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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1502
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    ये꣡ त्वामि꣢꣯न्द्र꣣ न꣡ तु꣢ष्टु꣣वु꣡रृष꣢꣯यो꣣ ये꣡ च꣢ तुष्टु꣣वुः꣢ । म꣡मे꣢꣯द्वर्धस्व꣣ सु꣡ष्टु꣢तः ॥१५०२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । त्वाम् । इ꣣न्द्र । न꣢ । तु꣣ष्टुवुः꣢ । ऋ꣡ष꣢꣯यः । ये । च꣣ । तुष्टुवुः꣢ । म꣡म꣢꣯ । इत् । व꣣र्धस्व । सु꣡ष्टु꣢꣯तः । सु । स्तु꣢तः ॥१५०२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये त्वामिन्द्र न तुष्टुवुरृषयो ये च तुष्टुवुः । ममेद्वर्धस्व सुष्टुतः ॥१५०२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये । त्वाम् । इन्द्र । न । तुष्टुवुः । ऋषयः । ये । च । तुष्टुवुः । मम । इत् । वर्धस्व । सुष्टुतः । सु । स्तुतः ॥१५०२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1502
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में स्तोता अपना अभिप्राय प्रकट कर रहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवान्, दोषहन्ता, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (ये) जो निरीश्वरवादी लोग (त्वाम्) आपकी (न तुष्टुवुः) स्तुति नहीं करते हैं, (ये च ऋषयः) और जो तत्त्वदर्शी, वेदार्थवेत्ता, आपके स्वरूप का साक्षात्कार करनेवाले विद्वान् जन (तुष्टुवुः) महिमा-वर्णन द्वारा आपकी स्तुति करते हैं, वे अपनी इच्छा के अनुसार भले ही व्यवहार करें, किन्तु (मम) मेरे स्तोत्र से (सुष्टुतः) भली-भाँति आराधना किये गये आप, मेरे अन्तरात्मा में (वर्धस्व इत्) अवश्य वृद्धि को प्राप्त होओ ॥३॥

    भावार्थ

    कोई लोग कहते हैं कि परमेश्वर नाम की कोई वस्तु है ही नहीं, यदि है भी तो वह उपेक्षा योग्य है। भले ही वे उसकी स्तुति न करें। मेरी जीवन-नौका का तो वही कर्णधार है, इसलिए मैं बार-बार उसका वन्दन करता हूँ और अभिनन्दन करता हूँ ॥३॥ इस खण्ड में जीवात्मा, परमात्मा, ब्रह्मानन्द, राजा, आचार्य और स्तोता के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चौदहवें अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (ये त्वां न तुष्टुवुः) जो लोग तेरी स्तुति पूर्व जन्म में नहीं करते रहे वर्तमान में चाहे करते हों, या (ये च-ऋषयः-तुष्टुवुः) और जो ऋषि पूर्व जन्म में तेरी स्तुति करते रहे हों, वर्तमान में चाहे न करते हों यह तो तू जाने, परन्तु (सुष्टुतः-मम-इत्-वर्धस्व) मेरे द्वारा पूर्व जन्म से और वर्तमान जन्म से स्तुत किया हुआ मुझे अवश्य बढ़ा—उन्नत करना—करता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    और करें या न करें – मैं तो करूँ ही

    पदार्थ

    हे प्रभो ! (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् ! (त्वाम्) = आपको (ये) = जो (न) = नहीं (तुष्टुवुः) = स्तुत करते हैं (च) = और ये (ऋषयः) = जो मन्त्र-द्रष्टा (तुष्टुवुः) = स्तुति करते हैं— मैं इस झगड़े में क्यों पहूँ। मैं ऐसा क्यों विचार करता रहूँ कि अमुक व्यक्ति तो प्रभु का स्तवन नहीं करता, परन्तु सांसारिक दृष्टि से तो वह किसी से कम नहीं तो क्या प्रभुस्तवन कोई आवश्यक वस्तु है ? दूसरी ओर ये ऋषि लोग जब प्रभु का स्तवन करते हैं तो प्रभुस्तवन अच्छी ही बात होगी ?

    उल्लिखित प्रकार से मैं विचार में नहीं उलझा रहता, मैं तो हे प्रभो! आपका स्तवन करता ही हूँ। (मम) = मुझसे (इत्) = सचमुच (सुष्टुतः) = उत्तम प्रकार से स्तुत होकर आप वर्धस्व- हमें बढ़ानेवाले हों। आपकी स्तुति करता हुआ मैं सदा वृद्धि को प्राप्त होनेवाला होऊँ ।

    यही व्यक्ति जो ‘औरों के द्वारा स्तवन हो रहा है या नहीं' इस झगड़े में न पड़कर प्रभुस्तवन में परायण रहता है वही प्रभु का 'प्रिय' होता नामवाला बनता है।

    भावार्थ

    औरों की ओर न देखकर, हम प्रभुस्तवन में लगे ही रहें । 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे आत्मन् ! (ये) जो अज्ञानी लोग (त्वां) तुझको (न) नहीं (तुष्टुवुः) स्तुति करते और (ये च) जो (ऋषयः) आत्मसाक्षात्कार करने वाले मन्त्रद्रष्टा, ऋषिगण तथा गुरु शिष्य तथा ज्ञानी, जिज्ञासु जन (त्वां तुष्टुवुः) तेरा यथार्थ वर्णन करते हैं उनसे (सु-स्तुतः) उत्तम रूप से स्तुतियों द्वारा अलंकृत होकर (मम इद्) मेरी ही स्तुतियों द्वारा मुझे (वर्धस्व) वृद्धि को प्राप्त करा। अर्थात् प्रत्येक जीव अपनी ही की हुई उपासना और प्रार्थना से बलवान् होता है। दूसरे की की, प्रार्थनोपासना उसके लिये निष्फल है।

    टिप्पणी

    ‘प्रत्नेन मन्मना’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्तोता स्वाभिप्रायमाह।

    पदार्थः

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् न दोषहन्तः सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! (ये) निरीश्वरवादिनः (त्वाम्) भवन्तम् (न तुष्टुवुः) न स्तुवन्ति, (ये च ऋषयः) ये च तत्त्वदर्शिनः वेदार्थविदः त्वत्स्वरूपद्रष्टारः (तुष्टुवुः) महिमवर्णनेन त्वां स्तुवन्ति, ते स्वेच्छानुरूपं कामं व्यवहरन्तु। (मम) मदीयेन तु स्तोत्रेण (सुष्टुतः) सम्यगाराधितः त्वम् ममान्तरात्मनि (वर्धस्व इत्) वृद्धिमेव गच्छ ॥३॥

    भावार्थः

    केचिद् ब्रुवन्ति परमेश्वरो नाम कश्चिन्नास्त्येव, अस्ति चेदुपेक्षणीय इति। कामं ते तं नाभिष्टुवन्तु। मम तु जीवननौकायाः स एव कर्णधार इति मुहुर्मुहुस्तं वन्देऽभिनन्दये च ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जीवात्मनः परमात्मनो ब्रह्मानन्दरसस्य नृपतेराचार्यस्य स्तोतुश्च विषयस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    God, the atheists do not praise Thee. The Rishis praise Thee. Make me advance indeed, when praised by myself !

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    Meaning

    There are men who do not adore you, and there are sages who adore you, (both ways you are acknowledged and adored by praise or protest). O lord thus adored by me and pleased, pray accept my adoration and let us rise. (Rg. 8-6-12)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (ये त्वां न तुष्टुवुः) જે લોકો તારી સ્તુતિ પૂર્વ જન્મમાં ન કરી હોય પરંતુ વર્તમાનમાં ભલે કરતાં હોય, અથવા (ये च ऋषयः तुष्टुवुः) અને જે ઋષિઓ પૂર્વજન્મમાં તારી સ્તુતિ કરતાં રહ્યાં હોય અને વર્તમાનમાં ભલે ન કરતાં હોય એ તો તું જાણે, પરંતુ (सुष्टुतः मम इत् वर्धस्व) મારા દ્વારા પૂર્વ જન્મથી અને વર્તમાન જન્મથી સ્તુત કરેલ મને અવશ્ય ઉન્નત કર-કરે છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    काही लोक (नास्तिक) म्हणतात की परमेश्वर नावाची कोणती वस्तू नाही, जर असेल तर तो उपेक्षा करण्यायोग्य आहे. जरी ते त्याची स्तुती करत नसतील तर माझ्या जीवन नौकेचा तोच कर्णधार मात्र आहे, त्यासाठी मी वारंवार त्याला वंदन करतो, अभिनंदन करतो. ॥३॥ या खंडात जीवात्मा, परमात्मा, ब्रह्मानंद, राजा, आचार्य व स्तोता यांच्याविषयी वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणावी

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