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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1485
ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
17
त्वे꣢꣫ क्रतु꣣म꣡पि꣢ वृञ्जन्ति꣣ वि꣢श्वे꣣ द्वि꣢꣫र्यदे꣣ते꣢꣫ त्रिर्भव꣣न्त्यू꣡माः꣢ । स्वा꣣दोः꣡ स्वादी꣢꣯यः स्वा꣣दु꣡ना꣢ सृजा꣣ स꣢म꣣दः꣢꣫ सु मधु꣣ म꣡धु꣢ना꣣भि꣡ यो꣢धीः ॥१४८५॥
स्वर सहित पद पाठत्वे꣡इति꣢ । क्र꣡तु꣢꣯म् । अ꣡पि꣢꣯ । वृ꣣ञ्जन्ति । वि꣡श्वे꣢꣯ । द्विः । यत् । ए꣣ते꣢ । त्रिः । भ꣡व꣢꣯न्ति । ऊ꣡माः꣢꣯ । स्वा꣣दोः꣢ । स्वा꣡दी꣢꣯यः । स्वा꣣दु꣡ना꣢ । सृ꣣ज । स꣢म् । अ꣣दः꣢ । सु । म꣡धु꣢꣯ । म꣡धु꣢꣯ना । अ꣣भि꣢ । यो꣣धीः ॥१४८५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे क्रतुमपि वृञ्जन्ति विश्वे द्विर्यदेते त्रिर्भवन्त्यूमाः । स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधीः ॥१४८५॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वेइति । क्रतुम् । अपि । वृञ्जन्ति । विश्वे । द्विः । यत् । एते । त्रिः । भवन्ति । ऊमाः । स्वादोः । स्वादीयः । स्वादुना । सृज । सम् । अदः । सु । मधु । मधुना । अभि । योधीः ॥१४८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1485
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जगदीश्वर का प्रभाव वर्णन करते हुए उससे प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे इन्द्र जगदीश्वर ! (यत् एते) जो ये (ऊमाः) रक्षक माता, पिता, अतिथि, संन्यासी आदि लोग (द्विः) दो बार, या (त्रिः) तीन बार (भवन्ति) जन्म लेते हैं, वे (त्वे) आपमें ही (क्रतुम्) किये जाते हुए सब कर्म को (अपि वृञ्जन्ति) समर्पित करते हैं। आप (स्वादुना) मेरे स्वादु आनन्द के साथ (स्वादोः स्वादीयः) अपने स्वादुतर आनन्द को (संसृज) मिला दो। (अदः) इस (सुमधु) अति मधुर अपने रस को (मधुना) मेरे मधुर जीवन के साथ (अभियोधीः) मिला दो ॥३॥ यहाँ स्वादोः, स्वादीय, स्वादु में वृत्त्यनुप्रास है, द, स और ध की आवृत्ति में भी वही अनुप्रास है। ‘मधु, मधु’ में छेकानुप्रास है ॥३॥
भावार्थ
एक जन्म माता-पिता से और दूसरा जन्म आचार्य से पाकर मनुष्य द्विज बनता है और जो गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके सन्तान उत्पन्न करता है, वह इसका तृतीय जन्म होता है, क्योंकि ‘पिता स्वयं पुत्र के रूप में जन्म लेता है’ (निरु० ३।४) यह शास्त्र का वचन है। जो भी द्विज या त्रिज महापुरुष होते हैं, वे परमात्मा में ही अपना सर्वस्व अर्पित कर देते हैं और परमात्मा उनके लिए अत्यन्त मधुर अपना आनन्द-रस बरसाता है ॥३॥
पदार्थ
(विश्वे-ऊमाः) हे परमात्मन्! सब तेरे द्वारा रक्षण पाए हुए मुमुक्षु उपासक (क्रतुं त्वे वृञ्जन्ति) कर्म या प्रज्ञान को तेरे अन्दर लीन कर देते हैं—त्याग देते हैं—निष्काम बन जाते हैं (यत्-एते द्विः-त्रिः-अपि भवन्ति) चाहे वे एकाश्रमी—ब्रह्मचारी हों या उससे द्वितीयाश्रमी—गृहस्थ भी हो या तृतीयाश्रमी—वानप्रस्थ भी हो, क्योंकि तू (स्वादोः स्वादीयः) अपने स्वादुस्वरूप से संयुक्त करा (अदः-मधु) उस अपने मधुस्वरूप को (मधुना सु-अभि योधीः) मुझ उपासक आत्मा१३ के साथ भली प्रकार सङ्गत कर मिला दे१४॥३॥
विशेष
<br>
विषय
प्रभु-स्मरण और पवित्रता
पदार्थ
जिन व्यक्तियों का जीवन सदा अपने को शत्रुओं से सुरक्षित रखने की प्रवृत्तिवाला होता है वे (ऊमाः) = आत्मरक्षक कहलाते हैं । (यत् एते) = जब ये लोग (द्विः भवन्ति) = दो [double] हो जाते हैं, अर्थात् गृहस्थ में प्रवेश करके 'पति-पत्नी' रूप से एक से दो हो जाते हैं और सन्तानोत्पत्ति के अनन्तर (त्रिः भवन्ति) = तीन हो जाते हैं, तब ये (विश्वे ऊमा:) = सब आत्मरक्षक लोग (त्वे) = आपमें (क्रतुम्) = अपने सङ्कल्प को (अपिवृञ्जन्ति) = पवित्र [purify] करते हैं, अर्थात् आपका ध्यान करते हुए अपने जीवन को अपवित्र नहीं होने देते । गृहस्थाश्रम का नाम 'मलाश्रम' भी है – इसमें मल लिप्त हो जाने की सदा ही आशंका बनी रहती है । प्रभु का स्मरण ही अपवित्रता से बचानेवाला है।
ऐसे सद्गृहस्थ सदा इस प्रकार प्रभु की आराधना करते हैं कि - हे प्रभो ! आप ही (स्वादोः स्वादीयः) = संसार की मधुर वस्तुओं से भी कहीं अधिक मधुर हैं । आप 'रस' ही हैं, आपकी प्राप्ति के रस के सामने सब सांसारिक विषयों के रस फीके हो जाते हैं। आप हमें (स्वादुना) = अपने रसमयरूप से (सृज) = संसृष्ट – संयुक्त कीजिए। आपकी उपासना से हम आपके 'अवर्णनीय' 'आनन्दरस' का अनुभव करें।
हे (समदः) = सदा शाश्वत उल्लास के साथ रहनेवाले प्रभो ! (सुमधु) = उत्तम रसरूप प्रभो ! (मधुना) = बड़े माधुर्य के साथ आप हमें कुटिलताओं व पापों के साथ (अभियोधी:) = युद्ध कराइए । हम सदा बुराई के साथ संघर्ष करनेवाले हों, परन्तु कभी भी हमारे हृदयों में किसी के प्रति कटुता की भावना उत्पन्न न हो । हम श्रेय का अनुशासन-कल्याण का उपदेश अहिंसा व माधुर्य के साथ ही करें और धर्म को चाहते हुए हम मधुर व श्लक्षण वाणी का ही प्रयोग करें ।
भावार्थ
प्रभु रसमय हैं – स्वादु से भी स्वादु - मधुमय हैं, उनका उपासक भी मधुर ही होता है । शत्रुओं का शातन करते हुए भी वह माधुर्य को खोता नहीं ।
विषय
missing
भावार्थ
(त्वे) तुझमें (अपि) ही (विश्वे एते ऊमाः) समस्त ये भूत, प्राणीगण (यद्) जब (द्विः) एक से दो और (त्रिः) दो से तीन होजाते हैं तब भी वे (ऋतुं) अपने उत्तम प्रज्ञान को (वृञ्जन्ति) तुझ पर ही व्यय कर देते हैं अर्थात् समस्त पृथिव्यादि भूत और सब प्राणियों के चित्त और सब यज्ञ क्रतु तुझ पर ही समाप्त होजाते है। हे इन्द्र ! (स्वादोः) आनन्द देने वाले प्रिय धनादि से भी (स्वादीयः) बहुत अधिक आनन्ददायक, प्रिय पदार्थ, पुत्र आदि को (स्वादुना) आनन्ददायी पति के प्रति पत्नी और पत्नी के प्रति पति के द्वारा (सृज) उत्पन्न कर और (अदः)उस (मधु) अति आनन्ददायी सन्तान को भी (सुमुधुना) उत्तम प्रिय पदार्थ पुत्रवधू एवं पौत्र आदि से (अभियोधीः) आनन्द प्रसन्न कर। जैसा ब्राह्मण ग्रन्थों में आया है “त्वयि इमानि सर्वाणि भूतानि मनांसि क्रतवोऽपि वृंजन्ति।” तुझ में ही समस्त भूत, सब मन और सब यज्ञ आदि समाप्त होजाते हैं। पुरुष ही स्त्रीरूप से भी रहता है क्योंकि विवाह के पश्चात् स्त्री भी उसका आधा अङ्ग होजाती है। श्रुति भी है “अधो वा एष यत् पत्नीति” (शत०) और पुत्र भी उस पुरुष का ही तीसरा रूप है जैसे वेद में—“आत्मा वै पुत्रनामासि” (शत०) दो से तीन होजाते है जैसे—“द्वौ द्वौ सन्तौ मिथुनौ प्रजायेते प्रजापत्या”। “पुत्रो ह स्वादु” पत्नी के प्रति पति और पति के प्रति पत्नी ही स्वादु है जैसे—“मिथुनं वै स्वादु, प्रजाः स्वादु” इत्यादि (शत०)। अध्यात्म पक्ष में—स्वादु=देहादि संघात से प्राप्तव्य सुखोपभोग। उससे भी अति आनन्ददायक स्वादीयः=ब्रह्मानन्दरस को स्वादुना=प्रिय रूप आत्मा से (सं सृज) संगत कर। (अदः सुमधु) अति मधुर इस अमृत आत्मा को (मधुना) उस परम अमृत, आत्मा या परमेश्वरदर्शन या मोक्ष से मिला, आनन्दित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ कविर्भार्गवः। २, ९, १६ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ३ असितः काश्यपो देवलो वा। ४ सुकक्षः। ५ विभ्राट् सौर्यः। ६, ८ वसिष्ठः। ७ भर्गः प्रागाथः १०, १७ विश्वामित्रः। ११ मेधातिथिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ यजत आत्रेयः॥ १४ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। १५ उशनाः। १८ हर्यत प्रागाथः। १० बृहद्दिव आथर्वणः। २० गृत्समदः॥ देवता—१, ३, १५ पवमानः सोमः। २, ४, ६, ७, १४, १९, २० इन्द्रः। ५ सूर्यः। ८ सरस्वान् सरस्वती। १० सविता। ११ ब्रह्मणस्पतिः। १२, १६, १७ अग्निः। १३ मित्रावरुणौ। १८ अग्निर्हवींषि वा॥ छन्दः—१, ३,४, ८, १०–१४, १७, १८। २ बृहती चरमस्य, अनुष्टुप शेषः। ५ जगती। ६, ७ प्रागाथम्। १५, १९ त्रिष्टुप्। १६ वर्धमाना पूर्वस्य, गायत्री उत्तरयोः। १० अष्टिः पूर्वस्य, अतिशक्वरी उत्तरयोः॥ स्वरः—१, ३, ४, ८, ९, १०-१४, १६-१८ षड्जः। २ मध्यमः, चरमस्य गान्धारः। ५ निषादः। ६, ७ मध्यमः। १५, १९ धैवतः। २० मध्यमः पूर्वस्य, पञ्चम उत्तरयोः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जगदीश्वरस्य प्रभाववर्णनपूर्वकं स प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे इन्द्र जगदीश्वर ! (यत् एते) यद् इमे (ऊमाः) रक्षकाः मातापित्रातिथिसंन्यासिप्रभृतयो जनाः (द्विः) द्विवारम् (त्रिः) त्रिवारं वा (भवन्ति) जन्म गृह्णन्ति, ते (त्वे) त्वयि एव (क्रतुम्) क्रियमाणं सर्वमपि कर्म (अपि वृञ्जन्ति) समर्पयन्ति। त्वम् (स्वादुना) मधुरेण मदीयेन आनन्देन साकम् (स्वादोः स्वादीयः) स्वकीयं मधुरान्मधुरतरम् आनन्दम् (सं सृज) संमेलय। (अदः) इदम् (सुमधु) अतिशयेन मधुरं स्वकीयं रसम् (मधुना) मम मधुरेण जीवननेन (अभियोधीः) संघट्टय, संमेलय इत्यर्थः ॥३॥ अत्र स्वादोः, स्वादीयः, स्वादु इति वृत्त्यनुप्रासः, दकारसकारधकाराणामावृत्तावपि स एव। ‘मधु, मधु’ इति च छेकानुप्रासः ॥३॥
भावार्थः
एकं जन्म मातापित्रोः सकाशात्, द्वितीयं जन्म चाचार्यस्य सकाशाद् गृहीत्वा मानवो द्विजो जायते, यच्च गृहस्थाश्रमं प्रविश्य सन्तानमुत्पादयति तदस्य तृतीयं जन्म ‘आत्मा वै पुत्र नामासि’। निरु० ३।४ इति स्मरणात्। येऽपि द्विजास्त्रिजा वा महापुरुषा भवन्ति ते परमात्मन्येव स्वकीयं सर्वस्वमर्पयन्ति, परमात्मा च तत्कृते मधुरमधुरं स्वकीयमानन्दरसं वर्षति ॥३॥
इंग्लिश (2)
Meaning
All these human beings concentrate on Thee, O God, their mental vigour, when they are doubled and trebled. Blend the bodily pleasure with the sweeter pleasure of Clod’s bliss. Blend that extremely sweet bliss of God with the sweet pleasure of salvation !
Meaning
And they all, celebrants of divinity, surrender all actions and prayers to you when they join in couples and grow to three in the family. O lord sweeter than sweetness itself, join the sweets of life with honey and with divine sweetness and bliss create life over flowing with love and ecstasy. (Rg. 10-120-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विश्वे ऊमाः) હે પરમાત્મન્ ! તારા દ્વારા સંપૂર્ણ રક્ષણ પ્રાપ્ત કરેલ મુમુક્ષુ ઉપાસક (क्रतुं त्वे वृञ्जन्ति) કર્મ અથવા પ્રજ્ઞાનને તારી અંદર લીન કરી દે છે.-ત્યાગ કરી દે છે-નિષ્કામ બની જાય છે. (यत् एते द्विः त्रिः अपि भवन्ति) ચાહે તે એકાશ્રમી-બ્રહ્મચારી હોય અથવા તેથી દ્વિતીયાશ્રમી-ગૃહસ્થી પણ હોય અથવા તૃતીયાશ્રમી-વાનપ્રસ્થી પણ હોય, કારણ કે તું (स्वादो स्वादीयः) પોતાનાં મધુર સ્વરૂપથી સંયુક્ત કરીને (अदः मधु) તે પોતાનાં મધુર સ્વરૂપને (मधुना सु अभि योधीः) મારી સાથે-ઉપાસક આત્માની સાથે સારી રીતે સંગત કરી મેળવી દે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
एक जन्म माता-पिता यांच्याकडून व दूसरा जन्म आचार्याकडून प्राप्त करून मनुष्य द्विज बनतो व जो गृहस्थाश्रमात प्रवेश करून संतान उत्पन्न करतो, तो त्याचा तृतीय जन्म असतो कारण पिता स्वत: पुत्राच्या रूपात जन्म घेतो. (निरुक्त ३।४) हे शास्त्र वचन आहे. जे द्विज किंवा त्रिज महापुरुष असतात. ते परमेश्वरातच आपले सर्वस्व अर्पण करतात व परमेश्वर त्यांच्यासाठी अत्यंत मधुर आपला आनंद-रस प्रवाहित करतो. ॥३॥
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