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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1563
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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    क्ष꣣पो꣡ रा꣢जन्नु꣣त꣢꣫ त्मनाग्ने꣣ व꣡स्तो꣢रु꣣तो꣡षसः꣢꣯ । स꣡ ति꣢ग्मजम्भ र꣣क्ष꣡सो꣢ दह꣣ प्र꣡ति꣢ ॥१५६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्ष꣢पः । रा꣣जन् । उत꣢ । त्म꣡ना꣢꣯ । अ꣡ग्ने꣢꣯ । व꣡स्तोः꣢꣯ । उ꣣त꣢ । उ꣣ष꣡सः꣢ । सः । ति꣢ग्मजम्भ । तिग्म । जम्भ । र꣡क्षसः꣢ । द꣣ह । प्र꣡ति꣢꣯ ॥१५६३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्षपो राजन्नुत त्मनाग्ने वस्तोरुतोषसः । स तिग्मजम्भ रक्षसो दह प्रति ॥१५६३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    क्षपः । राजन् । उत । त्मना । अग्ने । वस्तोः । उत । उषसः । सः । तिग्मजम्भ । तिग्म । जम्भ । रक्षसः । दह । प्रति ॥१५६३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1563
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 3; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर परमात्मा, आचार्य और राजा से प्रार्थना है।

    पदार्थ

    हे (राजन्) सम्राट् (तिग्मजम्भ) तीक्ष्ण दण्डवाले (अग्ने) परमात्मन्, आचार्य वा राजन् ! (सः) वह विविध गुणों और कर्मों से सुशोभित आप (त्मना) स्वयम् (क्षपः) रात्रि में, (वस्तोः) दिन में, (उत) और (उषसः) उषाकालों में (रक्षसः) ब्रह्मचर्य-विरोधी, विद्या-विरोधी और सच्चरित्र-विरोधी दुष्ट विचारों को (प्रति दह) भस्म कर दो ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर दिन-रात जागरूक होकर उपासकों के सच्चरित्र की रक्षा करता हुआ उनके काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा आदि के भावों को विनष्ट करता है, वैसे ही आचार्य शिष्यों के लिए और राजा प्रजाओं के लिए करे ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा, राष्ट्र, मानवोद्बोधन, राजा और आचार्य के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पन्द्रहवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (राजन्-तिग्मजम्भ-अग्ने) हे सर्वत्र राजमान पापियों के लिए तीक्ष्णनाशन शक्ति वाले परमात्मन् (सः) वह तू (त्मना-‘आत्मनः’) उपासक आत्मा के (रक्षसः) हानिकर पापों को (उतवस्तोः) दिन में भी (उत-उषसः) रात्रि में भी५ (क्षपः) तिरस्कृत कर (प्रति दह) दग्ध कर॥३॥

    विशेष

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    विषय

    असुर-विध्वंस की उपाय- -चतुष्टयी

    पदार्थ

    हे (अग्ने) = अपने को आगे ले-चलनेवाले, (राजन्) = अत्यन्त नियमित जीवनवाले [Well regulated] जीव ! तू (उत) = निश्चय से (त्मना) = अपने मनोबल के द्वारा (क्षपः) = रात्रियों में (वस्तोः उत उषसः) = दिन के समय तथा उष:कालों में (रक्षसः) = राक्षसी वृत्तियों को (प्रतिदह) = एक-एक करके जला दे । राक्षसी व आसुरी वृत्तियों को समाप्त करने के लिए तीन बातें आवश्यक हैं १. [अग्ने] मनुष्य आगे बढ़ने का प्रबल निश्चय करे । २. [ राजन्] जीवन को सूर्य व चन्द्रमा की भाँति नियमित गति से

    ले-चले–सब कार्यों को समय पर करे तथा ३. मन को आत्मा के द्वारा जीतकर प्रबल बनाए । आत्मा के द्वारा जीता हुआ मन आत्मा का मित्र होता है और आसुरी वृत्तियों से मुक्ति का साधन बनता है।

    आसुरी वृत्तियों को दूर करके प्रशस्तेन्द्रिय बननेवाले इस गोतम से प्रभु कहते हैं कि (सः) = वह तू (तिग्मजम्भ) = तीव्र मुखवाला है । तेरे मुख में सदा वेदवाणी होती है, जिसके द्वारा तू तेजस्वी होता है और अपनी प्रबल हुंकार से ही इन शत्रुओं को परे भगा देता है । एवं, कामादि शत्रुओं को दूर भगाने के लिए तेजस्वी मुखवाला होना भी आवश्यक है । तेजस्वी मुख उसी का होता है जिसके मुख में प्रभु का नाम है । यह प्रभु-नाम ही रक्षो- दहन की सर्वोत्तम औषध है ।

    भावार्थ

     १. आगे बढ़ने की वृत्ति, २. नियमित जीवन, ३. मनोबल तथा ४. तीव्र व तेजस्वी मुख हमें असुरों को पराजित करने में सशक्त करे ।

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    विषय

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    भावार्थ

    (उत) और हे (राजन्) समस्त प्रजा का अनुरंजन करने हारे प्रकाशमान परमात्मन् ! (अग्ने) हे ज्ञानस्वरूप आप (त्मना) स्वयं आत्मा के बल से वीर तेजस्वी राजा के समान (रक्षसः) राक्षसों, दुष्टभावों और पुरुषों को (वस्तोः) दिन (उत) और (उषसः) रात्रि के समाप्तिकाल उषाओं अर्थात् नित्य, ज्ञानोदय कालों में (क्षपः) दूर भगा दो। हे (तिग्मजम्भ) तीक्ष्णमुख ! अग्नि के समान तेज से अन्धकारों को नाश करने हारे ! आप राक्षसी भावों या राक्षसों को (प्रति दह) भस्म करो, निर्मूल करो। जिससे वे निर्बीज होकर पुनः जन्म मरण के बंधन का कारण न हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि परमात्माऽऽचार्यो नृपतिश्च प्रार्थ्यते।

    पदार्थः

    हे (राजन्) सम्राट् (तिग्मजम्भ) तीक्ष्णदण्ड (अग्ने) परमात्मन् आचार्य नृपते वा ! (सः) असौ विविधगुणकर्मसुशोभितः त्वम् (त्मना) आत्मना (क्षपः) रात्रौ, (वस्तोः) दिवसे (उत) अपि च (उषसः) उषःकाले (रक्षसः) ब्रह्मचर्यविरोधिनो विद्याविरोधिनः सच्चारित्र्यविरोधिनश्च दुर्विचारान् (प्रति दह) भस्मीकुरु ॥३॥२

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वरो रात्रिन्दिवं जागरूको भूत्वोपासकानां सच्चारित्र्यं रक्षन् तेषां कामक्रोधलोभमोहहिंसादिभावान् विनाशयति तथैवाचार्यः शिष्येभ्यो नृपतिश्च प्रजाभ्यः कुर्यात् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो राष्ट्रस्य, मानवोद्बोधनस्य, नृपतेराचार्यस्य च विषयाणां वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Refulgent, Wise God, with Thy strength, cast aside all evil thoughts. O Dispeller of darkness with light, burn down our Satanic sentiments!

    Translator Comment

    See Yajur 15-37.

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    Meaning

    Agni, blazing with light and power, creating and ruling over nights, days and the dawns, lord of the mighty order of justice and dispensation, burn up the evil and the wicked. (Rg. 1-79-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (राजन् तिग्मजम्भ अग्ने) હે સર્વત્ર રાજમાન-પ્રકાશમાન પાપીઓને માટે તીક્ષ્ણ નાશન શક્તિવાળા પરમાત્મન્ ! (सः) તે તું (त्मना "आत्मनः") ઉપાસક આત્માને (रक्षसः) હાનિકર પાપોને (उतवस्तोः) દિવસે પણ અને (उत उषसः) રાતે પણ (क्षपः) તિરસ્કાર કર-દૂર કર (प्रतिदह) બાળી નાખ. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा जगदीश्वर दिवस-रात्र जागृत राहून उपासकांच्या सच्चरित्राचे रक्षण करत त्यांचे काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा इत्यादी भाव नष्ट करतो, तसेच आचार्याने शिष्यांसाठी व राजाने प्रजेसाठी करावे. ॥३॥ या खंडात परमात्मा, राष्ट्र, मानव उद्बोधन, राजा व आचार्याच्या विषयाचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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