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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1451
    ऋषिः - सुकक्ष आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    20

    न꣢व꣣ यो꣡ न꣢व꣣तिं꣡ पुरो꣢꣯ बि꣣भे꣡द꣢ बा꣣꣬ह्वो꣢꣯जसा । अ꣡हिं꣢ च वृत्र꣣हा꣡व꣢धीत् ॥१४५१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न꣡व꣢꣯ । यः । न꣣व꣢तिम् । पु꣡रः꣢꣯ । बि꣣भे꣡द꣢ । बा꣣ह्वो꣢जसा । बा꣣हु꣢ । ओ꣣जसा । अ꣡हि꣢꣯म् । च । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । अ꣣वधीत् ॥१४५१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाह्वोजसा । अहिं च वृत्रहावधीत् ॥१४५१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नव । यः । नवतिम् । पुरः । बिभेद । बाह्वोजसा । बाहु । ओजसा । अहिम् । च । वृत्रहा । वृत्र । हा । अवधीत् ॥१४५१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1451
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में राजा वा सेनापति की शूरता का वर्णन है।

    पदार्थ

    (यः) जो वीर (बाह्वोजसा) बाहुबल से (नव नवतिं पुरः) नव्वे-नव्वे शत्रु योद्धाओं के नौ व्यूहों को (बिभेद) तोड़ देता है और जो (वृत्रहा) शत्रुहन्ता वीर (अहिं च) मार-काट करनेवाले शत्रुदल को भी (अवधीत्) विध्वस्त कर देता है, वही राजा वा सेनापति बनने योग्य है ॥२॥

    भावार्थ

    उसी मनुष्य को राजा के पद पर वा सेनापति के पद पर अभिषिक्त करना चाहिए, जो अकेला होता हुआ भी बहुत से शत्रुओं के छक्के छुड़ा सके ॥२॥

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    पदार्थ

    (बाह्वोजसा) जो इन्द्र—ऐश्वर्यवान् परमात्मा अनिष्टबाधक बल से उपासक को (नव नवतिं ‘नवतीः’ पुरः) नौ गतियों२ मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और पाँच ज्ञानेन्द्रियों की प्रवृत्तियाँ—जो आत्मा को पूरने वाली—घेरने वाली हैं उन्हें (बिभेद) छिन्न-भिन्न कर देता है (वृत्रहा) पापनाशक परमात्मा (अहिं च-अवधीत्) आत्मा के अमरत्व को आघात पहुँचाने वाले मृत्यु को या आगे आने वाले जन्म को नष्ट कर देता है (सः-इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान् परमात्मा पुनः (नः) हमारा (शिवः) कल्याणकारी (सखा) मित्र—साथी हुआ (अश्वावत्) घोड़ों वाले विहरण को (गोमत्) गौ वाले पेय (यवमत्) अन्न वाले भक्ष्य भोगों को यदि हम चाहें तो (उरुधारा-इव दोहते) बहुत दुग्ध धारा वाली गौ को दोहता है—देता है॥२-३॥

    विशेष

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    विषय

    ‘अस्तारम्' का स्पष्टीकरण

    पदार्थ

    गत मन्त्र में कहा था कि प्रभुरूप सूर्य 'अस्ता' के हृदयाकाश में उदित होते हैं, अतः प्रस्तुत मन्त्र में उसी अस्ता का लक्षण विस्तार से किया है - (यः) = जो (नवनवतिम्) = निन्यानवे (पुरः) = असुरों की पुरियों को (बाहु ओजसा) = [बाह्र प्रयत्ने] -सदा कर्मों में प्रयत्नशीलता से जनित ओज के द्वारा (बिभेद) = विदीर्ण कर देता है । असुर हमारे शरीरों में सदा अपना अधिष्ठान बनाकर अपना दुर्ग बनाते रहते हैं । निन्यानवे के निन्यानवे वर्ष इन असुरों के किले ही बनते चलते हैं, परन्तु जो व्यक्ति 'कर्मणे हस्तौ विसृष्टौ'–‘प्रभु ने कर्म के लिए हाथ दिये हैं', इस तत्त्व को समझकर सतत कर्मों में प्रयत्नशील रहता है। यह व्यक्ति अपने प्रयत्नजनित ओजों से असुरों की इन नगरियों को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है ।

    यह ‘बाह्वोजस्’ वाला व्यक्ति ज्ञान पर आवरण को ले-आनेवाले वृत्र को नष्ट कर देता है और 'वृत्र-हा' नामवाला होता है। कामवासना ही वृत्र है । काम और ज्ञान का सनातन विरोध है । (च) = और यह वृत्रहा (अहिम्) = [आहन्ति इति] हनन की वृत्ति को (अवधीत्) = नष्ट कर डालता है।

    कामवासना व औरों के हनन की वृत्ति का हनन करनेवाला यह पुरुष 'सुकक्ष' उत्तम शरणवाला होता है। वासनाओं का विदारण करनेवाला यह 'आङ्गिरस' तो है ही ।

    भावार्थ

    हम वासना का विदारण करें, हनन की वृत्ति का हनन करनेवाले हों ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (यः) जो इन्द्र (बाह्वोजसा) बाहुओं, विघ्नकारी बाधाओं दूर करने हारे साधनों के सामर्थ्य या बल से (नव नवतिं) ९९ निन्यानवें (पुरः) पुरों, देहों या देह पर गुजरने हारे उसके परिपोषक एवं तर्पक वर्षों को (बिभेद) तोड़ डालता है, विनाश करता है और (वृत्रहा) आवरणकारी अज्ञान–अन्धकार को नाश करने द्वारा वह आत्मा (अहिं) सर्प के समान हृदय-मन्दिर में आ घुसने वाले अज्ञान और उससे पैदा होने वाले काम आदि विकार, आत्मा के प्रकाश के ऊपर आजाने वाले आवरण को (अवधीत्) विनाश करता है (सः) वह (इन्द्रः) वशी आत्मा या ऐश्वर्यवान् परमात्मा (शिवः) कल्याणमय, (सखा) सब का मित्ररूप हमारे लिये (उरुधारा इव) दूध की बड़ी धार बहाने वाली कामधेनु के समान, (अश्वावत्) इन्द्रियों की शक्ति से सम्पन्न बल और (गोमत्) वेदवाणियों से युक्त ज्ञान और (यवमत्) जव आदि धान्यों से युक्र उत्तम पुष्टिकारक अन्न को एवं समष्टि रूप से अश्वों, गौओं और सस्यादियुक्त ऐश्वर्यों को (दोहते) प्रदान करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ नृपतेः सेनापतेर्वा शौर्यं वर्णयति।

    पदार्थः

    (यः) यो वीरः (बाह्वोजसा) भुजबलेन (नव नवतिं पुरः) नवतिनवतिशत्रुयोद्धॄणां नव व्यूहान् (बिभेद) भिनत्ति, यः (वृत्रहा) वृत्रहा शत्रुहन्ता वीरः (अहिं च) आहन्तारं शत्रुदलं चापि (अवधीत्) निहन्ति, स एव राजा सेनापतिर्वा भवितुमर्हति ॥२॥

    भावार्थः

    स एव जनो राजपदे सेनापतिपदे वाऽभिषेच्यो य एकोऽपि सन् बहूनपि शत्रून् पराजेतुं समर्थो भवेत् ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God. Who through the force of His arms, finishes the ninety nine years of this body like castle, and kills the serpent of passion that over-shadows of soul, the dispeller of the demon of ignorance, as our Benefactor and Friend, send us riches in horses, kine and com, like a full-streaming cow.

    Translator Comment

    $ The various devices of knowledge and action are figuratively the arms of God. He ends our long life of ninety-nine years. See verse 179, where detailed explanation of the word नवनवती given.

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    Meaning

    Indra who breaks off the nine and ninety strongholds of darkness, ignorance and suffering by the force of his lustrous arms and, as the dispeller of darkness, destroys the crooked serpentine evil of the world: (Rg. 8-93-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (बाह्वोजसा) જે ઇન્દ્ર-ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા અનિષ્ટબાધક બળથી ઉપાસકને (नव नवतिं "नवतीः" पुरः) નવ ગતિઓ-મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર અને પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયોની પ્રવૃત્તિઓ-જે આત્માને પૂરનારી-ઘેરનારી છે. તેને (बिभेद) છિન્નભિન્ન કરી નાખે છે. (वृत्रहा) પાપનાશક પરમાત્મા (अहिं च अवधीत्) આત્માનાં અમરત્વને આઘાત પહોંચાડનાર મૃત્યુને અથવા આગળ થનારા જન્મને નષ્ટ કરી દે છે. (२)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो एकटाच अनेक शत्रूंचे निर्दालन करू शकतो, त्याच माणसाला राजाच्या पदावर किंवा सेनापती पदावर अभिषिक्त केले पाहिजे. ॥२॥

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