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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1431
    ऋषिः - नृमेधपुरुमेधावाङ्गिरसौ देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    38

    आ꣣मा꣡सु꣢ प꣣क्व꣡मैर꣢꣯य꣣ आ꣡ सूर्य꣢꣯ꣳ रोहयो दि꣣वि꣢ । घ꣣र्मं꣡ न सामं꣢꣯ तपता सुवृ꣣क्ति꣢भि꣣र्जु꣢ष्टं꣣ गि꣡र्व꣢णसे बृ꣣ह꣢त् ॥१४३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ꣣मा꣡सु꣢ । प꣣क्व꣢म् । ऐ꣡र꣢꣯यः । आ । सू꣡र्य꣢꣯म् । रो꣣हयः । दिवि꣢ । घ꣣र्म꣢म् । न । सा꣡म꣢꣯न् । त꣣पता । सुवृक्ति꣡भिः꣢ । सु꣣ । वृक्ति꣡भिः꣢ । जु꣡ष्ट꣢꣯म् । गि꣡र्व꣢꣯णसे । गिः । व꣣नसे । बृहत् ॥१४३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आमासु पक्वमैरय आ सूर्यꣳ रोहयो दिवि । घर्मं न सामं तपता सुवृक्तिभिर्जुष्टं गिर्वणसे बृहत् ॥१४३१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आमासु । पक्वम् । ऐरयः । आ । सूर्यम् । रोहयः । दिवि । घर्मम् । न । सामन् । तपता । सुवृक्तिभिः । सु । वृक्तिभिः । जुष्टम् । गिर्वणसे । गिः । वनसे । बृहत् ॥१४३१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1431
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में उपास्य-उपासक का विषय है।

    पदार्थ

    हे इन्द्र जगदीश्वर ! आपने (आमासु) अपरिपक्व ओषधियों में (पक्वम्) पका फल, अथवा (आमासु) अपरिपक्व गायों में (पक्वम्) पका दूध (ऐरयः) प्रेरित किया है, (दिवि) आकाश में (सूर्यम्) सूर्य को (आरोहयः) चढ़ाया है। हे मनुष्यो ! तुम (गिर्वणसे) वाणियों से संभजनीय इन्द्र जगदीश्वर के लिए (जुष्टम्) प्रिय (बृहत्) महान् (सामन्) स्तोत्र को (घर्मम् न) अग्नि के समान (तपत) परिपक्व और प्रकाशित करो ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    तपस्या से पका हुआ ही स्तोत्र परमात्मा के चित्त को आकृष्ट करता है और फलदायक होता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (आमासु-पक्वम्-ऐरय) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू अपक्व साधारण उपासक प्रजाओं में परिपक्व—उपासना में सुसम्पन्न उपासक मुमुक्षु को ऊँचे प्रेरित कर (आ, सूर्यं रोहयः-दिवि) जैसे सूर्य को ऊँचे आकाश में चढ़ाया है (धर्मं न सामन् तपत) तथा हे अपक्व उपासक प्रजाओ! तुम अपने को साम में उपासना में ऐसे तपाओ प्रकाश लेकर जैसे यज्ञ१ को तपाते हैं प्रज्वलित करते हैं (सुवृक्तिभिः) शोभन स्तुतियों से२ (बृहत्-‘बृहन्तं’ दुष्टं गिर्वणसे) महान्३ सेवनीय या प्रीतिपात्र स्तुतिवाणियों से वननीय इन्द्र परमात्मा को४ स्तुत करो—साक्षात् करो॥३॥

    विशेष

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    विषय

    तेजस्वितावाली शान्ति

    पदार्थ

    १. (आमासु) = वृत्रहनन के द्वारा तू इन अपरिपक्व शरीरों में (पक्वम्) = पक्वता (ऐरयः) = प्राप्त कराता है। वासना के विनष्ट होने पर शरीर के सब अङ्ग सुदृढ़ हो जाते हैं, क्योंकि वासना- विनाश से शरीर में शक्ति सुरक्षित रहती है । २. इस वृत्रहनन के द्वारा ही तू (सूर्यम्) = ज्ञानरूप सूर्य को (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (आरोहयः) = उदित करता है । वासना विनाश से सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और ज्ञानसूर्य अधिक और अधिक दीप्त होता चलता है । ३. इस वृत्रहनन के द्वारा तुम (घर्मं न) = तेजस्विता की भाँति (सामम्) = शान्ति को (सुवृक्तिभिः) = प्रभु स्तुतियों के साथ [नि० २.२४] (तपत) = दीप्त करो । [घृ=दीप्ति, साम–Calmness], अर्थात् वृत्रहत्या का परिणाम हमारे जीवनों में इस रूप में प्रकट होता है कि हम प्रभु-स्तवन करते हैं और हमारे शरीरों में तेजस्विता की दीप्ति प्रकट होती है तथा मन के अन्दर शान्ति का राज्य होता है। यह तेजस्वितावाली शान्ति (गिर्वणसे) = वेदवाणियों के द्वारा स्तुति किये जानेवाले प्रभु के लिए (बृहत् जुष्टम्) = बड़ी प्रिय है। यदि हमारे जीवनों में यह शान्ति होती है तो हम प्रभु के प्रिय बनते हैं।

    भावार्थ

    हमारे शरीर सुदृढ़ हों, मस्तिष्क में ज्ञानरूप सूर्य का उदय हो, हमें तेजस्विता के साथ शान्ति प्राप्त हो, हम प्रभु-स्तवन करते हुए प्रभु के प्रिय हों ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! तू ही (आमासु) न पके, अपक्व, कच्चे, स्थावर और जंगम पदार्थों में (पक्वं) परिपक्व भाव को (ऐरय) प्राप्त करता है। और इस निमित्त तू ही (सूर्यं) सबके प्रेरक सूर्य को (दिवि) इस महान् आकाश में (आरोहयः) इतनी उच्चता पर स्थापित करता है। हे विद्वान् लोगो ! (सामन्) सामवेद द्वारा (घर्मं न) जिस प्रकार आप घर्मयोग या प्रवर्ग्येष्टि को (तपत) प्रतप्त करते हो उसी प्रकार आप लोग (सुवृक्तिभिः) उत्तम ज्ञानस्तुतियों या ज्ञान चर्चाओं द्वारा (गिर्वणसे) समस्त वेदवाणियों के एकमात्र वर्णनीय उस इन्द्र के विषय (जुष्टं) अतिप्रिय, रुचिकर (बृहत्) महान् या बृहत् साम द्वारा ज्ञान प्राप्त करो। सत्यमिति सत्यवचा रथीतरः। तप इति तपो नित्यः पौरुशिष्टिः। स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मादै् गल्यः। तद्धि स्तपस्तद्धि तपः। (तैत्ति० उप शिक्षावल्ली अनु० ९) अर्थात् ज्ञानप्राप्ति ही तप है। प्रवर्ग्येष्टि में संसार की रचना का ज्ञान दर्शाया जाता है। (देखो शतपथ में प्रवर्ग्येष्टि प्रकरण)

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोपास्योपासकविषयमाह।

    पदार्थः

    हे इन्द्र जगदीश्वर ! त्वम् (आमासु) अपरिपक्वासु ओषधीषु (पक्वम्) परिपक्वं फलम्, यद्वा (आमासु) अपरिपक्वासु गोषु (पक्वम्) परिपक्वं दुग्धम् (ऐरयः) प्रेरितवानसि, (दिवि) आकाशे (सूर्यम्) आदित्यम् (आ रोहयः) आरोहितवानसि। हे मनुष्याः ! यूयम् (सुवृक्तिभिः) शोभनाभिः यमनियमादिक्रियाभिः (गिर्वणसे) गीर्भिः संभजनीयाय इन्द्राय जगदीश्वराय। [गिर्वणा देवो भवति गीर्भिरेनं वनयन्ति। निरु० ६।१४।] (जुष्टम्) प्रियम् (बृहत्) महत् (सामन्) स्तोत्रम् [अत्र ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७।१।३९ इति विभक्तेर्लुक्।] (घर्मम् न) अग्निमिव (तपत) परिपक्वं कुरुत प्रकाशयत वा ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    तपस्यया परिपक्वमेव स्तोत्रं परमात्मनश्चित्तमाकर्षति फलदायि च जायते ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, Thou makest the immature objects mature, hence dost Thou make the sun rise in heaven. O learned persons, just as ye perform the Pravargya ceremony with Sanaa hymns, so should ye recite the Brihat Sama in intellectual discussions, in praise of God sung in Vedic verses!

    Translator Comment

    Pravargya; A ceremony preliminary to the Soma sacrifice (Yajna). Brihat Sama is a part of the Samaveda.

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    Meaning

    You move the ripening flow of sap in the veins of maturing forms of life. You raise and place the sun in the high heaven. O celebrants, as in the heat of fire, temper and shine your sama songs of adoration and, with noble hymns of praise, sing resounding Brhat samans of worship with love in honour of adorable Indra. (Rg. 8-89-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (आमासु पक्वम् ऐरय) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું અપક્વ-સાધારણ ઉપાસક પ્રજાઓમાં પરિપક્વ-ઉપાસનામાં સુસંપન્ન ઉપાસક મુમુક્ષુને ઊંચે પ્રેરિત કર (आ , सूर्यं रोहयः दिवि) જેમ સૂર્યને ઊંચા આકાશમાં ચઢાવ્યો છે (धर्मं न सामन् तपत) તથા હે અપક્વ ઉપાસક પ્રજાઓ ! તમે પોતાને ‘સામ’માં ઉપાસનામાં એવા તપાવો, જેમ પ્રકાશ લઈને યજ્ઞને તપાવીએ છીએ-પ્રજ્વલિત કરીએ છીએ. (सुवृक्तिभिः) શોભન સ્તુતિઓથી (बृहत् " "ब्रहन्तं" दुष्टं गिर्वणसे) મહાન સેવનીય અથવા પ્રીતિપાત્ર સ્તુતિ વાણીઓથી શ્રેષ્ઠ ઇન્દ્ર-પરમાત્માને સ્તુત કરો-સાક્ષાત્ કરો. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी स्तुती व प्रशंसनीय श्लोक तप करून प्राप्त झालेले असतात, ते परमेश्वराचे चित्र आकर्षित करतात व फलदायक असतात. ॥३॥

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