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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1466
ऋषिः - यजत आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
21
ऋ꣣त꣢मृ꣣ते꣢न꣣ स꣡प꣢न्तेषि꣣रं꣡ दक्ष꣢꣯माशाते । अ꣣द्रु꣡हा꣢ दे꣣वौ꣡ व꣢र्धेते ॥१४६६॥
स्वर सहित पद पाठऋ꣣त꣢म् । ऋ꣣ते꣡न꣢ । स꣡प꣢꣯न्ता । इ꣣षिर꣢म् । द꣡क्ष꣢꣯म् । आ꣣शातेइ꣡ति꣢ । अ꣣द्रु꣡हा꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हा꣢꣯ । दे꣣वौ꣢ । व꣣र्धेतेइ꣡ति꣢ ॥१४६६॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतमृतेन सपन्तेषिरं दक्षमाशाते । अद्रुहा देवौ वर्धेते ॥१४६६॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋतम् । ऋतेन । सपन्ता । इषिरम् । दक्षम् । आशातेइति । अद्रुहा । अ । द्रुहा । देवौ । वर्धेतेइति ॥१४६६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1466
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः ब्राह्मण-क्षत्रिय का विषय वर्णित है।
पदार्थ
ये मित्र-वरुण अर्थात् ब्राह्मण-क्षत्रिय (ऋतम्) राष्ट्र-यज्ञ की (ऋतेन) सत्य ब्रह्मबल वा सत्य क्षात्रबल से (सपन्ता) सेवा करते हुए (इषिरम्) प्रेरक (दक्षम्) उत्साह को (आशाते)प्राप्त करते हैं। (अद्रुहा) आपस में द्रोह न करनेवाले (देवौ) ब्रह्मवर्चस वा क्षात्र तेज से प्रकाशमान, दानादि गुणों से युक्त ये (वर्धेते) वृद्धि प्राप्त करते हैं ॥२॥
भावार्थ
आपस में द्रोह न करते हुए, अपितु सहयोग करते हुए ब्राह्मण और क्षत्रिय ब्रह्मबल और क्षात्रबल का उपयोग करके स्वयं बढ़ते हुए राष्ट्र को भी बढ़ाते हैं ॥२॥
पदार्थ
(ऋतम्) अमृत—न मरने वाले उपासक आत्मा को (ऋतेन) अमृतरूप मोक्ष के साथ३ (सपन्ता) समवेत करता हुआ४ ‘मित्र’ संसार में कर्मभोग के लिये प्रेरक, ‘वरुण’ अपनी ओर अपवर्ग—मोक्षार्थ वरने वाला परमात्मा (इषिरं दक्षम्) एषणीय भोग को और समृद्ध सुख या प्रज्ञान—प्रकृष्ट ज्ञान—अनुभूत होने वाले मोक्ष को५ (आशाते) प्राप्त कराता है (देवौ-अद्रुहा वर्धेते) दोनों धर्मों वाला परमात्मा द्रोहरहित आपतु उपासक आत्मा को बढ़ाता है—उन्नत करता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
ऋत का ऋत में मिल जाना
पदार्थ
पिछले मन्त्र के वर्णन के अनुसार- जब जीव 'विशाल हृदय, दीप्त मस्तिष्क व सबल शरीरवाला बनता है तब उसका यह जीवन ऋतमय होता है। इसका नाम 'ऋत' हो जाता है। अब यह प्रभुप्राप्ति की प्रबल कामनावाला होता है, अत: 'इषिर' कहलाता है, और अनासक्तिपूर्वक कुशलता से कर्म करने के कारण 'दक्ष' विशेषणवाला होता है। प्राण- अपान इस (इषिरम्) = प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनावाले, (दक्षम्) = अनासक्तिपूर्वक कुशलता से कर्म करनेवाले, (ऋतम्) = ऋतमय जीवनवाले ‘यजत आत्रेय' को (ऋतेन) = उस पूर्ण सत्य प्रभु से (सपन्ता) = मिलाते हुए (आशाते) = इसके जीवन में समन्तात् व्याप्त होते हैं । (अद्रुहा) = किसी भी प्रकार से इस 'यजत' की जिघांसा - विनाश की इच्छा न करते हुए (देवौ) = दिव्य गुणोंवाले ये प्राणापान (वर्धेते) = इसके जीवन में बढ़ते हैं। प्राणापान की वृद्धि से 'यजत' की सर्वांगीण वृद्धि होती है । 'शरीर स्वस्थ होता है - हृदय विशाल बनता है और मस्तिष्क दीप्त । ' प्राणापान की साधना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि हमारा जीवन ऋतमय होकर हम ‘ऋत' बनते हैं और उस पूर्ण ऋत प्रभु से हमारा मेल होता है ।
भावार्थ
प्राणापान की साधना से हम 'ऋतमय' जीवनवाले बनें और पूर्ण ऋत प्रभु को प्राप्त करें ।
विषय
missing
भावार्थ
राजा मन्त्री, जीवात्मा मन, परमात्मा जीवात्मा, प्राणापान, सूर्यवायु, यजमान, अध्वर्यु, सूर्य, पृथिवी, गुरु शिष्य आदि का वर्णन है। वे दोनों मित्र और वरुण (अद्रुहौ) परस्पर द्रोह न करते हुए (देवौ) प्रकाशमान ज्ञान से स्वयं प्रकाशित होने, एवं दूसरे को भी प्रकाशित करने हारे, या परस्पर एक दूसरे के आकांक्षी (ऋतं) सत्यज्ञान को (ऋतेन) वेद ज्ञान से (सपन्ता) प्राप्त करते हुए (इषिरं) सबके प्रेरक (दक्षं) बल को (आशाते) प्राप्त कर लेते हैं। अध्यात्म पक्ष में—“(ऋत) सत्य ज्ञान को (ऋतेन) ब्रह्म से...” प्राणापान पक्ष में—“(ऋतं) आत्मा को (ऋतेन) तप से इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि ब्राह्मणक्षत्रियविषयमाह।
पदार्थः
इमौ मित्रावरुणौ ब्राह्मणक्षत्रियौ (ऋतम्) राष्ट्रयज्ञम्। [ऋतस्य योगे यज्ञस्य योगे इति यास्कः। निरु० ६।२२।] (ऋतेन) सत्येन ब्रह्मबलेन क्षात्रबलेन च (सपन्ता) सपन्तौ परिचरन्तौ। [सपतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५।] (इषिरम्) प्रेरकम् (दक्षम्) उत्साहम् (आशाते) व्याप्नुतः। [इषिरम्—इष गतौ दिवादिः। ‘इषिमदि०’ उ० १।५१ इत्यनेन किरच् प्रत्ययः। दक्षम् दक्षतिरुत्साहकर्मा। निरु० १।६।] (अद्रुहा) अद्रुहौ परस्परम् अद्रोग्धारौ, (देवौ) ब्रह्मवर्चसेन क्षात्रेण च तेजसा प्रकाशमानौ दानादिगुणयुक्तौ इमौ (वर्धेते) वृद्धिं प्राप्नुतः ॥२॥२
भावार्थः
परस्परं द्रोहमकुर्वाणौ प्रत्युत सहयोगं कुर्वन्तौ ब्राह्मणक्षत्रियौ ब्रह्मबलं क्षात्रबलं चोपयुज्य स्वयं वर्धमानौ राष्ट्रमपि वर्धयेते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Learning truthful knowledge from the Vedas, both the teacher and the pupil, devoid of guile, acquire desired vigorous might and wax strong.
Translator Comment
Mitra and Varuna refer to the preceptor and the disciple.
Meaning
They live, serve, strive and search for the realisation of Rtam, eternal and universal values of Truth and Dharma, by their earnest pursuit of truth and Dharma in life and conduct, Rtam, and thus, free from hate, jealousy and violence, achieve the strength and excellence they long for and rise, shining in merit as leading lights of humanity. (Rg. 5-68-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ऋतम्) અમૃત-ન મરનાર ઉપાસક આત્માને (ऋतेन) અમૃતરૂપ મોક્ષની સાથે (सपन्ता) સમવેત કરીને ‘મિત્ર’ સંસારમાં કર્મભોગને માટે પ્રેરક, ‘વરુણ’ પોતાની તરફ અપવર્ગ મોક્ષ માટે વરણ કરવા યોગ્ય પરમાત્મા (इषिरं दक्षम्) એષણીય ભોગોને તથા સમૃદ્ધ સુખ અર્થાત્ પ્રજ્ઞાન-પ્રકૃષ્ટજ્ઞાન-અનુભૂત થનાર મોક્ષને (आशाते) પ્રાપ્ત કરાવે છે. (देवौ अद्रुहा वर्धेते) બન્ને ધર્મોવાળા પરમાત્મા દ્રોહરહિત પરંતુ ઉપાસક આત્માની વૃદ્ધિ કરે છે-ઉન્નત કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
आपापसात वैर न करता सहयोगाने ब्राह्मण व क्षत्रिय, ब्रह्मबल व क्षात्रबलाचा उपयोग करून स्वत: वर्धित होऊन राष्ट्रालाही वर्धित करतात. स्वत: उन्नत होऊन राष्ट्रालाही उन्नत करतात. ॥२॥
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