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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1515
    ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
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    अ꣡द꣢र्शि गातु꣣वि꣡त्त꣢मो꣣ य꣡स्मि꣢न्व्र꣣ता꣡न्या꣢द꣣धुः꣢ । उ꣢पो꣣षु꣢ जा꣣त꣡मार्य꣢꣯स्य꣣ व꣡र्ध꣢नम꣣ग्निं꣡ न꣢क्षन्तु नो꣣ गि꣡रः꣢ ॥१५१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣡द꣢꣯र्शि । गा꣣तुवि꣡त्त꣢मः । गा꣣तु । वि꣡त्त꣢꣯मः । य꣡स्मि꣢꣯न् । व्र꣣ता꣡नि꣢ । आ꣣दधुः꣢ । आ꣣ । दधुः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । सु꣢ । जा꣣त꣢म् । आ꣡र्य꣢꣯स्य । व꣡र्ध꣢꣯नम् । अ꣣ग्नि꣢म् । न꣣क्षन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ ॥१५१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदर्शि गातुवित्तमो यस्मिन्व्रतान्यादधुः । उपोषु जातमार्यस्य वर्धनमग्निं नक्षन्तु नो गिरः ॥१५१५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अदर्शि । गातुवित्तमः । गातु । वित्तमः । यस्मिन् । व्रतानि । आदधुः । आ । दधुः । उप । उ । सु । जातम् । आर्यस्य । वर्धनम् । अग्निम् । नक्षन्तु । नः । गिरः ॥१५१५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1515
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४७ क्रमाङ्क पर परमेश्वर की पूजा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ परमात्मा और राजा का विषय वर्णित करते हैं।

    पदार्थ

    (गातुवित्तमः) कर्तव्य-मार्ग का अतिशय बोध करानेवाले जगदीश्वर वा राजा के (अदर्शि) हमने दर्शन किये हैं, (यस्मिन्) जिसके आश्रय में रहते हुए प्रजाजन (व्रतानि) अपने-अपने कर्तव्य कर्म (आदधुः) करते हैं। (उ सुजातम्) भली-भाँति अन्तरात्मा में प्रकट हुए अथवा निर्वाचन-पद्धति से राजा के पद पर अभिषिक्त हुए और (आर्यस्य वर्धनम्) श्रेष्ठ मनुष्य को बढ़ानेवाले (अग्निम्) अग्रनायक जगदीश्वर वा राजा के पास (नः) हमारे (गिरः) प्रार्थना-वचन (उप नक्षन्तु) पहुँचें ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर कर्तव्यमार्ग का बोधक, आर्यों को प्रोत्साहन देनेवाला और दुर्जनों को दण्डित करनेवाला है, वैसे ही राजा को भी होना चाहिए ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या ४७)

    विशेष

    ऋषिः—सौभरिः (परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने वाला उपासक)॥ देवता—अग्निः (ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—बृहती॥<br>

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    विषय

    प्रभु-दर्शन

    पदार्थ

    ४७ संख्या पर मन्त्रार्थ इस रूप में है

    (अग्निम्) = आगे ले-चलनेवाले प्रभु को (नः) = हमारी (गिरः) = वाणियाँ (नक्षन्तु) = प्राप्त हों, जो प्रभु (आर्यस्य) = [ऋ गतौ] उन्नति के मार्ग पर नियमपूर्वक चलनेवाले को (वर्धनम्) = उत्साहित करनेवाले
    हैं। (उ) = और (उपसुजातम्) = उत्तम प्रकार से समीप प्राप्त होनेवाले हैं। (गातुवित्तमः) = अतिशयेन दिव्य मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति प्रभु को (अदर्शि) = देखता ही है (यस्मिन्) = जिस प्रभु की प्राप्ति के निमित्त (व्रतानि आदधुः) = विविध व्रतों को धारण करते हैं । इस प्रकार अपने जीवन को आर्यत्व, व्रतशीलता व उत्तम मार्गों पर चलने की भावना से भरनेवाला यह व्यक्ति ‘सोभरि' कहलाता है । 

    भावार्थ

    हम आर्य, व्रतशील व सुमार्ग पर चलनेवाले बनकर प्रभु का दर्शन करें। 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    व्याख्या देखिये अविकल सं० [४७ ]।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१,९ प्रियमेधः। २ नृमेधपुरुमेधौ। ३, ७ त्र्यरुणत्रसदस्यू। ४ शुनःशेप आजीगर्तिः। ५ वत्सः काण्वः। ६ अग्निस्तापसः। ८ विश्वमना वैयश्वः। १० वसिष्ठः। सोभरिः काण्वः। १२ शतं वैखानसाः। १३ वसूयव आत्रेयाः। १४ गोतमो राहूगणः। १५ केतुराग्नेयः। १६ विरूप आंगिरसः॥ देवता—१, २, ५, ८ इन्द्रः। ३, ७ पवमानः सोमः। ४, १०—१६ अग्निः। ६ विश्वेदेवाः। ९ समेति॥ छन्दः—१, ४, ५, १२—१६ गायत्री। २, १० प्रागाथं। ३, ७, ११ बृहती। ६ अनुष्टुप् ८ उष्णिक् ९ निचिदुष्णिक्॥ स्वरः—१, ४, ५, १२—१६ षड्जः। २, ३, ७, १०, ११ मध्यमः। ६ गान्धारः। ८, ९ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७ क्रमाङ्के परमेश्वरार्चनविषये व्याख्याता। अत्र परमात्मनृपत्योर्विषय उच्यते।

    पदार्थः

    (गातुवित्तमः) गातुं कर्तव्याकर्तव्यमार्गमतिशयेन वेदयति ज्ञापयति यः स जगदीश्वरो नृपतिर्वा (अदर्शि) अस्माभिर्दृष्टोऽस्ति, (यस्मिन्) यस्याश्रये विद्यमानाः प्रजाजनाः (व्रतानि) स्वीयानि स्वीयानि कर्तव्यकर्माणि (आदधुः) कुर्वन्ति। (उ) अथ च (सुजातम्) सम्यक् अन्तरात्मनि आविर्भूतम्, निर्वाचनपद्धत्या राजपदेऽभिषिक्तं वा, (आर्यस्य वर्धनम्) श्रेष्ठजनस्य वृद्धिकरम् (अग्निम्) अग्रनायकं जगदीश्वरं नृपतिं वा (नः) अस्माकम् (गिरः) प्रार्थनावचनानि (उप नक्षन्तु) उपगच्छन्तु ॥१॥

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वरः कर्तव्यमार्गबोधक आर्याणां प्रोत्साहको दुर्जनानां च दण्डयिताऽस्ति तथैव नृपतिनापि भाव्यम् ॥१॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The fire is kindled, in which the knowers of scientific laws place all their researches. May we sing the praise of the well-kindled fire, which contributes to the advancement of an Arya sacrificer and an artisan.

    Translator Comment

    See Verse 47. All scientific progress and researches are carried out through properly handling and understanding the use of fire. Aeroplanes, Hydrogen bombs, Rockets. Sputniks are the result of the right use of fire or electricity.

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    Meaning

    There is seen the light of Agni, best knower of the ways of life, where people direct and concentrate their vows of piety and discipline. Let our songs of adoration rise and reach Agni, self-revealed, who opens the paths of progress and urges us on to reach the goal of rectitude for noble people. (Rg. 8-103-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यस्मिन् व्रतानि आदधुः) જેની પ્રાપ્તિને માટે વ્રતો = બ્રહ્મચર્ય, અહિંસા, સત્ય આદિને સંપૂર્ણ રૂપમાં ધારણ કરે છે, (गातु वित्तमः अदर्शि) અમારી વિધિનો સારી રીતે જ્ઞાતા દષ્ટ થાય છે સાક્ષાત્ બની જાય છે, (आर्यस्य वर्धनं सुजातम्) ઉપાસકના અથવા શ્રેષ્ઠ ગુણના વર્ધક સારી રીતે સાક્ષાત્ પરમાત્માને (नः गिरः) અમારી સ્તુતિઓ (उपनक्षन्तु उ) નિરંતર પ્રાપ્ત થતી રહે.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा जगदीश्वर कर्तव्यमार्गाचा बोधक आर्यांना प्रोत्साहन देणारा व दुर्जनांना दंडित करणारा आहे, तसेच राजालाही बनले पाहिजे. ॥१॥

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