्येषु सफलो जायते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Eternal God, when Thou, for removal of the darkness of dissolution, Greatest the universe, Thou spreadest out the spacious Earth, and upholdest the Heaven!
Translator Comment
God creates, sustains and disiolves the universe. After the expiry of the period of dissolution which lasts for 43,2,00,00,000 years. He brings cosmos out of chaos, and creates anew the Earth and Heaven etc. This cycle of creation and dissolution is beginningless and endless.
Meaning
O lord of glory, Indra, matchless without precedent, when you rise for the elimination of darkness, then you manifest the wide space and plan the heaven, earth and sky in their place in the cosmic order. (Rg. 8-89-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अपूर्व्य मघवन्) હે અપૂર્વ ગુણ સંપન્ન મૌક્ષૈશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (वृत्रहत्याय) આત્માને પ્રથમથી આવૃત કરનારા અજ્ઞાન અંધકારને નષ્ટ કરવા માટે (यत् "यद्" जायथाः) જ્યારે તું સૃષ્ટિ રચનાની ભાવનાથી પ્રસિદ્ધ-પ્રકટ થાય છે, (तत् "तद्") ત્યારે (पृथिवीम् अप्रथयः) તેને માટે શરીરને પ્રથિત-વિસ્તૃત કરે છે-નાડી તંતુઓ, માંસ, અસ્થિઓથી વિસ્તૃત કરે છે-કર્મ કરવા માટે (उत उ) અને પછી (उत् दिवम् अस्तभ्नाः) ત્યારે અમૃતધામ મોક્ષને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવવા માટે સંભાળે છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जो विघ्नांना नष्ट करण्यात समर्थ असतो तोच हातात घेतलेल्या कार्यात सफल होतो. ॥१॥
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