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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 145
ऋषिः - श्रुतकक्षः आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
32
अ꣡पा꣢दु शि꣣प्र्य꣡न्ध꣢सः सु꣣द꣡क्ष꣢स्य प्रहो꣣षि꣡णः꣢ । इ꣢न्द्रो꣣रि꣢न्द्रो꣣ य꣡वा꣢शिरः ॥१४५॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡पा꣢꣯त् । उ꣣ । शिप्री꣢ । अ꣡न्ध꣢꣯सः । सु꣣द꣡क्ष꣢स्य । सु꣣ । द꣡क्ष꣢꣯स्य । प्र꣣होषि꣡णः꣢ । प्र꣣ । होषि꣡णः꣢ । इ꣢न्दोः꣢꣯ । इन्द्रः꣢꣯ । य꣡वा꣢꣯शिरः । य꣡व꣢꣯ । आ꣣शिरः ॥१४५॥
स्वर रहित मन्त्र
अपादु शिप्र्यन्धसः सुदक्षस्य प्रहोषिणः । इन्द्रोरिन्द्रो यवाशिरः ॥१४५॥
स्वर रहित पद पाठ
अपात् । उ । शिप्री । अन्धसः । सुदक्षस्य । सु । दक्षस्य । प्रहोषिणः । प्र । होषिणः । इन्दोः । इन्द्रः । यवाशिरः । यव । आशिरः ॥१४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 145
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि इन्द्र समर्पणकर्ता के सोमरस को स्वीकार करता है।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष मे। (शिप्री) सर्वव्यापक (इन्द्रः) परमात्मा (सुदक्षस्य) अतिकुशल, (प्रहोषिणः) प्रकृष्ट रूप से आत्मसमर्पण रूप हवि का होम करनेवाले, (इन्दोः) चन्द्रमा के समान सौम्य उपासक के (यवाशिरः) यवों के तुल्य सात्त्विक ज्ञान और कर्मों के साथ परिपक्व (अन्धसः) भक्ति-रूप सोमरस का (अपात् उ) निश्चय ही पान करता है, अर्थात् ज्ञान-कर्म-पूर्वक की गयी भक्ति को अवश्य स्वीकार करता है ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (शिप्री) राजमुकुटधारी (इन्द्रः) राजा (सुदक्षस्य) सुसमृद्ध, (प्रहोषिणः) कर-रूप से राजा के लिए देय भाग को कर-विभाग में देनेवाले, (इन्दोः) राष्ट्र को सींचनेवाले प्रजाजन के (यवाशिरः) जौ, गेहूँ, तिल, चावल, मूँग उड़द आदि सहित (अन्धसः) खाद्य, पेय, वस्त्र, सोना, चाँदी, मुद्रा आदि रूप में प्रदत्त राज-कर को (अपात् उ) अवश्य ग्रहण करता है ॥ तृतीय—सूर्य के पक्ष में। (शिप्री) किरणोंवाला (इन्द्रः) सूर्य (सुदक्षस्य) अतिशय समृद्ध, (प्रहोषिणः) अपने जल रूप हवि का होम करनेवाले भूमण्डल के (यवाशिरः) संयोगविभागकारी ताप से पककर भापरूप में परिणत होनेवाले (अन्धसः) भोज्यरूप (इन्दोः) जल का (अपात् उ) अवश्य पान करता है ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
भावार्थ
जैसे राजा प्रजाजनों के कररूप उपहार को और सूर्य भूमण्डल के जलरूप उपहार को स्वीकार करता है, वैसे ही परमात्मा उपासकों के ज्ञानकर्ममय भक्तिरस के उपहार को प्रेमपूर्वक स्वीकार करता है ॥१॥ इस मन्त्र की व्याख्या में सायणाचार्य ने जो ‘सुदक्ष’ शब्द से सुदक्ष नाम के ऋषि का ग्रहण किया है, वह अन्य भाष्यकारों के विरुद्ध होने से ही खण्डित हो जाता है, क्योंकि ‘सुदक्ष’ का अर्थ विवरणकार माधव ने ‘भले प्रकार उत्सादित’ और भरतस्वामी ने ‘अतिशय बलवान्’ किया है। इस प्रकार के प्रसिद्धार्थक शब्दों को भी नाम मान लेने पर तो वेदों के सभी सुबन्त पद किसी ऋषि या राजा के नाम हो जाएँगे ॥
पदार्थ
(सुदक्षस्य) सुचतुर—उच्च ज्ञान बलवाले (प्रहोषिणः) प्रकृष्ट यथावत् आत्मसमर्पी उपासक के (यवाशिरः) समागम—भावना से युक्त—(अन्धसः) आध्यानीय—(इन्दोः) स्निग्ध उपासनारस का (शिप्री-इन्द्र-अपात्-उ) आत्मा में प्राप्त होनेवाला परमात्मा अवश्य पान करता है—स्वीकार करता है।
भावार्थ
ऊँचे ज्ञानी आत्मसमर्पी उपासक के समागम भावना से युक्त समन्त ध्यान सहित स्निग्ध उपासना रस को आत्मा में प्राप्त होनेवाला परमात्मा अवश्य पान करता है—स्वीकार करता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—श्रुतकक्षः (सुना है अध्यात्मकक्ष जिसने ऐसा परमात्मज्ञानी)॥<br>
विषय
अज्ञानान्धकार का नाश
पदार्थ
(शिप्री)=ज्ञान के शिरस्त्राणवाले (इन्द्रः)=परमैश्वर्यशाली प्रभु (अन्धसः)=अन्धकार का [अन्ध+ अस्] (अपात् उ)=निश्चय से पान कर जाते हैं - नाश कर देते हैं। शिप्र शब्द Helmet = शिरस्त्राण का वाचक है, अतः शिप्री का अर्थ हुआ शिरस्त्राणवाले । वे इन्द्र = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले हैं। वे प्रभु हमें उत्कृष्ट ज्ञान देते हुए हमारे अज्ञानान्धकार को नष्ट कर देते हैं।
१. (सु- दक्षस्य) = उत्तम मार्ग से आगे बढ़नेवाले के [दक्ष - to go, to move]। जिस व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य उत्तम मार्ग से आगे बढ़ना है, उसका अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। ध्येय व क्रिया की उत्तमता उसे पवित्र बनाती है और पवित्र हृदय में ही ज्ञान का प्रकाश होता है।
२. (प्र-होषिणः)=प्रकृष्ट त्याग करनेवाले के [हु-त्याग] । वस्तुतः त्यागयुक्त क्रियाएँ ही मनुष्य को निर्मल बनाती हैं । ('यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्') = दान मनुष्य को पवित्र करनेवाला है। यही पवित्रता हमें ज्ञान प्राप्ति के योग्य बनाती है ।
३. (इन्दोः) = इन्दु के। इन्दु शब्द सोम का वाचक है-semen, vitality=वीर्यशक्ति। जो व्यक्ति अपने को वीर्यशक्ति का पुञ्ज बनाता है, वह इन्दु है। प्रभु इसके अज्ञानान्धकार को नष्ट करते हैं।
४. (यवाशिरः)=यवाशिर के। गो शब्द ज्ञानेन्द्रियों का वाचक है [गमयन्ति अर्थान्] और यव शब्द कर्मेन्द्रियों का [यूयन्ते कर्मसु ] । 'आशृ' से बनकर आशिर् शब्द 'चारों ओर से हिंसा करनेवाले' को कह रहा है। यह कुमार्ग पर जानेवाली इन्द्रियों को काबू करता है। वस्तुतः उपस्थादि इन्द्रियों के संयम से ही तो यह 'इन्दु' शक्ति का पुञ्ज बन पाया था। वह नष्ट अज्ञानान्धकारवाला व्यक्ति 'श्रुतकक्ष' - ज्ञानरूप शरणवाला है, अतएव विषयों में आसक्त न होने के कारण 'आङ्गिरस' = शक्तिसम्पन्न है।
भावार्थ
हम उत्तम मार्ग से चलनेवाले, त्यागशील, शक्तिपुञ्ज और कर्मेन्द्रियों के वशकर्ता बनें, जिससे हमारा अज्ञानान्धकार पूर्णरूप से नष्ट हो जाए।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( शिप्री ) = एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने वाला या प्राणों का स्वामी ( इन्द्रः ) = ऐश्वर्यशील आत्मा ( सुदक्षस्य ) = कार्यसम्पादन में कुशल, बलसम्पन्न, ( प्रहोषिण: ) = उत्तम रीति से हवन, दान-आदान करने वाले ( इन्द्रो: ) = प्रदीप्त , ( यवाशिरः ) = अन्न के सारभूत अंश से मिल कर परिपक्व ( अन्धसः ) = प्राणधारण सामर्थ्य को ( अपात् ) = पान या पालन करता है ।
‘प्रहोषिन्’—इसकी व्याख्या देखिये ( गीता अ० ४ । २३-३१ ।)। इसमें बहुत से यज्ञ दर्शाये हैं जैसे १. ब्रह्मार्पण ब्रह्महवियाग । २. इन्द्रियों की संयम में आहुति । ३. शब्दादि ग्राह्य विषयों की इन्द्रियों में आहुति, ४. ज्ञानेन्द्रिय ओर ५. प्राणेन्द्रिय कर्मों की संयमाग्नि में आहुति, ६. द्रव्ययज्ञ, ७. तपोयज्ञ ८. योगयज्ञ, ९ .स्वाध्याय यज्ञ. १०.ज्ञानयज्ञ, ११. अपान में प्राण की आहुति १२. प्राण में अपान की आहुति, १३ प्राणों की प्राणों में आहुति इत्यादि । इनके कर्त्ता सभी 'प्रहोषी' है। इनमें सबसे श्रेष्ठ सुदक्ष ज्ञानी वह है जो अपने ज्ञानाग्नि अर्थात् चेतना शक्ति में सब कर्म-शक्ति अर्थात् अन्न की जविन शक्ति को एक करके कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो।
देवता - इन्द्रः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ द्वितीये प्रपाठके द्वितीयोऽर्धः अथाद्ये मन्त्रे इन्द्रः समर्पकस्य सोमरसं स्वीकरोतीत्याह।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। (शिप्री) सृप्री सर्वव्यापकः। यथाह निरुक्तकारः—सृप्रः सर्पणात्, सुशिप्रम् एतेन व्याख्यातम् इति। निरु० ६।१७। (इन्द्रः) परमेश्वरः (सुदक्षस्य) सुप्रवीणस्य (प्रहोषिणः२) प्रकर्षेण आत्मसमर्पणरूपं हविः जुह्वतः (इन्दोः) चन्द्रवत् सौम्यस्य उपासकस्य (यवाशिरः) यवैः यवैरिव सात्त्विकैः ज्ञानैः कर्मभिश्च आशीः आश्रपणं पाकः यस्य तस्य, ज्ञानैः कर्मभिश्च सह परिपक्वस्य। आशीः आश्रयणाद् वा आश्रपणाद् वा इति निरुक्तम्। ६।८। अत्र अपस्पृधेथामानृचु० अ० ६।१।३६ इति आङ्पूर्वस्य श्रिञ् सेवायाम्, श्रीञ् पाके वा धातोः क्विप् शिरादेशो निपात्यते। (अन्धसः) भक्तिरूपस्य सोमस्य (अपात् उ) पानं करोति खलु, ज्ञानकर्मपूर्विकां भक्तिं स्वीकरोतीत्यर्थः ॥ अथ द्वितीयः-—राजपरः। (शिप्री) राजमुकुटधारी। शिप्राः शीर्षसु। ऋ० ५।५४।११ इति वचनात् शिप्राः शिरस्सु धारणीयाः उष्णीषमुकुटादयः। (इन्द्रः) सम्राट् (सुदक्षस्य) सुसमृद्धस्य (प्रहोषिणः) कररूपेण राजदेयभागं करविभागे प्रयच्छतः (इन्दोः) राष्ट्रसेचकस्य प्रजाजनस्य। उनत्ति राष्ट्रं क्लेदयति सिञ्चतीति इन्दुः। इन्दुः इन्धेः उनत्तेर्वा इति निरुक्तम्। १०।४०। (यवाशिरः) यवैः यवगोधूमतिलतण्डुलमुद्गमाषादिभिः आश्रितस्य सहितस्य (अन्धसः) अन्नस्य, अन्नवाचकः अन्धःशब्दः सर्वेषां भोग्यवस्तूनामुपलक्षणम्, खाद्यपेयपरिधानसुवर्णरजतमुद्रादिरूपस्य करस्य (अपात् उ) पानं ग्रहणं करोति खलु ॥ अथ तृतीयः—सूर्यपरः। (शिप्री) शिप्रयः क्षिप्रगामिनः किरणाः अस्य सन्तीति शिप्री किरणवान्। शिपयोऽत्र रश्मय उच्यन्ते इति निरुक्तम्। ५।८। रेफागमश्छान्दसः। (इन्द्रः) सूर्यः (सुदक्षस्य) सुसमृद्धस्य (प्रहोषिणः) स्वकीयं जलरूपं हविः जुह्वतः भूमण्डलस्य (यवाशिरः) यवेन संयोगविभागकर्त्रा तापेन आशीः आश्रपणं वाष्पीभवनं यस्य स यवाशीः तस्य। यवः इत्यत्र यु मिश्रणामिश्रणयोः इति धातुर्बोध्यः। (अन्धसः) भोज्यरूपस्य (इन्दोः) जलस्य। इन्दुः उदकनाम। निघं० १।१२। (अपात् उ) पानं करोति खलु ॥१॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
भावार्थः
यथा राजा प्रजाजनानां करोपहारं सूर्यश्च भूमण्डलस्य जलोपहारं तथैव जगदीश्वरः उपासकानां ज्ञानकर्ममयं भक्तिरसोपहारं प्रेम्णा स्वीकरोति ॥१॥ एतन्मन्त्रव्याख्याने सायणाचार्येण सुदक्षस्य एतन्नामकस्य ऋषेः इति यत्प्रोक्तं तदितरभाष्यकारविरुद्धत्वेनैवापास्तम्। सुदक्षस्य सुष्ठु उत्सादितस्य इति विवरणकारः, सुबलस्य इति भरतस्वामी। एतद्विधानां प्रसिद्धार्थकानां शब्दानां नामत्वकल्पने वेदानां सर्वाण्येव सुबन्तपदानि कस्यापि ऋषे राज्ञो वा नामतां प्रपद्येरन्।
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९२।४ ऋषिः श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। २. प्रहोषिणः, जुहोतेर्दानार्थस्येदं रूपम्—इति वि०। स्तुतिमतः—इति भ०। प्रकर्षेण देवान् हविर्भिर्जुह्वतः—इति सा०।
इंग्लिश (2)
Meaning
The soul, that moves from one body to the other, is deft in action, properly gives and takes, is enlightened and mixed with food, assumes bodily form.
Translator Comment
Gives and takes: Soul imparts knowledge to some and receives instruction from others. This verse clearly states that the soul enters the womb at the time of conception through what a woman eats and drinks. This explodes the theory that the soul enters the womb a few months after the conception.
Meaning
Let Indra, the ruler, value, protect and promote the soma homage mixed and strengthened with the delicacies of life and offered by the generous and enlightened people. (The mantra points to the circulation of wealth and economy of the nation managed by the tax payers and the ruling powers of the government. ) (Rg. 8-92-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सुदक्षस्य) સુચતુર શ્રેષ્ઠ જ્ઞાનબળયુક્ત (प्रहोषिणः) પ્રકૃષ્ટ યથાવત્ આત્મ સમર્પણ કરનાર ઉપાસકના (यवाशिरः) સમાગમ-ભાવનાથી યુક્ત, (अन्धसः) ધ્યાનયુક્ત, (इन्द्रोः) સ્નિગ્ધ ઉપાસનારસનું (शिप्री इन्द्र अपात् उ) આત્મામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્મા પાન કરે છે-સ્વીકાર કરે છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : શ્રેષ્ઠ જ્ઞાની, આત્મ સમર્પી ઉપાસકોનો સમાગમ ભાવનાથી યુક્ત સમગ્ર ધ્યાન સહિત સ્નિગ્ધ ઉપાસનારસને આત્મામાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્મા અવશ્ય પાન કરે છે - સ્વીકાર કરે છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
یگیہ شل آتما کے بھگتی رس کو ہی اِندر پان کرتا ہے!
Lafzi Maana
لفظی معنیٰ: (شِپری) کرم شِیل ویر بہادر جیسے (سُودکھیہ) طاقت بخش (اندھیہ) اَنّ وغیرہ پدارتھوں سے تیار کی گئی (یواشِرہ) جوَ کی پکی ہوئی کھیر کو خوشی خوشی (اپات) کھا پی جاتا ہے۔ ایسے ہی اِندر پرمیشور بھگتی مارگ میں (سُودکھسیہ) قابلیت حاصل کئے ہوئے اور (پرہوشنہ) سبھی یگیہ دان آدی پروپکاری کاموں میں اپنا سب کچھ ارپن کر دینے والے اُپاسک کے اندر (اپات) بھگتی بھاؤ کا امرت رس پان کرتا ہے۔
Tashree
یگیہ شِیل دانی بن پیارے ہو جائے تیرا کلیان، تیرے دیئے بھگتی کے رس کو پئے گا پیارا بھگوان۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा राजा प्रजेचा कररूपी उपहार व सूर्यभूमंडलाच्या जलरूपी उपहाराचा स्वीकार करतो, तसेच परमात्मा उपासकांच्या ज्ञानकर्ममय भक्तिरसाच्या उपहाराला प्रेमपूर्वक स्वीकारतो ॥१॥
टिप्पणी
या मंत्रात व्याख्येमध्ये सायणाचार्याने जो ‘सुदक्ष’ शब्दाने सुदक्ष नावाच्या ऋषीचे ग्रहण केलेले आहे ते अन्य भाष्यकारांच्या विरुद्ध असल्यामुळेही खंडित होते, कारण ‘सुदक्ष’चा अर्थ विवरणकर माधवने ‘चांगल्या प्रकारे उत्साहित’ व भरत स्वामीने ‘अतिशय बलवान’ केलेला आहे. या प्रकारे प्रसिद्धार्थक शब्दांना ही नावे मानल्यास वेदांचे सर्व सुबन्त पद एखाद्या ऋषी किंवा राजाच्या नावे होतील ॥
विषय
प्रथम मंत्रात हा विषय वर्णित आहे की इन्द्र समर्पण कर्त्याच्या सोमरसाचा स्वीकार करतो -
शब्दार्थ
प्रथम अर्थ (परमात्मपर) (शिप्री) सर्वव्यापी (इन्द्रः) परमात्म (सुदक्षस्य) अतिकुशल (प्रहोषिणः) विशेषरूपेण आत्मसमर्पण रूप हवीचा होम करणाऱ्या (इन्दोः) चंद्राकम सौम्य उपासकाच्या (यवाशिरः) यव धान्याप्रमाणे सात्त्विक आणि जो ज्ञान आणि कर्म यांच्या समन्वयामळे परिपक्व झालेल्या (अन्धसः) भक्तिरूप सोमरसाचा (अपात् उ) अवश्वमेव सेवन करतो. अर्थात ज्ञान- कर्माद्वारे केलेल्या भक्तीचा अवश्य स्वीकार करतो. द्वितीय अर्थ - (राजापूर) (शिप्री) राजमुकुटधारी (इन्द्रः) राजा (सुदक्षस्य) सधन व कुशल (प्रहेषिजः) राज कर रूपाने राज्याकरिता जो देय भाग आहे, तो देणाऱ्या (इन्दोः) राष्ट्राला साधन समृद्ध करणाऱ्या प्रजाजनांकडून (यवाशिरः) जव, गहू, तीळ, तांदूळ, मूग, उडीद आदी धान्यांसह (अन्धसः) खाद्य, पेय पदार्थ, वस्त्र, सोने, चांदी, मुद्रा आदी रूपाने राज कर (अपात् उ) अवश्य ग्रहण करतो (राजा प्रजेकडून जो कर ग्रहण करतो, ते कर धान्य, वस्त्र वा धातू रूपानेही देता येते, हे सांगितले आहे.) तृतीय अर्थ - (सूर्यपर) - (शिप्री) किरणवान (इन्द्रः) सूर्य (सुदक्षस्य) अति समृद्ध असून तो (प्रहेषिणः) आपल्या जतरूप हवीचा होम करणाऱ्या भूमंडळाच्या (यवाशिरः) संयोग वियोग कधी ताप वा उष्णतेद्वारे पक्व होऊन वाष्य रूपात परिवर्तित होणाऱ्या (अन्धसः) भोज्यरूप (इन्दोः) जलाचे (अपात् उ) अवश्य पान वा सेवन करतो. ।। १।।
भावार्थ
या मंत्रावर भाष्य लिहिताना सायणाचार्य यानी ‘सुदक्ष’ शब्दाचा अर्थ ‘सुदक्ष नामाचा एक ऋषी’ असा केला आहे. त्यांनी केलेला हा अर्थ अन्य भाष्यकारांनी केलेल्या अर्थाहून विपरीत असल्यामुळे स्वतःहून खोडला गेला आहे. विवरणकार माधव याने ङ्गसुदक्षफ शब्दाचा अर्थ ‘चांगल्या प्रकारे उत्सादित’ असा केला असून भरतस्वामीने या शब्दाचा अर्थ ‘अतिशय बलवान’ असा केला आहे. सायणाचार्यांच्या पद्धतीप्रमाणे ‘सुदक्ष’सारख्या प्रसिद्धार्थक शब्दांनाही नाम शब्द मानले गेले. मग तर वेदातील सर्व सुबन्त पदांना कोणत्या तरी ऋषीचे वा राजाचे नाव मानले जाईल (तात्पर्य अशा शब्दांना नाम शब्द न मानता त्याचा यौगिक अर्थ केला पाहिजे.)
विशेष
या मंत्रात श्लेष अलंकार आहे. ।। १।।
तमिल (1)
Word Meaning
செம்மையான முகமுள்ள (இந்திரன்) பூஜிக்கும் [1](சுதக்ஷனின்) [2]வால் கோதுமையாலான [3]சோமரசத்தைப் பருகுகிறான்.
FootNotes
[1].சுதக்ஷனின் - நல்ல பலமுள்ளவனின்
[2].வால் கோதுமையாலான - சத்துருக்களுடனான
[3].சோமரசத்தை - பிராணரசத்தை
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