Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1501
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    49

    अ꣣हं꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ ज꣡न्म꣢ना꣣ गि꣡रः꣢ शुम्भामि कण्व꣣व꣢त् । ये꣢꣫नेन्द्रः꣣ शु꣢ष्म꣣मि꣢द्द꣣धे꣢ ॥१५०१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣ह꣢म् । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ना । गि꣡रः꣢꣯ । शु꣣म्भाभि । कण्वव꣢त् । ये꣡न꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । शु꣡ष्म꣢꣯म् । इत् । द꣣धे꣢ ॥१५०१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं प्रत्नेन जन्मना गिरः शुम्भामि कण्ववत् । येनेन्द्रः शुष्ममिद्दधे ॥१५०१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । प्रत्नेन । जन्मना । गिरः । शुम्भाभि । कण्ववत् । येन । इन्द्रः । शुष्मम् । इत् । दधे ॥१५०१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1501
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    (अहम्) मैं महत्वाकाङ्क्षी जन (प्रत्नेन जन्मना) आचार्य के पास से प्राप्त श्रेष्ठ जन्म से (कण्ववत्) मेधावी विद्वान् के समान (गिरः) अपनी वाणियों को (शुम्भामि) सत्य भाषण से अलङ्कृत करता हूँ, (येन) जिससे (इन्द्रः) मेरा जीवात्मा (शुष्मम् इत्) बल को ही (दधे) धारण करता है ॥२॥

    भावार्थ

    आचार्य और सावित्री के पास से द्वितीय जन्म ग्रहण कर, द्विज होकर जो मन, वाणी और कर्म से सत्य का ही अनुष्ठान करता है, वह पवित्र आत्मावाला और सबल आत्मावाला होकर सबसे सत्कार पाता है ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (अहम्) मैं उपासक वक्ता (प्रत्नेन जन्मना) पूर्व जन्म से ही (गिरः) स्तुति वाणियों को (कण्ववत्-शुम्भामि) वर्तमान स्तुतिकर्ताओं के१० समान बोल रहा हूँ११ (येन) जिससे कि (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (शुष्मम्-इत्-दधे) मेरे अन्दर पापशोषक आत्मबल१ को धारण करावे॥२॥

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अतिशैशव से ही वेदमन्त्रोचारण

    पदार्थ

    (अहम्) = मैं प्रत्ननेन (जन्मना) = पुराने जन्म से, अर्थात् from my early childhood=छुटपन से ही, बाल्यकाल से ही (गिरः) = इन वेदवाणियों को (कण्ववत्) = एक मेधावी पुरुष के समान, अर्थात् बड़े शुद्धरूप में उदाहरणार्थ 'मनसा रेजमाने' नकि 'मन - सारे जमाने' (शुम्भामि) = उच्चारण करता हूँ [शुंभ्=to speak]। वैदिक काल की परिपाटी यह थी कि एक बालक अत्यन्त शैशवकाल से ही वेदमन्त्रों का शुद्ध उच्चारण करने लगता था।

    इन वेदमन्त्रों के शैशव से ही उच्चारण का लाभ यह होता है कि व्यक्ति का चरित्र सुन्दर बना रहता है। 'मन्त्र - स्मरण-व्यसन' उसे अन्य व्यसनों से बचाये रखता है और इस प्रकार यह वेदमन्त्रोच्चारण ऐसा होता है कि (येन) = जिससे (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव (इत्) = निश्चय से (शुष्पम्) = बल को (दधे) = धारण करता है ।

    यह वेदमन्त्रों का उच्चारण करने से 'वत्स' कहलाता है [वदतीति] । इन वेदमन्त्रों के उच्चारण से यह प्रभु का प्रिय होने से भी 'वत्स' है ।

    भावार्थ

    हम शैशव से ही वेदमन्त्रों का शुद्ध उच्चारण प्रारम्भ करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    ऋषि का आत्मरूप से दर्शन है। मैं जीव (कराववत्) मेधावी विद्वान् पुरुष के समान (प्रत्नेन) अपने पूर्व के, सनातन (जन्मना) जन्म अर्थात् अपने स्वाभाविक रूप से ही (गिरः) नाना वेदस्तुति वाणियों को (शुम्भामि) प्रकट करता हूं। (येन) जिससे (इन्द्रः) मेरा आत्मा (शुष्मं) आत्मिक बल को (इत्) ही (दधे) धारण करता है।

    टिप्पणी

    ‘जग्रभ’।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः स एव विषयो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (अहम्) महत्त्वाकाङ्क्षी जनः (प्रत्नेन जन्मना) आचार्यसकाशात् प्राप्तेन श्रेष्ठेन जनुषा (कण्ववत्) मेधावी विद्वानिव (गिरः) स्वकीया वाचः (शुम्भामि२) सत्यभाषणेन अलङ्करोमि। [शुम्भ शोभार्थे, तुदादिः।] (येन) यस्मात् (इन्द्रः) मदीयो जीवात्मा (शुष्मम् इत्) बलमेव (दधे) धारयति ॥२॥

    भावार्थः

    आचार्यस्य सावित्र्याश्च सकाशाद् द्वितीयं जन्म गृहीत्वा द्विजः सन् यो मनसा वाचा कर्मण च सत्यमेवानुतिष्ठति स पवित्रात्मा सबलात्मा च सर्वैः सत्क्रियते ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    After the ancient manner, I, like a wise person adorn my Vedic speech, whereby the soul gains power.

    Translator Comment

    $ 'I' refers to soul. Griffith in the wake of Sayana translates कण्व (Kanva) as the name of a Rishi. The word means a wise person. As the Vedas are free from historical references, Griffith's explanation in unacceptable.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    With the realisation of ancient and eternal knowledge and all my thought and will I sanctify and adorn my words and voice in song like a wise sage, and, by that, Indra, lord of light and power, vests me with strength and excellence. (Rg. 8-6-11)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अहम्) હું ઉપાસક વક્તા (प्रत्नेन जन्मना) પૂર્વ જન્મથી જ (गिरः) સ્તુતિ વાણીઓને (कण्ववत् शुम्भानि) વર્તમાન સ્તુતિકર્તાઓની સમાન બોલી રહ્યો છું. (येन) જેથી (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (शुष्मम् इत् दधे) મારી અંદર પાપશોષક આત્મબળને ધારણ કરાવે. (૨)

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    आचार्य व सावित्रीपासून द्वितीय जन्म ग्रहण करून द्विज बनून जो मन, वाणी व कर्माने सत्याचे अनुष्ठान करतो तो पवित्र, सबल आत्मयुक्त बनून सर्वांकडून सत्कार प्राप्त करतो. ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top