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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1540
    ऋषिः - विश्वामित्रो गाथिनः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    37

    वृ꣡ष꣢णं त्वा व꣣यं꣡ वृ꣢ष꣣न्वृ꣡ष꣢णः꣣ स꣡मि꣢धीमहि । अ꣢ग्ने꣣ दी꣡द्य꣢तं बृ꣣ह꣢त् ॥१५४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ꣡ष꣢꣯णम् । त्वा꣣ । वय꣢म् । वृ꣣षन् । वृ꣡ष꣢꣯णः । सम् । इ꣣धीमहि । अ꣡ग्ने꣢꣯ । दी꣡द्य꣢꣯तम् । बृ꣣ह꣢त् ॥१५४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषणं त्वा वयं वृषन्वृषणः समिधीमहि । अग्ने दीद्यतं बृहत् ॥१५४०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वृषणम् । त्वा । वयम् । वृषन् । वृषणः । सम् । इधीमहि । अग्ने । दीद्यतम् । बृहत् ॥१५४०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1540
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    आगे फिर परमात्मा का विषय है।

    पदार्थ

    हे (वृषन्) मनोरथों को पूर्ण करनेवाले (अग्ने) जगन्नायक परमेश्वर ! (वृषणः) भक्तिरस बरसानेवाले (वयम्) हम उपासक (वृषणम्) आनन्द-रस के वर्षक, (बृहत् दीद्यतम्) बहुत देदीप्यमान (त्वा) आपको (समिधीमहि) अपने अन्दर प्रदीप्त करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा को भक्तिरस से भिगोता है, उसे वह आनन्द-रस से भिगो देता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (वृषन्-अग्ने) हे सुखवर्षक ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (वयं वृषणः) हम स्तुतिवर्षक उपासक (त्वा बृहत्-दीद्यतं समिधीमहि) तुझे महान् चमकते हुए को स्तुतियों से प्रदीप्त करते हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वृषन् की उपासना 'वृषन्' बनकर

    पदार्थ

    वृषन् शब्द के दो अर्थ हैं—१. शक्तिशाली तथा २. वर्षा करनेवाला । प्रभु में ये दोनों ही गुण निरपेक्षरूप में है। प्रभु की शक्ति निरपेक्ष [absolute] व अनन्त है । वे प्रभु जीवों पर अनन्त सुखों की वर्षा करनेवाले हैं। इस प्रभु की उपासना जीव भी यथासम्भव इन गुणों को अपने अन्दर धारण करके – वृषन् बनकर ही कर सकता है।

    मन्त्र में कहते हैं कि हे (वृषन्) = सर्वशक्तिमन्- सब सुखों के वर्षक प्रभो ! (वृषणं त्वा) = वृषन् तुझे को (वयम्) = हम भी (वृषण:) = वृषन् बनते हुए (समिधीमहि) = अपनी हृदयवेदि पर समिद्ध करते हैं । हे (अग्ने) = हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो! हम उस आपको समिद्ध करते हैं जो आप (बृहत् दीद्यतम्) = अतिशयेन देदीप्यमान हैं। ‘वृषन्' शब्द उस वास्तविक शक्ति का संकेत करता है जो सदा

    औरों का कल्याण करने में विनियुक्त होती है । इस शक्ति से युक्त पुरुष ही वीरत्व व दिव्य गुणों [virtues] का पोषण करके उनके कारण कीर्ति सम्पन्न बनकर 'देवश्रवा' इस नाम को चरितार्थ करता है ।

    भावार्थ

    हम सात्त्विक बल सम्पन्न होकर उस देदीप्यमान वृषन् के सच्चे आराधक बनें ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( वृषन् ) = हे कामना के पूरक  ( अग्ने वृषण: ) = तेरी भक्ति से नम्र और आर्द्रचित्त  ( वयम् ) = हम आपके सेवक  ( बृहत् दीद्यतम् ) = बहुत ही प्रकाशमान ( वृषणम् ) = कामनाओं के पूरक  ( त्वाम् समिधीमहि ) = आपका अपने हृदय में ध्यान करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे ज्ञानस्वरूप ज्ञानप्रदात: ! आप अपने भक्तों की सब योग्य  कामनाओं को पूर्ण करते हैं । हम आपके प्यारे बच्चे, नम्रता से आपकी भक्ति करने के लिए, उपस्थित हुए हैं, आपका ही अपने हृदय में ध्यान धरते हैं । आप हम पर कृपा करें कि, हमारा मन सब कल्पनाओं को छोड़ आपके ही ध्यान में, अच्छी प्रकार लग जाए, जिससे हमको शान्ति और आनन्द प्राप्त हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (वृषन्) सब सुखों और ज्ञानों के वर्षक (त्वा) तुझ (वृषणं) सब से बलवान् (दीद्यतं) चेतनारूप से और तेज स्वरूप सकल ब्रह्माण्ड को प्रकाशमान करने हारे (बृहत्) महान् आत्मा परमेश्वर को (वयं) हम (समिधीमहि) अपने हृदय में उत्तम रीति से प्रज्वलित करें।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनः परमात्मविषयमाह।

    पदार्थः

    हे (वृषन्) कामवर्षक (अग्ने) जगन्नायक परमेश ! (वृषणः) भक्तिरसवर्षकाः (वयम्) उपासकाः (वृषणम्) आनन्दरसवर्षकम्, (बृहत् दीद्यतम्) सातिशयं दीप्यमानम् (त्वा) त्वाम् (समिधीमहि) स्वात्मनि प्रदीपयामः ॥३॥२

    भावार्थः

    यः परमात्मानं भक्तिरसेन क्लेदयति तं स आनन्दरसेन क्लेदयति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Bestower of joys and knowledge, we Yogis, tender-hearted through devotion, kindle in our heart. Thee, the Omnipotent, the Giver of light to the universe, the Almighty God!

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    Meaning

    Agni, virile and generous as showers of rain, refulgent lord of light and yajna, we, overflowing at heart with faith and generosity, light the fire of yajna rising and shining across the vast spaces. (Rg. 3-27-15)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वृषम् अग्ने) હે સુખની વર્ષા કરનાર જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (वयं वृषणः) અમે સ્તુતિ વર્ષક ઉપાસકો (त्वा बृहत् दीद्यतं समिधीमहि) તને મહાન ચમકતી સ્તુતિઓ દ્વારા પ્રદીપ્ત કરીએ છીએ. (૩)

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    বৃষণং ত্বাং বয়ং বৃষন্বৃষণঃ সমিধীমহি ।

    অগ্নে দীদ্যতং বৃহৎ।।৫৯।।

    (সাম ১৫৪০)

    পদার্থঃ (বৃষন্) হে কামনা পূর্ণকারী (অগ্নে) অগ্নি [জ্ঞানস্বরূপ পরমাত্মা]! (বৃষণঃ) তোমার ভক্তির মাধ্যমে নম্র এবং আর্দ্রচিত্ত হয়ে (বয়ম্) আমরা তোমার ভক্তগণ (বৃহৎ দীদ্যতম্) বহু প্রকাশমান, (বৃষণম্) কামনা পূর্ণকারী (ত্বাম্ সম্ ইধীমহি) তোমাকে নিজেদের হৃদয়ে ধ্যান করছি। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে জ্ঞান স্বরূপ, জ্ঞান প্রদাতা! তুমি নিজের ভক্তদের সকল কামনাকে পূর্ণ করে থাক। আমরা, তোমার প্রিয় সন্তানগণ নম্রতার সহিত তোমাকে ভক্তি করার জন্য উপস্থিত হয়েছি। আমরা তোমাকেই আমাদের নিজেদের হৃদয়ে ধ্যান করি। তুমি আমাদের কৃপা করো যাতে আমাদের মন সকল কল্পনা ত্যাগ করে কেবল তোমারই ধ্যানে উত্তম প্রকারে নিবিষ্ট হতে পারে। যার ফলে আমাদের পরম পারমার্থিক শান্তি এবং আনন্দ প্রাপ্তি হবে।।৫৯।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो परमात्म्याला भक्तिरसात भिजवितो, त्याला तो आनंदरसात भिजवितो. ॥३॥

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