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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1462
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - सविता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    त꣡त्स꣢वि꣣तु꣡र्व꣢꣯रेण्यं꣣ भ꣡र्गो꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ धीमहि । धि꣢यो꣣ यो꣡ नः꣢ प्रचो꣣द꣡या꣢त् ॥१४६२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣢त् । स꣣वितुः꣢ । व꣡रे꣢꣯ण्यम् । भ꣡र्गः꣢꣯ । दे꣣व꣡स्य꣢ । धी꣣महि । धि꣡यः꣢꣯ । यः । नः꣣ । प्रचोद꣡या꣢त् । प्र꣣ । चोद꣡या꣢त् ॥१४६२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ॥१४६२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । सवितुः । वरेण्यम् । भर्गः । देवस्य । धीमहि । धियः । यः । नः । प्रचोदयात् । प्र । चोदयात् ॥१४६२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1462
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में सविता परमेश्वर की उपासना का विषय वर्णित है।

    पदार्थ

    ऋचा में तीन पाद हैं। ‘प्रत्येक वेद से एक-एक पाद दुहा गया है।’ (मनु० २।७७) मनु के इस वचन के आधार पर प्रत्येक पाद का पृथक् अर्थ देखते हैं। १. (सवितुः) सकल जगत् की उत्पत्ति करनेवाले, सब शुभगुणों के प्रेरक परमात्मा का (तत्) वह प्रसिद्ध तेज (वरेण्यम्) वरणीय है। २. (देवस्य) दाता, प्रकाशमान और प्रकाशक उस परमात्मा के (भर्गः) तेज को, हम (धीमहि) धारण करें वा ध्यावें। ३. (यः) जो सविता प्रभु (नः) हमारे (धियः) प्रज्ञाओं और कर्मों को (प्रचोदयात्) सन्मार्ग पर प्रेरित करे ॥१॥

    भावार्थ

    सकल जगत् के स्रष्टा, सूर्य के समान सबके अन्तः करण को प्रकाशित करनेवाले, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर के तेजों के ध्यान और धारण करने से वह उपासक की बुद्धियों और क्रियाओं को सन्मार्ग में प्रेरित करके उसे सुखी करता है ॥१॥

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    पदार्थ

    (देवस्य सवितुः) द्योतमान तथा प्रेरक११ ब्रह्मात्मा१२ महान् आत्मा परमात्मा के (तत्-वरेण्यं भर्गः) उस वरणीय—वरने योग्य तेज—ज्ञानमय तेज स्वरूप को (धीमहि) हम ध्यावें—धारण करें यह आकांक्षा है (यः-नः-धियः प्रचोदयात्) जो प्रेरक परमात्मा हमारे मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार१ चारों को अपनी ओर प्रेरित करे, हमारा मन उसका मनन करे, बुद्धि उसका विवेचन करे, चित्त उसका स्मरण करे, अहंकार उसका ममत्व करे—उसे अपनावे॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—गाथिनो विश्वामित्रः (स्तुतिवाणी९ से प्रपूर्ण आचार्य से सम्बद्ध सर्वमित्र१० उपासक)॥ देवता—सविता (प्रेरक परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    सविता देव

    पदार्थ

    यह मन्त्र गायत्री छन्द में होने से गायत्री नाम से प्रसिद्ध है। मनु ने इसे वेदों का सार माना है। इसकी भावना निम्न है – हम (सवितुः) = सम्पूर्ण जगत् के उत्पादक, सकलैश्वर्यमय (देवस्य) = ज्ञान से दीप्त—दिव्य गुणविशिष्ट प्रभु के (तत्) = उस (वरेण्यम्) = वरणीय (भर्गः) = तेज का जो सम्पूर्ण दोषों को भून डालने में समर्थ है (धीमहि) = ध्यान करते हैं और धारण करते हैं । (य:) = जो तेज का धारण व ध्यान [व्यत्ययेन पुल्लिंग है] (नः) = हमारी (धियः) = बुद्धियों व कर्मों को (प्रचोदयात्) = प्रकृष्ट प्रेरणा प्राप्त कराता है।

    संसार में मनुष्य का सर्वमहान् लक्ष्य ‘प्रभु के तेज से अपने को तेजस्वी बनाना ही होना चाहिए। अन्य वस्तुओं की तुलना में वही तेज वरणीय है। यह हमारे ज्ञानों व कर्मों को सदा सत्प्रेरणा प्राप्त कराकर पवित्र बनाता है । इस प्रकार हम सब मलों का इस भर्ग में भर्जन कर डालते हैं और रागद्वेषादि मलों से ऊपर उठकर ‘विश्वामित्र' सभी के साथ स्नेह करनेवाले होते हैं। हम प्रेम से चलते हैं और प्रभु का गायन करते हैं—‘गाथिन' बनते हैं। ‘विश्वामित्र गाथिन' ही इस मन्त्र का ऋषि है । यह मन्त्र वेदों का सार है, अत: वेदों का निचोड़ यही तो हुआ कि 'प्रभु का स्मरण करो और सभी के साथ स्नेह से चलो'।

    भावार्थ

    हम वेद के इस उपदेश को न भूलें कि 'हे जीव ! तूने प्रभु के तेज से अपने को तेजस्वी बनाना है – तूने भी सविता देव' का अंश [miniature] बनना है।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    यही मन्त्र ब्रह्मगायत्री, गुरुमन्त्र, वेदमाता सावित्री आदि नामों से कहा जाता है। (तत्) उस (सवितुः) सर्व जगत के प्रेरक, उत्पादक (देवस्य) स्वतः प्रकाशमान, सब के प्रकाशक सबसुखों के दाता परमेश्वर के (वरेण्यं) सर्वोत्कृष्ट, वरण करने योग्य अनुपम, (भर्गः) अविद्या, अज्ञान, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि अज्ञान से पैदा होने हारे तामस अंकुरों को अग्नि और सूर्य के प्रखर तेज के समान भस्म कर डालने हारे तेज का हम (धीमहि*) ध्यान करें, धारण करें (यः) जो परमेश्वर (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों और कर्मवृत्तियों को (प्रचोदयात्) उत्तम सन्मार्ग में प्रेरित करता है। गोपथ ब्राह्मण में गायत्री मन्त्र एक मनन करने योग्य व्याख्या इस प्रकार की है। “वेदाश्छन्दांसि सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य कवयोऽन्नमाहुः। कर्माणि धियस्तदु ते ब्रवीमि प्रचोदयात् सविता याभिरेति॥” उस उत्पादक परमात्म देव का परम वरणीय भर्गरूप तेज ‘वेद’ ‘छन्द’ है जिसको कवि विद्वान् लोग ‘अन्न’ कहते हैं। और ‘धियः’ का तात्पर्य ‘कर्म’ है, हे शिष्य ! यही मैं, तुझको उपदेश करता हूं कि उन कर्मों द्वारा ही परमात्मा सबको प्रेरित करता है।

    टिप्पणी

    *धीमहि व्यायामः धारयेम इति सायणः। आद्यं रूपं ध्यापतेः परंच दिवादेर्धीङ् आधार इत्यस्य ज्ञेयन्। **इस गायत्री मन्त्र का का पं० डब्ल्यू० जोन्स का किया निम्नलिखित अनुवाद बड़े महत्व का है— “हम (तत्) उस (देवस्य सवितुः) देव सविता परमात्मा के (भर्गः) उत्तम तेज की (धीमहि) उपासना करते हैं जो (देवः) सब को प्रकाशित करता है, जो (सविता) सब को उत्पन्न करता है और जिससे सब उत्पन्न होते हैं, और जिसमें (भर्गः) सब लीन होजाते हैं, उसी को हम (नः धियः) अपनी बुद्धियों को (वरेण्यं) परमपद के प्राप्त करने के लिये (प्रचोदयात्) प्रेरणा करने की प्रार्थना करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादौ सवितुः परमेश्वरस्योपासनाविषयमाह।

    पदार्थः

    अत्र त्रयः पादाः। त्रिभ्य एव तु वेदेभ्यः पादं पादमदूदुहत् (मनु० २।७७) इति मनूक्तदिशा प्रतिपादं पृथगर्थोऽध्यवसेयः। (सवितुः) सर्वजगदुत्पादकस्य, सर्वशुभगुणप्रेरकस्य परमात्मनः (तत्) प्रसिद्धं ज्योतिः (वरेण्यम्) वरणीयं वर्तते इति शेषः ॥ (देवस्य) दातुः प्रकाशमानस्य प्रकाशयितुश्च तस्य परमात्मनः (भर्गः) तेजः, वयम् (धीमहि) दधीमहि ध्यायेम वा ॥ (यः) सविता देवः परमेश्वरः (नः) अस्माकम् (धियः) प्रज्ञाः कर्माणि च (प्रचोदयात्) सन्मार्गे प्रेरयेत् ॥१॥२ [(सवितुः) यः सर्वं जगत् सवति सूते वा, सर्वाणि शुभगुणकर्माणि सुवति च स सविता, तस्य। षु प्रसवैश्यर्ययोः भ्वादिः, षूङ् प्राणिगर्भविमोचने अदादिः, षू प्रेरणे तुदादिः। (वरेण्यम्) वृञ् वरणे धातोः ‘वृञ एण्यः’ उ० ३।९८ इति एण्यप्रत्ययः। (देवस्य) देवो दानाद् वा दीपनाद् वा द्योतनाद् वा। निरु० ७।१५। (भर्गः३) भृजी भर्जने। ‘अञ्च्यञ्जियुजिभृजिभ्यः कुश्च।’ उ० ४।२।१७ इत्यसुन् प्रत्ययः धातोर्जकारस्य कुत्वं च। (धीमहि४) अत्र डुधाञ् धातोर्लिङि ‘छन्दस्युभयथा’ अ० ३।४।११७ इत्यार्धधातुकत्वात् शप् न आकारस्य ईत्वं च। (धियः५) धीः इति कर्मनाम प्रज्ञानाम च। निघं० २।१, ३।९। (प्रचोदयात्) प्र पूर्वः चुद प्रेरणे, लेटि ‘लेटोऽडाटौ’ अ० ३।४।९४ इत्याडागमः। ‘इतश्च लोपः परस्मैपदेषु’ अ० ३।४।९७ इति तिपः इकारस्य लोपः।]

    भावार्थः

    सर्वजगत्स्रष्टुः सूर्यस्येव सर्वान्तःकरणप्रकाशकस्य सर्वान्तर्यामिनः परमेश्वरस्य तेजसां ध्यानेन धारणेन च स उपासकस्य बुद्धीः कर्माणि च सन्मार्गे प्रेरयित्वा तं सुखयति ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let us attain to the adorable glory of that Divine God, the Creator of the universe. May He direct our understandings alright.

    Translator Comment

    This verse is the Gayatri par excellence, the most celebrated verse of the Vedas which forms part of the daily devotion of the Aryas. This verse occurs thrice in the Yajurveda, twice in the Rigveda, and once in the Samaveda. The well-known Vedic Scholar Satyavrat Samashrami believes that this verse along with the next, two verses, all three constitute one Sukta, whereas Sayana and some other commentators differ from him.

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    Meaning

    We concentrate and meditate on the radiant glory of self-refulgent lord Savita, lord giver of light and life, who may, we pray, inspire and energise our mind and intelligence. That glory alone is worthy of choice and meditation. (Rg. 3-62-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (देवस्य सवितुः) પ્રકાશમાન તથા પ્રેરક બ્રહ્માત્મા મહાન આત્મા પરમાત્માનું (तत् वरेण्यं भर्गः) તે વરણીય-વરણ કરવા યોગ્ય તેજ-જ્ઞાનમય તેજ સ્વરૂપને (धीमहि) અમે ધ્યાન-ધારણ કરીએ એ આકાંક્ષા છે. (यः नः धियः प्रचोदयात्) જે પ્રેરક પરમાત્મા અમારા મન, બુદ્ધિ, ચિત્ત, અહંકાર એ ચારેયને પોતાની તરફ પ્રેરિત કરે, અમારું મન તેનું મનન કરે, બુદ્ધિ તેનું વિવેચન કરે, ચિત્ત તેનું સ્મરણ કરે અને અહંકાર તેનું મમત્વ કરે-તેને અપનાવે. (૧)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सकल जगाचा स्रष्टा, सूर्याप्रमाणे सर्वांच्या अंत:करणाला प्रकाशित करणारा, सर्वांतर्यामी परमेश्वराच्या तेजाचे ध्यान व धारण करण्याने तो उपासकाच्या बुद्धी व क्रियांना सन्मार्गात प्रेरित करून त्याला सुखी करतो. ॥१॥

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