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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1432
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणः देवता - इन्द्रः छन्दः - स्कन्धोग्रीवी बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
    65

    म꣡त्स्यपा꣢꣯यि ते꣣ म꣢हः꣣ पा꣡त्र꣢स्येव हरिवो मत्स꣣रो꣡ मदः꣢꣯ । वृ꣡षा꣢ ते꣣ वृ꣢ष्ण꣣ इ꣡न्दु꣢र्वा꣣जी꣡ स꣢हस्र꣣सा꣡त꣣मः ॥१४३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म꣡त्सि꣢꣯ । अ꣡पा꣢꣯यि । ते꣣ । म꣡हः꣢꣯ । पा꣡त्र꣢꣯स्य । इ꣣व । हरिवः । मत्सरः꣢ । म꣡दः꣢꣯ । वृ꣡षा꣢꣯ । ते꣣ । वृ꣡ष्णे꣢꣯ । इ꣡न्दुः꣢꣯ । वा꣣जी꣢ । स꣣हस्रसा꣡त꣢मः । स꣣हस्र । सा꣡त꣢꣯मः ॥१४३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मत्स्यपायि ते महः पात्रस्येव हरिवो मत्सरो मदः । वृषा ते वृष्ण इन्दुर्वाजी सहस्रसातमः ॥१४३२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मत्सि । अपायि । ते । महः । पात्रस्य । इव । हरिवः । मत्सरः । मदः । वृषा । ते । वृष्णे । इन्दुः । वाजी । सहस्रसातमः । सहस्र । सातमः ॥१४३२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1432
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में ब्रह्मानन्द का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    हे (हरिवः) ऋक् और सामवाले इन्द्र जगदीश्वर ! आप (मत्सि) आनन्दित करते हो ! (महः पात्रस्य इव) रस से भरे हुए बड़े घट आदि पात्र के तुल्य (ते) आपका (मदः) उत्साहित करनेवाला (मत्सरः) आनन्द-रूप सोमरस (अपायि) मैंने पी लिया है। अब अपने अन्तरात्मा को कहते हैं—हे मेरे अन्तरात्मन् ! (वृष्णे) बलवान् (ते) तेरे लिए यह (वृषा) औरों पर सुख-वर्षा करनेवाला (वाजी) बलवान् (इन्दुः) आनन्दरूप सोमरस (सहस्रसातमः) असंख्य लाभ पहुँचानेवाला है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर जल से पूर्ण कलश के समान आनन्द-रस से परिपूर्ण है। उसका आनन्द-रस पान करके स्तोता का आत्मा कृतार्थ हो जाता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (हरिवः) हे दुःखापहर्ता सुखाहर्ता ज्योति और शान्ति से युक्त परमात्मन्! (ते महः पात्रस्य-इव-अपामि) तेरे लिये जो महत् पात्र जितना सोम—उपासनारस है उसे तूने पिया—स्वीकार किया, अतः (मत्सि) तू हम पर हर्षित हो रहा है—प्रसन्न हो रहा है (मत्सरः-मदः) यह उपासनारस हर्षप्रद—प्रसन्नताकारक है (ते वृष्णे) तुझ सुखवर्षक के लिये (वृषा-इन्दुः-वाजी) वर्षणशील आप्त उपासनारस बलवान् (सहस्रसातमः) बहुत हमारा सुख सम्भाजी है॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—अगस्त्यः (शरीर और संसार वृक्ष का संग्रह और त्याग करने वाला अध्यात्म यज्ञ का याजक)॥<br>देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—बृहती॥

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    विषय

    सोम का पान

    पदार्थ

    हे (हरिवः) = [हरि+वन्] पाप-तापादिहरण-शक्ति से सम्पन्न इन्द्र ! (ते) = तेरे – तेरे द्वारा उत्पन्न किये गये अथवा जो मुख्यरूप से आपकी प्राप्ति का साधन है, उस (पात्रस्य इव) = [पा+त्र] पीने के द्वारा त्राण करनेवाले, अर्थात् यदि हम उसका पान करते हैं— उसे अपने ही अन्दर व्याप्त [imbibe] कर लेने से वह हमारी रोगों से रक्षा करता है, वह (महः) = तेज (अपायि) = मुझसे पीया गया है—मैंने उसे प्राणसाधना द्वारा अपने ही अन्दर व्याप्त किया है, और परिणामतः हे प्रभो! (मत्सि) = आपने मुझे विशेषरूप से आनन्दित किया है । हे प्रभो ! आप (मदः) = उल्लास के पुञ्ज हैं, और इसीलिए अपने सखाओं को भी (मत्सरः) = उल्लासमय जीवनवाला बनाते हैं ।

    हे प्रभो ! (वृष्णः ते) = शक्तिशाली आपका (इन्दुः) = यह सोम (वृषा) = मुझे भी शक्तिशाली बनानेवाला है और सब आनन्दों की वर्षा करनेवाला है। यह सोम वाजी-विशेष शक्ति को प्राप्त करानेवाला है और (सहस्त्र-सातम:) = अतिशयेन उल्लासमय जीवन [स-हस्] देनेवाला है।

    सोम की इस महिमा को समझता हुआ ‘अगस्त्य' [अगं पर्वतं अपि स्त्यायति - संहन्ति] 'पर्वत को भी तोड़-फोड़ देने की शक्तिवाला' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि प्राणापान की साधना से सोमपान के लिए यत्न करता है और तभी 'मैत्रावरुणि' नामवाला होता है । 

    भावार्थ

    सोम शक्ति देता है – जीवन को उल्लासमय बनाता है।

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    विषय

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    भावार्थ

    (पात्रस्य इव मदः) जिस प्रकार पात्र में रक्खा तृप्तिकारी हर्षजनक जल और दुग्धादिरस (आपयि) पान कर लिया जाता है उसी प्रकार हे (हरिवः) हरणशील शक्तियों, अन्धकार और अज्ञान के हरने वाले किरणों से युक्त परमेश्वर ! (मत्सरः) आनन्दरूप में सर्वत्र प्रसरणशील (मदः) आनन्दप्रद तेजोरूप, सर्वप्रेरक उत्पादकशक्ति रूप से (ते) संसार में व्यापक तेरा महान् सामर्थ्य (अपायि) पान किया जाता है अर्थात् विद्वान्जन उसको अपने भीतर धारण करते हैं अथवा आप ही उस महान् शक्ति के धारण करने हारे हो। (वृष्णः) समस्त सुखों और शक्तियों के वर्षक (ते) तेरा (इन्दुः) ऐश्वर्य, विभूति और सामर्थ्य (वाजी) बलवान् (सहस्रसातमः) सहस्रों पदार्थों को देने हारा, (वृषा) सब सुख का वर्षक है। अध्यात्म पक्ष में—इन्द्र=आत्मा, मत्सरः=आनन्दरस, इन्दुः=विभूति सिद्धयोगी, वाजी=ज्ञानवान्। वृषा=ज्ञानवर्धक, सहस्रसातमः—सहस्त्रों उपदेशों का दाता अथवा सहस्त्रों को सन्तोष, आशीर्वाद एवं सुखसाधनों , का प्रदाता, इत्यादि।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ ब्रह्मानन्दविषयमाह।

    पदार्थः

    हे (हरिवः) ऋक्सामरूपहरियुक्त इन्द्र जगदीश्वर ! [ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी। ष० ब्रा० १।१।] त्वम् (मत्सि) आनन्दयसि। (महः पात्रस्य इव) रसपूर्णस्य महतः घटादिभाजनस्य इव (ते) तव (मदः) मादयिता उत्साहयिता (मत्सरः) आनन्दरूपः सोमरसः। [मत्सरः सोमो मन्दतेस्तृप्तिकर्मणः। निरु० २।५।] (अपायि) मया पीतोऽस्ति। सम्प्रति स्वान्तरात्मानं ब्रूते—हे मदीय अन्तरात्मन् ! (वृष्णे) बलवते (ते) तुभ्यम्, एषः (वृषा) अन्येषु सुखवर्षकः (वाजी) बलवान् (इन्दुः) आनन्दरूपः सोमरसः (सहस्रसातमः) असंख्यातलाभप्रदः वर्तते इति शेषः ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

    भावार्थः

    परमेश्वरः सलिलेन पूर्णः कलश इवानन्दरसेन परिपूर्णोऽस्ति। तदीयमानन्दरसं पीत्वा स्तोतुरात्मा कृतार्थो जायते ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as exhilarating water or milk placed in a receptacle is quaffed, so, O God, the Master of ignorance banishing forces, is enjoyed Thy mighty strength, that gives satiety Mid joy. O God, the Giver of all joys and powers, Thy mighty glory, the bestower of myriad delights, is the showerer of all pleasures!

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    Meaning

    Indra, lord of energy and paradisal bliss, rejoice. You have drunk of the great and exhilarating soma, the divinity and ecstasy of life fresh from the very flask of existence. Vibrant lord of the knights of horse, that joy of the drink of life is exciting, the very thrill of being. Lord virile and generous, you are the shower of bliss and that soma is soothing like the moon, tempestuous as waves of energy, yes, and a thousand-fold invitation to live, the call of life, for you. (The call of life is the call of existence for the human soul too to be born into this wonderful world of beauty, joy and peace. ) (Rg. 1-175-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (हरिवः) : હે દુઃખહર્તા, સુખદાતા, જ્યોતિ અને શાન્તિથી યુક્ત પરમાત્મન્ ! (ते महः पात्रस्य इव अपामि) તારા માટે જે મહાન પાત્ર જેટલો ઉપાસનારસ છે તેને તેં પીધો-સ્વીકાર કર્યો, તેથી (मत्सि) તું અમારા પર હર્ષિત-આનંદિત થઈ રહ્યો છે-પ્રસન્ન થઈ રહ્યો છે. (मत्सरः मदः) એ ઉપાસનારસ હર્ષપ્રદપ્રસન્નતાકારક છે. (ते वृष्णे) તારા સુખવર્ષકને માટે (वृषा इन्दुः वाजी) વર્ષણશીલ આપ્ત ઉપાસનારસ બળવાન (सहस्रसातमः) અમારો બહુ જ સુખ સંભાગી છે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर हा जलाने भरलेल्या कलशाप्रमाणे आनंद-रसाने परिपूर्ण आहे. त्याचा आनंद-रस प्राप्त करून स्तोत्याचा आत्मा कृतार्थ होतो. ॥१॥

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