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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1430
ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
53
त꣡त्ते꣢ य꣣ज्ञो꣡ अ꣢जायत꣣ त꣢द꣣र्क꣢ उ꣣त꣡ हस्कृ꣢꣯तिः । त꣡द्विश्व꣢꣯मभि꣣भू꣡र꣢सि꣣ य꣢ज्जा꣣तं꣢꣫ यच्च꣣ ज꣡न्त्व꣢म् ॥१४३०॥
स्वर सहित पद पाठतत् । ते꣣ । यज्ञः꣢ । अ꣣जायत । त꣢त् । अ꣣र्कः꣢ । उ꣣त꣢ । ह꣡स्कृ꣢꣯तिः । त꣢त् । वि꣡श्व꣢꣯म् । अ꣣भिभूः꣢ । अ꣣भि । भूः꣢ । अ꣢सि । य꣢त् । जा꣣त꣢म् । यत् । च꣣ । ज꣡न्त्व꣢꣯म् ॥१४३०॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्ते यज्ञो अजायत तदर्क उत हस्कृतिः । तद्विश्वमभिभूरसि यज्जातं यच्च जन्त्वम् ॥१४३०॥
स्वर रहित पद पाठ
तत् । ते । यज्ञः । अजायत । तत् । अर्कः । उत । हस्कृतिः । तत् । विश्वम् । अभिभूः । अभि । भूः । असि । यत् । जातम् । यत् । च । जन्त्वम् ॥१४३०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1430
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जगदीश्वर की महिमा का वर्णन है।
पदार्थ
हे इन्द्र जगदीश्वर ! क्योंकि आप विघ्नों के विनाश में समर्थ हो (तत्) इसी कारण (ते) आपका (यज्ञः) सृष्टिरूप यज्ञ (अजायत) उत्पन्न हो सका है। (तत्) इसी कारण (अर्कः) सूर्य (उत) और (हस्कृतिः) बिजली का अट्टहास उत्पन्न हो सका है। (तत्) इसी कारण (विश्वम्) सब कुछ (यत् जातम्) जो पैदा हो चुका है। (यत् च जन्त्वम्) और जो भविष्य में पैदा होना है, उसे आप (अभिभूः असि) अपनी महिमा से तिरस्कृत किये हुए हो ॥२॥
भावार्थ
विघ्नों के विनाश में समर्थ होने से ही परमेश्वर सूर्य, चन्द्र, बिजली, नक्षत्र आदि से युक्त इस सब जगत् को बनाने और धारण करने में सफल होता है ॥२॥
पदार्थ
(तत् ‘तद्’ ते) परमात्मन् तब तेरा (यज्ञः-अजायत्) उपासक ऋषियों द्वारा अध्यात्मयज्ञ प्रसिद्ध हो जाता है (तत्-‘तद्’ अर्कः) उस समय अध्यात्म यज्ञार्थ मन्त्र७ मन्त्रमय-वेद प्रसिद्ध होता है (उत हस्कृतिः) और उपासकों की हास—हर्ष की क्रिया—प्रसन्नता भी व्यक्त हो जाती है (यत्-जातं यत्-च जन्त्वम्) जो उत्पन्न—प्रत्यक्ष हुआ जगत् सुख और जो उत्पन्न होने वाला परोक्षानन्द८ (तत्-विश्वम्) उस सब को (अभिभूः-असि) अभिभूत किए हुए है—स्वाधीन रखता है॥२॥
विशेष
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विषय
आत्मविजय से विश्व-विजय तक
पदार्थ
पिछले मन्त्र के प्रसङ्ग से ही कहते हैं कि वृत्रहनन कर लेने पर १. (तत्) = तब (ते) = तेरा यह जीवन य(ज्ञः) = यज्ञरूप हो जाता है । वासना- विनाश हुआ और जीवन यज्ञमय बना । २. (तत्) = तभी अर्कः (ते) = ये मन्त्र तेरे होते हैं । अर्क निरुक्त में मन्त्रवाचक भी है । मनुष्य वृत्रहनन के बाद ही ज्ञानी बन सकता है। ३. (उत) = और तभी (हस्कृतिः) = तेरे जीवन में प्रकाशमय दिन का निर्माण होता है। तेरे जीवन में उत्तरोत्तर प्रकाश की वृद्धि होकर अन्धकारमयी रात्रि समाप्त हो जाती है और प्रकाश का आधार दिन-ही- दिन हो जाता है और ४. सबसे बड़ी बात तो यह कि (तत्) = तभी (विश्वम्) = सब संसार को (यत् जातम्) = जो हो चुका है (यत् च जन्त्वम्) = जो होना है इस सब विश्व को (अभिभूः असि) = अपने वश में करनेवाला होता है। मनु ने कहा है कि ('जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः'), राजा स्वयं जितेन्द्रिय बनकर ही लोकों पर शासन करता है ।
भावार्थ
जितेन्द्रिय ही विश्व को जीतता है।
विषय
missing
भावार्थ
(तत्) और तब ही (ते) तेरी शक्ति से सम्पादित (यज्ञः) समस्त वायु, तेज, पृथिवी, आकाश, काल, दिग्, आत्मा, मन इत्यादि देवगणों का उचित रूप से संघटित यज्ञ भी (अजायत) सुसम्पन्न होता है (तद्) और तब ही (अर्कः) यह प्रकाशमान तेजस्वी सूर्य भी प्रकट होता है (उत) और साथ ही (हस्कृतिः) दिन की रचना होती है (तत्) उस समय ही तू हे परमात्मन् ! (विश्वम्) यह समस्त जगत् (यत् जातं) जो कुछ उत्पन्न हुआ (यत् च) और जो (जन्त्वम्) आगे उत्पन्न होता उस सब में (अभिभूः) सब ओर और सब प्रकारों से व्याप्त होकर सबका मूल उत्पत्ति कारण तू ही (असि) है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जगदीश्वरस्य महिमानमाह।
पदार्थः
हे इन्द्र जगदीश्वर ! यस्मात् त्वं वृत्रहत्याय विघ्नविनाशाय समर्थोऽभूः (तत्) तस्मादेव (ते) तव (यज्ञः) सृष्टियज्ञः (अजायत) उदपद्यत, (तत्) तस्मादेव (अर्कः) सूर्यः (उत) अपि च (हस्कृतिः) विद्युतः हस्कारः अजायत। [हस्काराद् विद्युतस्परि। ऋ० १।२३।१२ इति वचनात्।] (तत्) तस्मादेव (विश्वम्) सर्वम् (यत् जातम्) यदुत्पन्नम् (यच्च जन्त्वम्) यच्च जनितव्यम् अस्ति, तत् त्वम्। [जनी प्रादुर्भावे धातोः ‘कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः। अ० ३।४।१३’ इति त्वन् प्रत्ययः।] (अभिभूः असि) स्वमहिम्ना अभिभूतवानसि ॥२॥
भावार्थः
विघ्नविनाशसमर्थत्वादेव परमेश्वरः सूर्यचन्द्रविद्युन्नक्षत्रादिमयं सर्वमिदं जगन्निर्मातुं धारयितुं च सफलो भवति ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Then was the sacrifice produced by God, then was the Sun created and simultaneously the day. O God, Thou art the efficient cause of the creation of all that now is and yet shall be born!
Translator Comment
Sacrifice includes air, atmosphere, time, directions and mind.
Meaning
And then proceeds the cosmic yajna, formation of light, sun and the joyous agni and vayu. And thus you remain and rule as the Supreme over what has come into being and what is coming into being. (Rg. 8-89-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तत् "तद्" ते) હે પરમાત્મન્ ! ત્યારે તારા (यज्ञः अजायत्) ઉપાસક ૠષિઓ દ્વારા અધ્યાત્મયજ્ઞ પ્રસિદ્ધ થઈ જાય છે, (तत् "तद्" अर्कः) તે સમયે અધ્યાત્મયજ્ઞ માટે મંત્ર મંત્રમય-વેદ પ્રસિદ્ધ થાય છે. (उत हस्कृतिः) અને ઉપાસકોની હાસ-હર્ષક્રિયા-પ્રસન્નતા પણ વ્યક્ત થઈ જાય છે. (यत् जातं यत् च जन्वम्) જે ઉત્પન્ન-પ્રત્યક્ષ થયેલ જગત સુખ અને ઉત્પન્ન થનાર પરોક્ષ આનંદ (तत् विश्वमूः) તે સર્વને (अभिभूः असि) અભિભૂત કરેલ છે-સ્વાધીન રાખે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
विघ्नांचा विनाश करण्यास समर्थ असल्यामुळेच परमेश्वर सूर्य, चंद्र, विद्युत, नक्षत्र इत्यादींनी युक्त या सर्व जगाला निर्माण करण्यात व धारण करण्यात सफल होतो. ॥२॥
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