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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1465
ऋषिः - यजत आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
27
ता꣡ नः꣢ शक्तं꣣ पा꣡र्थि꣢वस्य म꣣हो꣢ रा꣣यो꣢ दि꣣व्य꣡स्य꣢ । म꣡हि꣢ वां क्ष꣣त्रं꣢ दे꣣वे꣡षु꣢ ॥१४६५॥
स्वर सहित पद पाठता꣢ । नः꣣ । शक्तम् । पा꣡र्थि꣢꣯वस्य । म꣣हः꣢ । रा꣣यः꣢ । दि꣣व्य꣡स्य꣢ । म꣡हि꣢꣯ । वा꣣म् । क्षत्र꣢म् । दे꣣वे꣡षु꣢ ॥१४६५॥
स्वर रहित मन्त्र
ता नः शक्तं पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य । महि वां क्षत्रं देवेषु ॥१४६५॥
स्वर रहित पद पाठ
ता । नः । शक्तम् । पार्थिवस्य । महः । रायः । दिव्यस्य । महि । वाम् । क्षत्रम् । देवेषु ॥१४६५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1465
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा उत्तरार्चिक में ११४५ क्रमाङ्क पर परमात्मा और जीवात्मा के विषय में व्याख्यात की जा चुकी है। यहाँ ब्राह्मण और क्षत्रिय से प्रार्थना करते हैं।
पदार्थ
हे मित्र-वरुणो अर्थात् ब्राह्मण-क्षत्रियो ! (ता) वे तुम दोनों (नः) हमें (पार्थिवस्य) भौतिक और (दिव्यस्य) आध्यात्मिक (महः) महान् (रायः) ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए (शक्तम्) समर्थ बनाओ। (देवेषु) विद्वानों में (वाम्) तुम दोनों का (महि) महान् (क्षत्रम्) शत्रुजन्य प्रहार से वा अविद्या दुर्व्यसन आदि दोष से त्राण करने का सामर्थ्य है ॥१॥
भावार्थ
जहाँ ब्राह्मण और क्षत्रिय मिलकर श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ धर्म आदि के प्रदान द्वारा और शत्रुओं से रक्षा द्वारा उपकारक होते हैं, वह राष्ट्र अत्यधिक उन्नत हो जाता है ॥१॥
टिप्पणी
(देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ११४५)
विशेष
ऋषिः—आत्रेयो यजतः (अत्र—इसी जीवन में तृतीय—मोक्षधाम का ज्ञान प्राप्तकर्ता से सम्बद्ध अध्यात्मयज्ञ का याजक)॥ देवता—मित्रावरुणौ (प्रेरक तथा वरणकर्ता परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
विषय
मित्रावरुण की तीन कृपाएँ
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘यजतः '=सदा यज्ञ करनेवाला है – यज्ञमय जीवन बितानेवाला 'आत्रेय': काम, क्रोध और लोभ से ऊपर उठा हुआ पुरुष है । यह मित्रावरुण= प्राणापान की साधना करता हुआ उनसे कहता है कि हे प्राणापानो ! १. (ता) = वे आप दोनों (नः) = हमें (पार्थिवस्य महः) = [पृथिवी= अन्तरिक्ष] हृदयान्तरिक्ष की विशालता देने में (शक्तम्) = समर्थ हैं । यहाँ अन्तरिक्ष के लिए पृथिवी शब्द का प्रयोग भावपूर्ण है, क्योंकि प्रथ-विस्तारे से बनकर वह विशालता का संकेत कर रहा है। हृदय तो वही ठीक है जो विशाल है – संकुचित हृदय 'हृदय' कहलाने के योग्य नहीं। उसमें सब प्रकार की मलिनताओं का वास होता है ।
२. हे प्राणापानो! आप हमें (दिव्यस्य राय:) = द्युलोक की सम्पत्ति भी प्राप्त कराने में समर्थ हैं। प्राणापान की साधना से रेतस् की ऊर्ध्वगति होकर वह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, और ज्ञानाग्नि को दीप्त करके ये प्राणापान हमें दिव्य ज्ञान की सम्पत् प्राप्त कराते हैं।
३. हे प्राणापानो! आपकी कृपा से (देवेषु) = इस दिव्य सम्पत्ति को प्राप्त देवों में (वाम्) = आपका (महि क्षत्रम्) = महान् बल निवास करता है, जो उन्हें [क्षतात् त्रायते] सब प्रकार के क्षतों से बचाता है।
भावार्थ
प्राणापान की साधना के तीन परिणाम हैं- १. हृदय की विशालता, २. मस्तिष्क में ज्ञान की दीप्ति तथा ३. शरीर में वह शक्ति जो सब प्रकार से नीरोग रखती है ।
विषय
missing
भावार्थ
व्याख्या देखो अविकल सं० [११४३] पृ० ५९७।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋगुत्तरार्चिके ११४५ क्रमाङ्के परमात्मजीवात्मविषये व्याख्याता। अत्र ब्राह्मणक्षत्रियौ प्रार्थ्येते।
पदार्थः
हे मित्रावरुणौ ब्राह्मणक्षत्रियौ ! (ता) तौ युवाम् (नः) अस्मान्(पार्थिवस्य) भौतिकस्य (दिव्यस्य) आध्यात्मिकस्य च (महः) महतः (रायः) ऐश्वर्यस्य प्राप्तये (शक्तम्) समर्थं कुरुतम्। [अत्र छान्दसो विकरणस्य लुक्।] (देवेषु) विद्वत्सु (वाम्) युवयोः (महि) महत् (क्षत्रम्) क्षतात् शत्रुजन्यात् प्रहाराद् अविद्यादुर्व्यसनादिदोषाद् वा त्राणसामर्थ्यम् विद्यते इति शेषः ॥१॥२
भावार्थः
यत्र ब्राह्मणक्षत्रियौ समन्वितौ भूत्वा सद्विद्यासद्धर्मादिप्रदानेन शत्रुभ्यो रक्षणेन चोपकुरुतस्तद् राष्ट्रमत्युन्नतं जायते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May they help us to great earthly and heavenly wealth. Great is their sway over other organs of senses.
Translator Comment
They' refers to Mitra and Varuna, i.e , Prana and Apana.
Meaning
Great is your power and potential for us over the wealth and excellence of heavenly and earthly values, culture and conduct and behaviour. Great is your rule and order over the divinities of nature and humanity. (Rg. 5-68-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ता) તે અભ્યુદયના પ્રેરક મોક્ષ માટે પોતાની તરફ વરણીય પરમાત્મા (नः) અમારે-ઉપાસકોને માટે (पार्थिवस्य महः रायः) પૃથિવી સંબંધી મહાન પોષ અભ્યુદય સાધનના (दिव्यस्य) મોક્ષધામ સંબંધી મહાન આનંદધન નિઃશ્રેયસ-મોક્ષ રૂપના પ્રદાન કરવામાં (शक्तम्) સમર્થ છે. (वाम्) તમારું (क्षत्रं देवेषु महि) એ ધનદાન અથવા બળ મુમુક્ષુ ઉપાસકોમાં મહનીય-પ્રશંસનીય છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
जेथे ब्राह्मण व क्षत्रिय मिळून श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ धर्म इत्यादी प्रदान करून शत्रूपासून रक्षण करून उपकार करतात, ते राष्ट्र अत्यंत उन्नत होते. ॥१॥
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