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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 144
ऋषिः - इरिम्बिठिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प्र꣢ स꣣म्रा꣡जं꣢ चर्षणी꣣ना꣡मिन्द्र꣢꣯ꣳ स्तोता꣣ न꣡व्यं꣢ गी꣣र्भिः꣢ । न꣡रं꣢ नृ꣣षा꣢हं꣣ म꣡ꣳहि꣢ष्ठम् ॥१४४॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । स꣣म्रा꣡ज꣢म् । स꣣म् । रा꣡ज꣢꣯म् । च꣣र्षणी꣣ना꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । स्तो꣣त । न꣡व्य꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । न꣡र꣢꣯म् । नृ꣣षा꣡ह꣢म् । नृ꣣ । सा꣡ह꣢꣯म् । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठम् ॥१४४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सम्राजं चर्षणीनामिन्द्रꣳ स्तोता नव्यं गीर्भिः । नरं नृषाहं मꣳहिष्ठम् ॥१४४॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सम्राजम् । सम् । राजम् । चर्षणीनाम् । इन्द्रम् । स्तोत । नव्यम् । गीर्भिः । नरम् । नृषाहम् । नृ । साहम् । मँहिष्ठम् ॥१४४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 144
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को परमात्मा और राजा की स्तुति करने की प्रेरणा करते हैं।
पदार्थ
हे भाइयो ! तुम (चर्षणीनाम्) मनुष्यों के (सम्राजम्) सम्राट्, (नव्यम्) नवीन वा स्तवनयोग्य, (नरम्) नेता, पौरुषवान्, (नृषाहम्) दुष्टजनों को पराजित करनेवाले, (मंहिष्ठम्) अतिशय दानी (इन्द्रम्) वीर परमात्मा और राजा का (गीर्भिः) वेद-वाणियों तथा निज वाणियों से (प्र स्तोत) भली-भाँति कीर्तिगान करो ॥१०॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिए कि परमात्मा और राजा की धवल कीर्ति का गान करें और उनके गुणों को अपने जीवन में धारण करें ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र के सहायक मरुतों के वर्णनपूर्वक इन्द्र का महत्त्व प्रतिपादित होने से; ब्रह्मणस्पति, वृत्रहा, सविता, शक्र नामों से इन्द्र की स्तुति होने से, इन्द्र से दुःस्वप्न-विनाश की प्रार्थना होने से और इन्द्र की स्तुति के लिए प्रेरणा होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के साथ सङ्गति है ॥ द्वितीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की पञ्चम दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(चर्षणीनाम्) मनुष्यों के—(नव्यम्) स्तुत्य—(सम्राजम्) विश्व भर में सम्यक् राजमान—(नरम्) नायक (नृषाहम्) नरों मनुष्यों को सम्भालने वाले पाप पुण्य का कर्मफल देने वाले (मंहिष्ठम्) अति दानी (इन्द्रम्) परमात्मा को (गीर्भिः) स्तुतियों से (प्रस्तोत) हे मनुष्यो! तुम स्तुति में लाओ—उसकी स्तुति करो।
भावार्थ
मनुष्यों के स्तुत्य विश्वभर में भली-भाँति विराजमान सबके नायक मनुष्यों के कर्मफल को आप करने वाले अति दानी परमात्मा को वैदिक स्तुतिवचनों से स्तुति में लाओ—उसकी स्तुति किया करो॥१०॥
विशेष
ऋषिः—इरिम्बिठः काण्वः (मेधावी का शिष्य अन्तरिक्ष—हृदयाकाश में परमात्मज्ञान में प्रवृत्ति वाला)॥<br>
विषय
प्रभु-स्तवन
पदार्थ
(प्रस्तोत)= खूब स्तुति करो। किसकी? १. (चर्षणीनां सम्राजम्) = [चर्षणय:=कर्षण:] कृषि-तुल्य उद्योग करनेवाले पुरुषों को दीप्त करनेवाले की, २.( इन्द्रम्) = परमैश्वर्यवाले की, ३. (गीर्भिः नव्यम्) = सब वेदवाणियों से स्तुति किये जानेवाले प्रभु की, ४. (नरम्) = आगे ले-चलनेवाले प्रभु की, ५. (नृ-षाहम्)=[षह्-मर्षणे to show mercy], उन्नतिशील पुरुषों पर कृपा-दृष्टि रखनेवाले की, ६. मंहिष्ठम् सर्वाधिक दानशील की ।
१. प्रभु अपनी वेदवाणी में जीव को उपदेश देते हैं कि ('अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व')=जुआ न खेलकर, खेती कर । वस्तुतः श्रम में ही दीप्ति है। श्रमशील व्यक्ति ही प्रभु के प्रिय होते हैं। आलस्य हमें शैतान की प्रजा बनाता है।
२. श्रमशीलता होने पर हम उस ज्ञानरूप परमैश्वर्य को भी पाते हैं जो हमें प्राकृतिक भोग-पंक में फँसने से बचाकर प्रभु का सच्चा उपासक बनाता है।
३. इस ज्ञान का यह परिणाम होता है कि हम वेदवाणियों से उस प्रभु की महिमा का गायन करते हैं। (‘सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति) = सारे वेद उस प्रभु की ही महिमा का गायन कर रहे हैं।
४. यह प्रभु-गुण-गायन (नरम्) = हमें आगे ले - चलता है - हमारे उत्थान का कारण बनता हैं, प्रभु के गुणों में रुचि उत्पन्न होकर हम दैवी सम्पत्ति को अपने अन्दर बढ़ानेवाले बनते हैं।
५. यह दैवी सम्पत्ति प्रथम तो इस रूप में प्रकट होती है कि हम अन्य मनुष्यों पर दया - दृष्टिवाले बनते हैं, मनुष्य की अल्पज्ञता व स्खलनशीलता का ध्यान रखते हुए तैश में नहीं आते।
६. इसी दैवी सम्पत्ति का दूसरा परिणाम यह है कि हम (मंहिष्ठ) = बनते हैं। ('देवो दानात्') = देव होते ही देनेवाले हैं। यह स्तोता उस महान् दाता प्रभु का स्मरण करके देनेवाला बनता है और देव हो जाता है।
यह स्तोता ‘इरिम्बिठि' था। इसका विठं हृदयान्तरिक्ष सदा इरि= गतिशील था। उसमें निरन्तर प्रभुस्मरण की धारा बह रही थी। इसी सतत प्रभुस्मरण ने उसे शनैः-शनैः करके जीवन-मार्ग में उन्नत किया था, अतः कण-कण करके दिव्य गुणों का भण्डार बनने के कारण यह ‘इरिम्बिठि काण्व' कहलाया।
भावार्थ
प्रभु-स्तवन से हम अपने जीवन-पथ को प्रशस्त बनाते हुए 'देव' बनें।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( चर्षणीनाम् ) = तत्वदर्शी, आचारवान् पुरुषों के बीच ( सम्राजं ) = प्रकाशमान ( नव्यं१ ) = स्तुति करने योग्य, ।( इद्रं ) = ऐश्वर्यसम्पन्न ( नरं ) = सबके नेता, ( नृषाहं ) = सब मनुष्यों को अपने तेज से दबाने वाले, ( मंहिष्ठं ) = सबसे अधिक पूजनीय परमेश्वर की ( प्र स्तोत ) = उत्तम रीति से स्तुति करो ।
चर्षणथ: चरणवन्तः चरणशीलाः । चरतेरनिरौणादिः । कृषेर्वा । यद्वा चायितारो द्रष्टार:। विचर्षणिः पश्यतिकर्मा । ( नि० २ । २ )
चर्षणिश्चायिता द्रष्टा इति स्कन्दस्वामी । चर्षणयो मनुष्याः ( नि० २ । ३ । )
टिप्पणी
१. णु स्तुतौ ( तुदादिः ) नव्यं स्तुतियोग्यमित्यर्थः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - इरिमठ: ।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यान् परमात्मानं नृपतिं च स्तोतुं प्रेरयति।
पदार्थः
हे भ्रातरः ! यूयम् (चर्षणीनाम्) मनुष्याणाम्। चर्षणय इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। (सम्राजम्) अधीश्वरम्, (नव्यम्) नूतनम्, स्तोतुमर्हं वा। अत्र नवसूरमर्तयविष्ठेभ्यो यत्।’ अ० ५।४।२५ वा० इति नवशब्दाद् स्वार्थे यत्। नव्यम् इति (नवनाम)। निघं० ३।२८। यद्वा, णु स्तुतौ धातोर्यत्। ‘यतोऽनावः।’ अ० ६।१।२१३ इत्याद्युदात्तत्वम्। (नरम्) नेतारम्, पौरुषवन्तम्। नृणाति नयतीति नरः। (नॄ) नये क्र्यादिः। (नृषाहम्) नॄन् दुष्टजनान् सहते पराभवतीति नृषाट्, तम्। नृ पूर्वात् षह मर्षणे धातोः छन्दसि सहः।’ अ० ३।२।६३ इति ण्विः। (मंहिष्ठम्) दातृतमम्। मंहते दानकर्मा। निघं० ३।२०, ततस्तृचि मंहिता। अतिशयेन मंहिता मंहिष्ठः। तुश्छन्दसि। ५।३।५९ इति इष्ठनि तुरिष्ठेमेयस्सु।’ अ० ६।४।१५४ इति तृचो लोपः। (इन्द्रम्) वीरं परमात्मानं नृपतिं वा (गीर्भिः) वेदवाग्भिः, स्ववाग्भिर्वा (प्र स्तोत) प्रकृष्टतया स्तुवध्वम् गुणवर्णनेन कीर्तयत। प्र पूर्वात् ष्टुञ् स्तुतौ धातोः लोटि प्रस्तुत इति प्राप्ते तप्तनप्तनथनाश्च। अ० ७।१।४५ इति तस्य तबादेशः, तस्य च पित्त्वेन ङित्वाभावाद् गुणनिषेधो न ॥१०॥ अत्र अर्थश्लेषालेङ्कारः ॥१०॥
भावार्थः
मनुष्यैः परमात्मनो नृपतेश्च धवला कीर्तिर्गातव्या तद्गुणाश्च स्वजीवने धारणीयाः। अत्रेन्द्रस्य सहायानां मरुतां वर्णनपूर्वकं तन्महत्त्वप्रतिपादनाद्, ब्रह्मणस्पति-वृत्रह-सवितृ-शक्रनामभि- स्तत्स्तवनात्, ततो दुःष्वप्नविनाशप्रार्थनात्, तत्स्तुत्यर्थं प्रेरणाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वितीये प्रपाठके प्रथमार्धे पञ्चमी दशतिः॥ इति द्वितीयाध्याये तृतीयः खण्डः ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।१६।१, अथ० २०।४४।१
इंग्लिश (2)
Meaning
Praise through Vedic songs, God, the Lord of mankind. Worthy of adoration, the Leader of men, the Controller of humanity and most liberal.
Meaning
With songs of celebration glorify Indra, refulgent ruler of humanity, worthy of adoration, leader, destroyer of evil people, the greatest and most munificent. (Rg. 8-16-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (चर्षणीनाम्) મનુષ્યોના , (नव्यम्) સ્તુતિને યોગ્ય , (सम्राजम्) વિશ્વભરમાં સમ્યક્ રાજમાન - દીપ્ત , (नरम्) નાયક , (नृषाहम्) મનુષ્યને સંભાળનાર પાપ પુણ્યનો કર્મ ફળ આપનાર , (मंहिष्ठम्) અત્યંત દાની (इन्द्रम्) પરમાત્માને (गीर्भिः) સ્તુતિઓથી (प्रस्तोत) હે મનુષ્યો તમે સ્તુતિમાં લાવો , તેની સ્તુતિ કરો. (૧૦)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મનુષ્યોનાં સ્તુતિ કરવા યોગ્ય , સમસ્ત વિશ્વમાં સમ્યક્ રીતે વિરાજમાન , સર્વના નાયક , મનુષ્યોનાં કર્મફળને આપનાર સર્વાધિક દાની પરમાત્માને વૈદિક સ્તુતિ વચનોથી સ્તુતિમાં લાવો , તેની સ્તુતિ કર્યા કરો. (૧૦)
उर्दू (1)
Mazmoon
مہادانی سمراٹ کی سُتتی گاؤ
Lafzi Maana
پیارے بھگوان کے بھگتو! (گیربھی اِندرم پرستوت) پرستش کی زبان سے پرمیشور کی خوب سُتتی کرو۔ گُن گان اور سراہنا کرو، کیونکہ وہ (چرشنی نام سمراجنم) منشیوں کا سمراٹ، راجہ مہاراجہ شاہوں کا شہنشاہ ہے اور (نویّم نرم) قابلِ صد احترام نیتا ہے (نِر شاہم منگ ہشٹم) نیتاؤں کا بھی سربراہ اور مہادانی ہے!
Tashree
آؤ بھگت جن عابدو گُن گائیں دانی اِیش کا، راجاؤں کا راجہ ہے جو اور نیتا سارے جگت کا۔
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी परमात्मा व राजाच्या धवल कीर्तीचे गान करावे व त्यांच्या गुणांना आपल्या जीवनात धारण करावे ॥१०॥
टिप्पणी
या दशतिमध्ये इंद्राचे सहायक मरुतांचे वर्णनपूर्वक इंद्राचे महत्त्व प्रतिपादित होण्यामुळे, ब्रह्मणस्पती, वृत्रहा, सविता, शक्र नावाची इंद्राची स्तुती असल्यामुळे, इन्द्राला दु:स्वप्न विनाशाची प्रार्थना असल्यामुळे व इन्द्राच्या स्तुतीसाठी प्रेरणा असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिबरोबर संगती आहे
विषय
आता परमेश्वराची आणि भूपतीची स्तुती करण्याविषयी मनुष्यांना प्रेरणा केली आहे -
शब्दार्थ
हे बंधूनो, तुम्ही (चर्षणीनाम्) मनुष्यांचा जो (सम्राजम्) सम्राट आणि (नव्यम्) जो नवीन वा स्तवनीय आहे, जो (नरम्) नेता असून पौरुषवान आहे, (नृषाहम्) दुष्टजनांना पराजिस करणारा असून (मंहिषम्) अत्यंत दानी आहे, त्या (इन्द्रम्) वीर परमेश्वराचे आणि भूपतीचे (गीर्भिः) वेद वाणीद्वारे / स्ववमुखाद्वारे (प्र स्तोत) उत्तम प्रकारे स्तुतिगान करा. ।। (राष्ट्रातील नागरिकांना उद्देशून त्यांचा एक नेता त्यांना सांगत आहे - परमेश्वराची आणि राजाची स्तुती करा, तो तुमचा रक्षक, पालक आहे) ।। १०।।
भावार्थ
मनुष्याचे कर्तव्य आहे की त्यांनी परमेश्वराच्या आणि राजाच्या धवल कीर्तीचे गान करावे आणि जीवनात त्यांचे सद्वुण आचरणात आणावेत. ।। १०।। या दशतीमध्ये इन्द्राचे सहायक मरुतांचे वर्णऩ करून इन्द्राचे महत्त्व प्रतिपादित आहे, ब्रह्मणस्पती, वृत्रहा, सविल, शक्र या नावांनी इन्द्राची स्तुती केली आहे, तसेच इन्द्राला दुःखविनाशाची प्रार्थना केली असून इन्द्राच्या स्तुतिगानाकरिता मनुष्यांना प्रेरणा केली आहे. यामुळे या दशतीच्या विषयांची संमतीची पूर्वीच्या दशतीतील विषयांशी आहे, असे द्वितीय प्रपाठकातील प्रथम अर्धातील पंचम दशती समाप्त. द्वितीय अध्यायातील तृतीय खंड समाप्त. द्वितीय प्रपाठकातील द्वितीय अर्ध आरंभ
विशेष
या मंत्रात अर्थश्लेष अलंकार आहे ।। १०।।
तमिल (1)
Word Meaning
மனித சமூக(சத்துருவை) அடக்குபவனாய் தாராளமாயுள்ளவும், மனிதர்களின் நடுவே மேன்மையான மன்னனாயும் நமது துதிகளால் அர்ச்சிக்கப்படும் இந்திரனை பெருமையுடன் புகழவும்.
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