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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 143
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    53

    उ꣣पह्वरे꣡ गि꣢री꣣णा꣡ꣳ स꣢ङ्ग꣣मे꣡ च꣢ न꣣दी꣡ना꣢म् । धि꣣या꣡ विप्रो꣢꣯ अजायत ॥१४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ꣣पह्वरे꣢ । उ꣣प । ह्वरे꣢ । गि꣣रीणाम् । स꣢ङ्गमे꣢ । स꣣म् । गमे꣢ । च꣣ । न꣡दीना꣢म् । धि꣣या꣢ । वि꣡प्रः꣢꣯ । वि । प्रः꣣ । अजायत ॥१४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपह्वरे गिरीणाꣳ सङ्गमे च नदीनाम् । धिया विप्रो अजायत ॥१४३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपह्वरे । उप । ह्वरे । गिरीणाम् । सङ्गमे । सम् । गमे । च । नदीनाम् । धिया । विप्रः । वि । प्रः । अजायत ॥१४३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 143
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 9
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में पूर्व प्रश्न का उत्तर दिया गया है।

    पदार्थ

    (गिरीणाम्) पर्वतों के (उपह्वरे) एकान्त में अथवा समीप में (नदीनां च) और नदियों के (सङ्गमे) सङ्गम-स्थल पर (धिया) ध्यान द्वारा (विप्रः) वह सर्वव्यापक और मेधावी इन्द्र परमेश्वर (अजायत) प्रकट होता है ॥९॥

    भावार्थ

    तुम्हारा प्रश्न है कि वह इन्द्र परमेश्वर कहाँ है? उस पर हमारा उत्तर है—वह सर्वव्यापक है, किन्तु उसका दर्शन बाह्य आँख से होना संभव नहीं है, ध्यान द्वारा आन्तरिक चक्षु से ही वह साक्षात्कार किये जाने योग्य है और ध्यान कोलाहल-भरे वातावरण में नहीं, अपितु पर्वतों और नदियों के शान्त प्रदेश में सुगम होता है। उन्हीं ध्यानयोग्य प्रदेशों में ध्यान करनेवालों को परमेश्वर का साक्षात्कार होता है। तुम्हारा दूसरा प्रश्न यह है कि कौन उसकी पूजा कर सकता है? इसका उत्तर भी पहले उत्तर में आ जाता है। निराकार, शरीर-रहित, आँख से अगोचर परमेश्वर की भी पूर्वोक्त प्रकार से ध्यान करता हुआ मनुष्य पूजा कर सकता है, उसकी मूर्ति रचकर उस पर पत्र, पुष्प, जल आदि चढ़ानेवाला उसका वास्तविक पूजक नहीं है ॥९॥

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    पदार्थ

    (गिरीणाम्-उपह्वरे) पर्वतों के प्रान्त में (च) और (नदीनां सङ्गमे) नदियों के सङ्गम में (धिया) ध्यान प्रज्ञा से (विप्रः-अजायत) मेधावी बन जाता है उनकी स्थिति गति सङ्गति का विवेचन एवं परमात्मा का ध्यान करने से ब्रह्मज्ञान में कुशल हो जाता है।

    भावार्थ

    पर्वतों के प्रान्त भागों और नदियों के सङ्गमों पर विवेचन एवं वहाँ परमात्मा का ध्यान करने से ब्रह्मज्ञान में समर्थ ब्रह्मा बन जाया करता है, सदा नहीं तो कभी-कभी अवश्य उन स्थानों पर जाकर रहना ध्यान करना चाहिए॥९॥

    विशेष

    ऋषिः—वत्सः (अध्यात्म वक्ता)॥<br>

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    विषय

    विकास के लिए उचित वातावरण

    पदार्थ

    ‘विप्रः' शब्द सामान्यतः ब्राह्मण के लिए प्रयुक्त होता है। यह विकास की चरमावस्था की सूचना देता है। जो व्यक्ति अपने में ज्ञान को भरने में असमर्थ रहा, वह 'शुचा द्रवति' शोक से सन्तप्त होने के कारण 'शूद्र' कहलाया। विप्रः = वेदों के ज्ञान को अपने अन्दर वि=विशेषरूप से [प्रा= पूरणे] प्र= अपने अन्दर भरनेवाला ब्राह्मण यहाँ विप्र शब्द से कहा गया है। ऐसा ब्राह्मण (अजायत) = प्रादुर्भूत होता है। कहाँ ? (गिरीणां उपह्वरे) = गिरियों के सान्निध्य में (च) = तथा (नदीनां सङ्गमे) = नदियों के सङ्गम में। कैसे? (धिया) = धी से।
     यहाँ ‘गिरीणां' और 'नदीनां' शब्दों के साथ-साथ प्रयोग से इनका अर्थ पर्वत व नदी करने का प्रलोभन होता है, परन्तु गिरि शब्द का अर्थ venerable, respectable=आदरणीय, सम्माननीय है। गिरि और गुरु शब्द इ और उ का भेद से भिन्न दिखते हुए भी एकार्थ-वाचक है। ‘गृणन्ति इति गिरयः गुरवो वा' = उपदेश करने से ये गिरि या गुरु कहलाते हैं। ('मातृदेवो भव', 'पितृदेवो भव', 'आचार्य देवो भव', 'अतिथि देवो भव') इन वाक्यों में इन गिरियों का उल्लेख हो गया है।

    पाँच वर्ष तक माता, फिर आठवें वर्ष तक पिता, आगे पच्चीसवें वर्ष तक आचार्य और फिर गृहस्थ में अतिथि आदरणीय गिरि [गुरु] होते हैं। इनके उपह्वरे [निकटे] निकट रहकर ही बालक ज्ञान का विकास करते-करते विप्र बन जाता है। माता-पिता को बालकों का पालनपोषण भृत्यों पर न डालकर सदा स्वयं करना चाहिए। नौकरों से पाले जाकर वे क्या विप्र बनेंगे? विद्यार्थी के आचार्य के समीप रहने की भावना को अन्तेवासी शब्द सुव्यक्त कर रहा है। गृहस्थ सदा अतिथियों की सेवा करता हुआ उनका सान्निध्य प्राप्त करने का यत्न करे।

    ‘नदीनाम्’ में ‘नदी' शब्द न लेकर 'नदि' शब्द लेना चाहिए। इसका अर्थ praise=स्तुति है। वह व्यक्ति जिसका जीवन ही स्तुतिमय हो गया है 'नदि' कहलाता है। इन ब्रह्मनिष्ठ, सदा प्रभु की स्तुति करनेवाले नदियों के (सङ्गमे) = सङ्ग में आकर मनुष्य 'विप्र' बनता है। जहाँ कहीं इन व्यक्तियों का प्रवचन हो, सत्सङ्ग हो, वहाँ एक सद्गृहस्थ को अवश्य सम्मिलित होने का यत्न करना चाहिए।

    इन गिरियों के निकट व नदियों के सङ्गम में मनुष्य विप्र तो बनता है, परन्तु बनता तभी है यदि उसके पास 'धी' हो। धी शब्द के चार अर्थ हैं [१] बुद्धि= Intellect, [२] प्रवृत्ति=Propensity, [३] भक्ति, श्रद्धा=Devotion, [४] त्याग = Sacrifice | बुद्धि के अभाव में हम उनके उपदेशों को समझ ही न सकेंगे, अतः हम उनसे क्या लाभ लेंगे? बुद्धि होने पर भी यदि हमारी उन उपदेशों सुनने की प्रवृत्ति न हो, तो हम बुद्धि का अन्य ही प्रयोग करते रहेंगे। बुद्धि और प्रवृत्ति के साथ भक्ति व श्रद्धा भी अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि एकदम तो लाभ होता नहीं, श्रद्धा के अभाव में देर तक उस मार्ग पर चलना सम्भव नहीं रहता और अन्त में त्याग की आवश्यकता तो स्पष्ट ही है। कुछ-न-कुछ आराम व सुख का त्याग, गुरुशुश्रूषा व सत्सङ्ग में सम्मिलित होने के लिए करना ही पड़ता है।
    एवं, धी से यदि हम माता-पिता, आचार्य, अतिथि व ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों के सम्पर्क में आकर कण-कण करके ज्ञान का सञ्चय करेंगे तो इस मन्त्र के ऋषि ‘काण्व' व कण्वपुत्र कहलाएँगे और प्रभु के प्रिय बनकर 'वत्स' होंगे।

    भावार्थ

    गुरुओं का सान्निध्य तथा ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों का सङ्ग हमें बुद्धि द्वारा विप्र-अपने को ज्ञान से पूरण करनेवाला बनाए ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( गिरीणां ) = पर्वतों के ( उपह्वरे ) = तट प्रान्त में और ( नदीनां   च ) = नदियों के ( संगमे ) = संगम स्थान पर ( धिया ) = ज्ञान शक्ति और कर्म के अभ्यास से ( विप्र: ) = मेधावी पुरुष ( अजायत ) = तैयार हुआ करता है।

    तपस्वी लोग एकान्त गिरिकन्दरा और प्राकृतिक रमणीय नदी संगमों  पर ध्यान, ज्ञान, तप, जप करके शक्तिमान् होते हैं । आत्मा के पक्ष में -( गिरीणां ) = मेरुदण्ड के पोरुओं के समीप और इडा, पिंगला और सुषुम्ना इन ( नदीनां ) = नाड़ियों के संगम स्थान त्रिकुटी में ध्यान लगाने से दिव्य ज्ञानवान् पुरुष सिद्ध हो जाता है । अथवा - गिरयः = स्तोतारः ।  नद्यः= सरस्वत्यः ।  धीरध्ययनम् । कवियों, ज्ञानप्रवक्ताओं के पास वेदवाणियों के परस्पर संगम स्थल, सभा स्थानों में अध्ययन करने और मनन करने से विप्र, विद्वान्, ब्रह्मज्ञानी होजाता है ।

    टिप्पणी

    १४३ - 'संगथे च नदीनाम्' इति ऋ० । 
    १. णु स्तुतौ ( तुदादिः ) नव्यं स्तुतियोग्यमित्यर्थः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - वत्स: ।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः।

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    विषय

    उपासना का स्थान

    शब्दार्थ

    (गिरीणाम् ) पर्वतों की ( उपह्वरे) गुहाओं, कन्दराओं में (च) और (नदीनाम्) नदियों के (सङ्गमे) सङ्गम स्थान पर (विप्रः) मेधावी जन (धिया) योगाभ्यास द्वारा (अजायत) ‘ईश्वर से’ युक्त होते हैं ।

    भावार्थ

    ध्यान कहाँ जाकर लगाना चाहिए ? १. पर्वत की गुफाओं और कन्दराओं में । ऐसे एकान्त, शान्त स्थान पर ध्यान बहुत शीघ्र लगता है । २. नदियों के सङ्गम स्थल पर । नदियों के सङ्गम भी नगर से दूर एकान्त में होते हैं। ऐसे स्थान पर ध्यान करने से मेधावी जन ईश्वर से युक्त होकर धारणा, ध्यान आदि द्वारा उसका साक्षात्कार कर लेते हैं । मन्त्र का योगपरक अर्थ - (गिरीणाम् ) हड्डियों की (उपह्वरे) गुहा में तथा ( नदीनाम्) नाड़ियों के (सङ्गमे) संगम-स्थान पर (घिया) ध्यान और योगाभ्यास से (विप्रः) ईश्वर (अजायत) प्रकट होता है । शुद्ध, पवित्र, एकान्त स्थान में बैठकर मनुष्यों को अपने शरीर में ध्यान लगाना चाहिए । परन्तु कहाँ ? १. हड्डियों की गुहा में । यह हड्डियों की कन्दरा कहाँ है ? हमारे शरीर में दोनों छातियाँ मानो दो पहाड़ हैं। उनके कुछ नीचे एक गढ़ा है। इसे ही हृदय-गुहा कहते हैं । यही ध्यान लगाने का स्थान है । २. नाड़ियों के सङ्गम पर । हमारे शरीर की तीन प्रमुख नाड़ियाँ इड़ा, पिङ्गला और सुषुम्णा दोनों भौहों के मध्य नासिका की जड़ में मस्तक में आकर मिलती हैं। योग की परिभाषा में इसे आज्ञाचक्र कहते हैं । यहाँ ध्यान लगाना चाहिए । इन स्थानों पर ध्यान लगाने से ईश्वर - दर्शन हो जाते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पूर्वप्रश्नस्योत्तरं दीयते।

    पदार्थः

    (गिरीणाम्) पर्वतानाम् (उपह्वरे२) एकान्ते अन्तिके वा। रहोऽन्तिकमुपह्वरे इत्यमरः ३।१८३। (नदीनाम्) सरितां (सङ्गमे च) सङ्गमस्थले च (धिया) ध्यानेन। धी शब्दो ध्यानार्थे निरुक्ते धीराः इत्यस्य व्याख्याने प्रोक्तः—धीराः प्रज्ञानवन्तो ध्यानवन्त इति (निरु० ४।९।) (विप्रः) विशेषेण प्राति पूरयति सर्वं जगत् स्वसत्तया यः स विप्रः सर्वव्यापकः यद्वा मेधावी इन्द्राख्यः३ परमात्मा। वि पूर्वात् प्रा पूरणे धातोः आतश्चोपसर्गे।’ अ० ३।१।१३६ इति कः प्रत्ययः। विप्र इति मेधाविनाम। निघं० ३।१५। (अजायत) आविर्भवति ॥९॥४

    भावार्थः

    युष्माकं प्रश्नः क्व स इन्द्रः परमेश्वर इति। तत्रास्माकमुत्तरं स सर्वव्यापकोऽस्ति, किन्तु दर्शनं तस्य बाह्यचक्षुषा न संभवति, ध्यानद्वाराऽन्तश्चक्षुषैव स साक्षात्कर्तुं योग्योस्ति। ध्यानं च न कोलाहलपूर्णे वातावरणे, परं पर्वतानां सरितां च शान्तप्रदेशे सुगमम्। तेष्वेव ध्यानयोग्येषु प्रदेशेषु ध्यानिनां परमेश्वरसाक्षात्कारो जायते। युष्माकं द्वितीयः प्रश्नः कस्तं सपर्यतीति। तस्योत्तरमपि पूर्वस्मिन्नुत्तरे समाविष्टम्। निराकारमकायमचक्षुर्गोचरमपि तं पूर्वोक्तप्रकारेण ध्यायन् पुजयितुमर्हति जनः, न तु तन्मूर्तिं विरच्य तत्र पत्रपुष्पतोयादिसमर्पणकर्ता तस्य वास्तविकः पूजक इति ॥९॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।६।२८, सङ्गमे इत्यत्र संगथे इति पाठः। य० २६।१५। २. उपह्वरे गह्वरे प्रदेशे—इति वि०। समीपे—इति भ०। ३. इन्द्रदेवताकत्वाद् ऋचः विप्रशब्देन इन्द्रो गृह्यते। ४. मन्त्रोऽयं दयानन्दर्षिणा यजुर्भाष्ये यो मनुष्यः शैलानां निकटे नदीनां च सङ्गमे योगेनेश्वरं विचारेण विद्यां चोपासीत स धिया मेधावी जायते इति विषये व्याख्यातः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In the solitude of mountains and confluence of streams, a sage develops his spiritual force, contemplating on God through Yoga.

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    Meaning

    In seclusion over mountain slopes and in the caves and on the confluence of rivers, the vibrant presence of the lord within reveals itself by illumination in the self. (Rg. 8-6-28)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (गिरीणाम् उपह्वरे) પર્વતોનાં સાનિધ્યમાં (च) તથા (नदीनां संङ्गमे) નદીઓનાં સંગમમાં (धिया) ધ્યાનબુદ્ધિ દ્વારા (विप्रः अजायत) મેધાવી બની જાય છે; તેની સ્થિતિ, ગતિ, સંગતિનું વિવેચન અને પરમાત્માનું ધ્યાન કરવાથી બ્રહ્મજ્ઞાનમાં કુશળ બની જાય છે. (૯)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પર્વતોનાં સાનિધ્ય અને નદીઓનાં સંગમો પર વિવેચન અને ત્યાં પરમાત્માનું ધ્યાન કરવાથી બ્રહ્મજ્ઞાનમાં સમર્થ બ્રહ્મા બની જાય છે, સદા નહીં તો પણ ક્યારેક - ક્યારેક તો એવા સ્થાનો પર અવશ્ય જઈને ધ્યાન કરવું જોઈએ. (૯)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    پہاڑوں کی گُفاؤں اور نَدیوں کے سنگم پر

    Lafzi Maana

    (گِری نام) پربتوں کی (اُپ ہورے) گُفاؤں اور گھاٹیوں میں (چہ) تتھا (ندی نام سنگمے) دریاؤں کے کناروں یا سنگم پر پیارا اُپاسک عابد (دِھیا) پرمیشور کے لئے دھارنا دھیان یکسوئی ساتوک بُدھی اور نیک کاموں سے (وِپر) میدھاوی یعنی راست راہی عقلِ پاک (اجایت) بن جاتا ہے، کون مستحق ہے بھگوان کو پانے کے لئے اور کہاں وہ ملتا ہے، اُس کے حُصول کی خصوصی جگہ کون سی ہے؟ اِس کا جواب باثواب اس منتر نے دے دیا ہے۔

    Tashree

    پہاڑوں کی گُفاؤں میں اور ندیوں کے ملاپ پر، پاتے ہیں خردمند ریاضت کے زور پر۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    तुमचा प्रश्न हा आहे, की तो इंद्र परमेश्वर कुठे आहे? त्यावर आमचे हे उत्तर आहे - तो सर्वव्यापक आहे, परंतु त्याचे दर्शन बाह्य नेत्राने होणे संभव नाही. ध्यानाद्वारे आंतरिक चक्षूनेच तो साक्षात्कार करणे योग्य आहे व ध्यान कोलाहल असेल अशा वातावरणात नाही, तर पर्वत, नद्या व शांत प्रदेशात सुगम होते. त्याच ध्यानयोग्य प्रदेशामध्ये ध्यान करणाऱ्यांना परमेश्वराचा साक्षात्कार होतो. तुमचा दुसरा प्रश्न हा आहे, की कोण त्याची पूजा करू शकतो? याचे उत्तरही पहिल्या उत्तरात येते. निराकार, शरीर-रहित, दृष्टी न पडणारा, परमेश्वराचीही पूर्वोक्त प्रकारे ध्यान करणारा मनुष्य पूजा करू शकतो. त्याची मूर्ती बनवून त्याच्यावर पत्र, पुष्प, जल इत्यादी चढविणारा त्याचा वास्तविक पूजक नाही. ॥९॥

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    विषय

    प्रश्न विचारणाऱ्याचा अभिप्राय असा की ज्याअर्थी तो नाही, मग त्याची पूजा तरी कुणी कशी करू शकेल ?

    शब्दार्थ

    (गिरीणाम्) पर्वतांच्या (उपहृरे) एकांतस्थानी अथवा पर्वताजवळ (नदीनाम्) आणि नद्यांच्या (सड्गमे) संगमस्थानी (धिया) ध्यानाद्वारे (विप्रः) तो सर्वव्यापक आणि मेधावी इन्द्र परमेश्वर (अजायत) प्रकट होतो. ।। ९।।

    भावार्थ

    तुमचा प्रश्न आहे की तो इन्द्र परमेश्वर कुठे आहे ? यावर आमचे उत्तर असे - तो सर्वव्यापी आहे. त्याचे दर्शन या बाह्य चर्मचक्षूद्वारे होणे संभवनीय नाही. ध्यानाद्वारे आंतरिक चक्षूद्वारे साक्षात्कार रूनच त्याला जाणता येते. शिवाय त्याचे ध्यान कोलाहल गोंगाटाने भरलेल्या वातावरणात करता येत नाही, तर त्याचे ध्यान पर्वतांच्या आणि नद्यांच्या शांत प्रदेशात होणे शक्य आहे. द्यानास अनुकूल अशा प्रदेशातच ध्यान करणाऱ्यांना त्या परमेश्वराचा साक्षात्कार होत असतो. तुमचा दुसरा प्रश्न आहे - त्याची पूजा कोण करू शकतो ? या प्रश्नाचे उत्तरदेखील पहिल्या प्रश्नाच्या उत्तरातच समाविष्ट आहे. त्या निराकार, शरीररहित आणि नेत्र-अगोचर परमेश्वराची पूजा पूर्ववर्णित पद्धतीने म्हणजे ध्यानाद्वारे तो ध्यानी- मनुष्यच करू शकतो. त्या अमूर्त, निराकार ईश्वराची कल्पित मूर्ती तयार करून आणि त्यावर पत्र, पुष्य, जल आदी वाहणारा माणूस त्याचा खरा पूजक नाही, हे लक्षात ठेवा ।। ९।। आता परमेश्वराची आणि भूपतीची स्तुती करण्याविषयी मनुष्यांना प्रेरणा केली आहे -

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மலைகளின் மேகங்களுடைய கீழ் எல்லையில் நதிகளின் சேர்க்கையிலே(சேர்க்கும் நிலையத்தில்) அறிவால் அறிஞன் பிறக்கிறான்.

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