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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1512
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
28
न꣣दं꣢ व꣣ ओ꣡द꣢तीनां न꣣दं꣡ योयु꣢꣯वतीनाम् । प꣡तिं꣢ वो꣣ अ꣡घ्न्या꣢नां धेनू꣣ना꣡मि꣢षुध्यसि ॥१५१२॥
स्वर सहित पद पाठन꣣द꣢म् । वः꣣ । ओ꣡द꣢꣯तीनाम् । न꣣द꣢म् । यो꣡यु꣢꣯वतीनाम् । प꣡ति꣢꣯म् । वः꣣ । अ꣡घ्न्या꣢꣯नाम् । अ । घ्न्या꣣नाम् । घेनूना꣢म् । इ꣣षुध्यसि ॥१५१२॥
स्वर रहित मन्त्र
नदं व ओदतीनां नदं योयुवतीनाम् । पतिं वो अघ्न्यानां धेनूनामिषुध्यसि ॥१५१२॥
स्वर रहित पद पाठ
नदम् । वः । ओदतीनाम् । नदम् । योयुवतीनाम् । पतिम् । वः । अघ्न्यानाम् । अ । घ्न्यानाम् । घेनूनाम् । इषुध्यसि ॥१५१२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1512
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में फिर परमात्मा की महिमा वर्णित है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (वः) तुम (ओदतीनाम्) प्रकाश से आप्लुत करनेवाली उषाओं के (नदम्) प्रकाशक जगदीश्वर की, (योयुवतीनाम्) स्वयं को अन्यों के साथ मिलानेवाली नदियों के (नदम्) कल-कल नाद करानेवाले जगदीश्वर की और (वः) तुम्हारी (अघ्न्यानाम्) न मारी जाने योग्य (धेनूनाम्) गायों के (पतिम्) रक्षक इन्द्र जगदीश्वर की स्तुति करो। हे इन्द्र जगदीश्वर ! आप अधार्मिक शत्रुओं पर (इषुध्यसि) बाण चलाते हो, अर्थात् उन्हें दण्डित करते हो ॥१॥ यहाँ ‘नद’ की आवृत्ति में यमक अलङ्कार है और ‘तीनों’ की आवृत्ति में छेकानुप्रास, नकार की आवृत्ति में वृत्त्यनुप्रास है ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर की उषाओं को चमकानेवाला, सूर्य को प्रदीप्त करनेवाला, बिजलियों को विद्योतित करनेवाला, पवन को चलानेवाला, नदियों में कल-कल निनाद करानेवाला, धेनुओं में दूध उत्पन्न करनेवाला और दुष्टों का दलन करनेवाला है ॥१॥ इस खण्ड में जगदीश्वर और जीवात्मा का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चौदहवें अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(वः) हे उपासकजनो! तुम्हारी (ओदतीनाम्-अघ्न्यानां नदं पतिम्) उन्दन करने वाली—आर्द्र बनाने वाली स्तुतिवाणियों के७ नदनीय—प्रवचनीय स्तुति स्वामी परमात्मा की, तथा (वः) तुम्हारी (योयुवतीनां धेनूनां नदम्) परमात्मा से मिलाने वाली स्तुतिवाणियों के८ नदनीय—स्तुतियोग्य स्वामी परमात्मा को (इषुध्यसि) प्रार्थित करो९॥१॥
विशेष
ऋषिः—प्रियमेधः (प्रिय है मेधा जिसको)॥ देवता—इन्द्र (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—उष्णिक्॥<br>
विषय
चाहना, चलना, अपना तरकस बनाना
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘प्रियमेध' है—प्रिय है मेधा – धारणावती बुद्धि जिसे । यह प्रिय-मेध वेदवाणियों से ही प्रेम करता है, इसका विचरने का क्षेत्र ज्ञान ही है। इस प्रियमेध से कहते हैं कि तू (इषुध्यसि) = चाहता है [इषुध्यति याच्ञाकर्मा], नचिकेता की भाँति ‘शतायुष पुत्र-पौत्रों को, भूमि के महदायतन को, दुर्लभ कामों को, हिरण्य को व दीर्घ जीवन को भी न चाहकर तू आत्मा को ही चाहता है—परमात्म-प्राप्ति की ही प्रबल कामना करता है।' २. तू उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है—उसी की ओर जाता है [इषुध्यु going] तेरी प्रबल इच्छा क्रिया के रूप में परिणत होती है, और ३. अन्त में तू उस प्रभु को ही अपना तरकस बनाता है। प्रभु के नामरूपी तीरों से ही तू वासनारूप शत्रुओं का विनाश करता है।
किस प्रभु को तू चाहता है ? किसकी ओर जाता है ? और किसे अपना तरकस बनाता है ? इन प्रश्नों का उत्तर यह है कि -
१. (वः) = तुम्हारे (ओदतीनाम्) = उत्थान [rising upwards] का कारणभूत (धेनूनाम्) = वाणियों के (नदम्) = उपदेष्टा प्रभु को मैं चाहता हूँ । (योयुवतीनाम्) = [यु= मिश्रण और अमिश्रण] भद्र से सम्पर्क करानेवाली तथा पाप से पृथक्
करानेवाली (धेनूनाम्) = वाणियों के (नदम्) = उपदेष्टा की ओर मैं जाता हूँ । (वः) = तुम्हारे (अघ्न्यानाम्) = न विनाश करने के योग्य, तुम्हें विनाश से बचानेवाली (धेनूनाम्) = वाणियों के (पतिम्) =
पति–रक्षक प्रभु को मैं अपना तरकस बनाता हूँ। ये प्रभु ही बाणों का वह अक्षयकोश हैं, जो सब शत्रुओं का क्षय करने में शक्त हैं ।
भावार्थ
मैं प्रभु को चाहूँ, उसकी ओर चलूँ, वही मेरे तरकस हों ।
विषय
missing
भावार्थ
(वः) आप लोग (योयुवतीनां) कर्म का आदेश करने हारी ऋचाओं के (नदं) उपदेश करने हारे और (ओदतीनां) अध्यात्म ज्ञान का उपदेश करने हारे वेद वाणियों के (नदं) उपदेश और (अध्न्यानां) कभी घात न होने हारी अविनाशी, नित्य (धेनूनां) ज्ञानरस के पिलाने हारी वेदवाणियों के (पतिं) पालक प्रभु को (इषुध्यसि*) आश्रय करो और उसी से इष्ट फल प्राप्त कराने की याचना करो।
टिप्पणी
इषुध्यतिर्याञ्ञाकर्मा। (निघ० ३। १९)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनरपि परमात्मनो महिमा प्रोच्यते।
पदार्थः
हे मनुष्याः ! (वः) यूयम् (ओदतीनाम्) प्रकाशेन क्लेदकानाम् उषसाम्। [उन्दन्तीति ओदत्यः तासाम्। उन्दी क्लेदने। ओदती इत्युषर्नाम। निघं० १।८।] (नदम्) भासकम्। [नद भासार्थः, चुरादिः।] (योयुवतीनाम्) अतिशयेन स्वात्मानमितराभिः मिश्रयन्तीनां नदीनाम्। [यौतेर्यङ्लुगन्तात् शतरि ङित्वाद् गुणाभावे उवङादेशे स्त्रियां षष्ठीबहुवचने रूपम्।] (नदम्) नादयितारम्। [णद अव्यक्ते शब्दे, भ्वादिः] अपि च (वः) युष्माकम् (अघ्न्यानाम्) अहन्तव्यानाम् (धेनूनाम्) गवाम् (पतिम्) पातारम् इन्द्रं जगदीश्वरं, स्तुत इति शेषः। अथ प्रत्यक्षकृतमाह—हे (इन्द्र) जगदीश्वर ! (त्वम्), अधार्मिकेषु शत्रुषु (इषुध्यसि) शरं संदधासि, तान् दण्डयसीत्यर्थः। [इषुध शरधारणे, कण्ड्वादिः] ॥१॥ अत्र नदमित्यस्य द्विरुक्तौ यमकालङ्कारः। तीनामित्यस्य द्विरुक्तौ छेकानुप्रासः। नकारावृत्तौ च वृत्त्यनुप्रासः ॥१॥
भावार्थः
परमेश्वर एवोषसां भासकः, सूर्यस्य प्रदीपको, विद्युतां द्योतयिता, पवनस्य प्रचालको, नदीनां कलकलनिनादको, गोषु पयसामुत्पादको, दुष्टानां दलयिता चास्ति ॥१॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वरस्य जीवात्मनश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
0 men, seek the shelter of God, the Lord of imperishable, eternal Vedic verses, the yielders of knowledge, the preachers of action, the instructors of spiritual wisdom !
Meaning
Indra is the resounding source of fresh energies, roaring expression of maiden youthfulness, protector and promoter of sacred sources of production and nourishment such as cows which must not be killed or hurt, and he is the relentless inexhaustible keeper of your arrows for your targets of defence and development. (Rg. 8-69-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (वः) હે ઉપાસકજનો ! તમારી (ओदतीनाम् अघ्न्यानां नदं पतिम्) ઉન્દન કરવાવાળી-આર્દ્ર બનાવવાવાળી સ્તુતિ વાણીઓના નદનીય-પ્રવચનીય સ્તુતિ સ્વામી પરમાત્માની; તથા (वः) તમારી (योयुवतीनां धेनूनां नदम्) પરમાત્માથી મિલન કરાવનારી સ્તુતિ વાણીઓના નદનીય-સ્તુતિયોગ્ય સ્વામી પરમાત્માને (इषुध्यसि) પ્રાર્થના કરો. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर उषेला चमकविणारा, सूर्याला प्रदीप्त करणारा, विद्युतला विद्योतित करणारा, वायूला चालविणारा, नद्यांमध्ये कलकल निनाद करविणारा, गाईमध्ये दूध उत्पन्न करणारा व दुष्टांचे दलन करणारा आहे. ॥१॥
टिप्पणी
या खंडात पूर्व खंडाबरोबर संगती जाणावी ॥
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