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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1434
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
29
त्व꣢꣫ꣳ हि शूरः꣣ स꣡नि꣢ता चो꣣द꣢यो꣣ म꣡नु꣢षो꣣ र꣡थ꣢म् । स꣣हा꣢वा꣣न्द꣡स्यु꣢मव्र꣣त꣢꣫मोषः꣣ पा꣢त्रं꣣ न꣢ शो꣣चि꣡षा꣢ ॥१४३४॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । हि । शू꣡रः꣢꣯ । स꣡नि꣢꣯ता । चो꣣द꣡यः꣢ । म꣡नु꣢꣯षः । र꣡थ꣢꣯म् । स꣣हा꣡वा꣢न् । द꣡स्यु꣢꣯म् । अ꣣व्रत꣢म् । अ꣢ । व्रत꣢म् । ओ꣡षः꣢꣯ । पा꣡त्र꣢꣯म् । न । शो꣣चि꣡षा꣢ ॥१४३४॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वꣳ हि शूरः सनिता चोदयो मनुषो रथम् । सहावान्दस्युमव्रतमोषः पात्रं न शोचिषा ॥१४३४॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । हि । शूरः । सनिता । चोदयः । मनुषः । रथम् । सहावान् । दस्युम् । अव्रतम् । अ । व्रतम् । ओषः । पात्रम् । न । शोचिषा ॥१४३४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1434
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा की शूरता वर्णित करते हैं।
पदार्थ
हे इन्द्र ! हे शत्रुओं को विदीर्ण करनेवाले जगदीश ! (त्वं हि) आप निश्चय ही (शूरः) शूरवीर तथा (सनिता) उत्साह देनेवाले हो। (मनुषः) मनुष्य के (रथम्) प्रगति के रथ को (चोदयः) आगे प्रेरित करते हो। (सहावान्) बलवान्, आप (अव्रतम्) व्रतहीन और कर्महीन को तथा (दस्युम्) हिंसक स्वभाव को और हिंसक मनुष्य को (शोचिषा) प्रदीप्त अग्निज्वाला से (पात्रं न) मिट्टी के घड़े आदि के समान (ओषः) संतप्त कर देते हो ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
जो परमेश्वर सज्जनों को पुरस्कार और दुष्टों को दण्ड देता है, उससे डरकर दुर्जनों को दुष्टता छोड़ देनी चाहिए और सत्कर्मों में उत्साह दिखाना चाहिए ॥३॥ इस खण्ड में उपास्य-उपासक विषय का तथा ब्रह्मानन्द का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ बारहवें अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥ बारहवाँ अध्याय समाप्त॥ षष्ठ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध समाप्त ॥
पदार्थ
(त्वं हि शूरः) हे इन्द्र—परमात्मन्! तू ही पराक्रमी है—सब पर अधिकारकर्ता (सनिता) सुख सम्भाजक—सुखदाता (मनुषः-रथं चोदयः) मननशील उपासक के रथ—देवरथ—या मनन धर्म के रथ—देवरथ—तुझ देव की ओर चलने वाले रथ अध्यात्मयज्ञ६ को प्रेरित कर (सहावान् सहस्वान्) बलवान् (अव्रतं दस्युम्-ओषः) व्रतरहित—सदाचरण कर्मरहित—अन्य के क्षयकर्ता को दग्ध कर देता है (पात्रं न शोचिषा) जैसे अग्नि रिक्त पात्र को ज्वाला से दग्ध कर देता है॥३॥
विशेष
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विषय
दस्यु से देव
पदार्थ
हे सोम! (त्वं हि) = तू निश्चय से १. (शूर:) = अ से ह तक [a to z ] सब शत्रुओं का शातन करनेवाला है। रोगकृमियों को नष्ट करके तू हमारे शत्रुओं का नाश करता है २. (सनिता) = शत्रुओं का नाश करके तू नीरोगता आदि का देनेवाला है। ३. (मनुष: रथं चोदय) = हे सोम! तू ही मनुष्य के रथ को प्रेरित करनेवाला है । तेरे होने से यह रथ चलता है, अर्थात् तेरी समाप्ति और इस जीवन की भी समाप्ति [मरणं बिन्दुपातेन] । ४. (सहावान्) = मन के अन्दर उत्पन्न हो जानेवाली अशुभ वृत्तियों को मसल डालनेवाला है। 'वीर्य' मनुष्य को वीरत्व — Virtues प्राप्त कराता है और वह सब vices= विषयों से ऊपर उठने में समर्थ होता है । ५. इस प्रकार यह सुरक्षित सोम एक (दस्युम्) = ध्वंसक वृत्तिवाले [दस्=to destroy] (अव्रतम्) = कुत्सित – निन्दित व्रतोंवाले पुरुष को भी (ओष:) = दुर्गुणों के दहन [उष् दाहे] से ऐसा पवित्र बना देता है (न) = जैसेकि (पात्रम्) = किसी मलिन बर्तन को (शोचिषा) = अग्नि के द्वारा - अग्नि में तपाकर शुद्ध कर देते हैं ।
इस प्रकार यह सोम सब कुटिलगतियों को [अग] नष्ट करके [स्त्य] एक व्यक्ति को सचमुच 'अगस्त्य' बना देता है ।
भावार्थ
हम 'सोम' के महत्त्व को समझें, उसके सुरक्षण द्वारा सु-गुणों का सन्धारण करें।
विषय
missing
भावार्थ
हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (त्वं) आप ही (शूरः) सबमें गति देने हारे, (सनिता) समस्त पदार्थों के दाता होकर (मनुषः) मननशील जीव के (रथं) इस रमण स्थान देह या समस्त विश्व को (चोदयः) प्रेरित कर रहे हो। आप (दस्युम्) नाश करने हारे, दुष्ट (अव्रतम्) नियम रहित, निकम्मे, नियम को न पालने हारे पुरुष को (सहावान्) शक्तिशाली या सहायसम्पन्न होकर (शोचिषा) अपने तेज से (ओषः) ऐसे ही तपाते हो जैसे (शोचिषा) अग्नि के ताप से हम लोग (पानं न) हंडिया को तपाया करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ गोतमो राहूगणः, वसिष्ठस्तृतीयस्याः। २, ७ वीतहव्यो भरद्वाजो वा बार्हस्पत्यः। ३ प्रजापतिः। ४, १३ सोभरिः काण्वः। ५ मेधातिथिमेध्यातिथी काण्वौ। ६ ऋजिष्वोर्ध्वसद्मा च क्रमेण। ८, ११ वसिष्ठः। ९ तिरश्वीः। १० सुतंभर आत्रेयः। १२, १९ नृमेघपुरुमेधौ। १४ शुनःशेप आजीगर्तिः। १५ नोधाः। १६ मेध्यातिथिमेधातिथिर्वा कण्वः। १७ रेणुर्वैश्वामित्रः। १८ कुत्सः। २० आगस्त्यः॥ देवता—१, २, ८, १०, १३, १४ अग्निः। ३, ६, ८, ११, १५, १७, १८ पवमानः सोमः। ४, ५, ९, १२, १६, १९, २० इन्द्रः॥ छन्दः—१, २, ७, १०, १४ गायत्री। ३, ९ अनुष्टुप्। ४, १२, १३, १६ प्रागाथं। ५ बृहती। ६ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। ८, ११, १५, १० त्रिष्टुप्। १७ जगती। १६ अनुष्टुभौ बृहती च क्रमेण। २९ बृहती अनुष्टुभौ क्रमेण॥ स्वरः—१, २, ७, १०, १४ षड्जः। ३, ९, १०, गान्धारः। ४-६, १२, १३, १६, २० मध्यमः। ८, ११, १५, १८ धैवतः। १७ निषादः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनः शूरत्वं वर्णयति।
पदार्थः
हे इन्द्र ! हे शत्रुविदारक जगदीश ! (त्वं हि) त्वं खलु (शूरः) वीरः, (सनिता) उत्साहप्रदश्च असि। (मनुषः) मनुष्यस्य (रथम्) प्रगतिरथम् (चोदयः) अग्रे प्रेरयसि। (सहावान्) बलवान् त्वम् (अव्रतम्) व्रतहीनं कर्महीनं च (दस्युम्) हिंसकं जनं वा (शोचिषा) प्रदीप्तयाऽग्निज्वालया (पात्रं न) मृद्घटादिकमिव (ओषः) प्रतपसि। [उष दाहे, भ्वादिः] ॥३॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
भावार्थः
यः परमेश्वरः सज्जनान् पुरस्करोति दुष्टांश्च दण्डयति तस्माद् भीत्वा दुर्जनैर्दुष्टता परित्यक्तव्या सत्कर्मसु चोत्साहः प्रदर्शनीयः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे उपास्योपासकविषयस्य ब्रह्मानन्दस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
God, Thou urgest men to action, Thou art the best Giver, Thou urgest that verse, the chariot of the meditative soul. Thou through Thy mighty strength burnest an ignoble, unprincipled man, as fire does a vessel through its heat !
Meaning
Indra, ruler and protector of the world, great you are, valiant and generous, dispenser, disposer, giver and unifier. Inspire and accelerate the chariot of humanity. Heroic and courageous lord of challenges, burn the lawless brute with your light and lustre of justice as the blaze of fire burns an empty vessel on the hearth (because there is nothing in it except its empty self). (Rg. 1-175-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (त्वं हि शूरः) હે ઇન્દ્ર-પરમાત્મન્ ! તું જ પરાક્રમી-શૂરવીર સર્વપર અધિકારકર્તા, (सनिता) સુખ સંભાજક-સુખદાતા (मनुषः रथं चोदयः) મનનશીલ ઉપાસકનો રથ-દેવરથ-અર્થાત્ મનન ધર્મનો રથ-દેવરથ-તારા-દેવની તરફ ચાલનારા રથ અધ્યાત્મયજ્ઞને પ્રેરિત કર. (सहावान् सहस्वान्) બળવાન (अव्रतं दस्युम् ओषः) વ્રતરહિત-સદાચરણ કર્મરહિત-બીજાઓને ક્ષયકર્તાને બાળી નાખે છે, (पात्रं न शोचिषा) જેમ અગ્નિ ખાલી વાસણને દગ્ધ કરી દે છે. બાળી નાખે છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमेश्वर सज्जनांना पुरस्कार व दुष्टांना दंड देतो, त्याला भयभीत होऊन दुर्जनांनी दुष्टता सोडून द्यावी व सत्कर्मांमध्ये उत्साह दाखविला पाहिजे ॥३॥
टिप्पणी
या खंडात उपास्य-उपासक विषयाचे व ब्रह्मानंदाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे
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