Loading...

सामवेद के मन्त्र

  • सामवेद का मुख्य पृष्ठ
  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1572
    ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः पावकोऽग्निर्बार्हस्पत्यो वा गृहपति0यविष्ठौ सहसः पुत्रावन्यतरो वा देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    27

    प꣣दं꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ मी꣣ढु꣡षोऽना꣢꣯धृष्टाभिरू꣣ति꣡भिः꣢ । भ꣣द्रा꣡ सूर्य꣢꣯ इवोप꣣दृ꣢क् ॥१५७२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प꣣द꣢म् । दे꣣व꣡स्य꣢ । मी꣣ढु꣡षः꣢ । अ꣡ना꣢꣯धृष्टाभिः । अन् । आ꣣धृष्टाभिः । ऊति꣡भिः꣢ । भ꣣द्रा꣢ । सू꣡र्यः꣢꣯ । इ꣣व । उपदृ꣢क् । उ꣣प । दृ꣢क् ॥१५७२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पदं देवस्य मीढुषोऽनाधृष्टाभिरूतिभिः । भद्रा सूर्य इवोपदृक् ॥१५७२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पदम् । देवस्य । मीढुषः । अनाधृष्टाभिः । अन् । आधृष्टाभिः । ऊतिभिः । भद्रा । सूर्यः । इव । उपदृक् । उप । दृक् ॥१५७२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1572
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में जगदीश्वर की कृपा का विषय है।

    पदार्थ

    (मीढ़ुषः) सुख को सींचनेवाले (देवस्य) प्रकाशक जगदीश्वर का (पदम्) प्राप्तव्य मोक्षपद (अनाधृष्टाभिः) अपराजित (ऊतिभिः) रक्षाओं से युक्त है और उसकी (उपदृक्) कृपादृष्टि (सूर्यः इव) सूर्य के समान (भद्रा) शुभ है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा की शरण में जाकर मनुष्य उसकी कभी क्षीण न हो सकनेवाली रक्षा को और अमृतमयी कृपादृष्टि को पा लेता है ॥३॥ इस खण्ड में यज्ञाग्नि और परमेश्वर के विषय का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पन्द्रहवें अध्याय में चतुर्थ खण्ड समाप्त ॥ पन्द्रहवां अध्याय समाप्त ॥ सप्तम प्रपाठक में द्वितीय अर्ध समाप्त ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    पदार्थ

    (मीढुषः-देवस्य) सुख सींचने वाले परमात्मदेव का (पदम्) प्रापणीय स्वरूप (अनाधृष्टाभिः-ऊतिभिः) अबाध्य रक्षाओं से सुरक्षित है (उपदृक्-भद्रा) दर्शनानुभूति कल्याणकारी (सूर्यः-इव) जैसे सूर्य की आभा कल्याणकारी है॥३॥

    विशेष

    <br>

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु-पद-प्राप्ति

    पदार्थ

    गत मन्त्र के वर्णन के अनुसार (अनाधृष्टाभिः) = न धर्षणीय, न नष्ट करने योग्य (ऊतिभिः) = रक्षणों से मन्त्र का ऋषि प्रयोग (मीढुषः) = सब सुखों का सेचन करनेवाले (देवस्य) = दिव्य गुणयुक्त प्रभु के (पदम्) = स्वरूप को (सूर्यः इव) = सूर्य के समान (उपदृक्) = समीपता से देखनेवाला होता है ।

    यदि मनुष्य मस्तिष्क को काम से धर्षणीय नहीं होने देता, हृदय को वासनाओं से बद्ध नहीं होने देता और शरीर को भोगों का शिकार न होने देकर शक्तिमय बनाये रखता है तब वह प्रभु के पद को इस प्रकार देख पाता है जैसे हम सूर्य को स्पष्ट देखते हैं । यह सूर्य के समान प्रभु-दर्शन की स्थिति ही (भद्रा) = कल्याण व सुख से पूर्ण है। यही ‘ब्राह्मीस्थिति' है । इसे प्राप्त कर किसी प्रकार का मोह नहीं रह जाता । इसका जीवन उत्तरोत्तर दिव्यता को प्राप्त कर श्रेष्ठ व श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम बन जाता है। वह प्रभु से की जा रही सुखों की वर्षा का पात्र होता है। 

    भावार्थ

    हम उस सुखवर्षक देव प्रभु के पद को देखनेवाले बनें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    missing

    भावार्थ

    (मीढुषः) समस्त कामनाओं को पूर्ण करने हारे (देवस्य) प्रकाशमान देव का (पदं) परम पद, परम रूप (अनाधृष्टाभिः) अद्वितीय, अबाधित, (ऊतिभिः) सुखों से युक्त है। और उसका (उपदृक्) साक्षाद् दर्शन (सूर्यः इव) सूर्य के समान सदा (भद्रा) कल्याणकारी है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ११ गोतमो राहूगणः। २, ९ विश्वामित्रः। ३ विरूप आंगिरसः। ५, ६ भर्गः प्रागाथः। ५ त्रितः। ३ उशनाः काव्यः। ८ सुदीतिपुरुमीळ्हौ तयोर्वान्यतरः । १० सोभरिः काण्वः। १२ गोपवन आत्रेयः १३ भरद्वाजो बार्हस्पत्यो वीतहव्यो वा। १४ प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपति यविष्ठौ ससुत्तौ तयोर्वान्यतरः॥ अग्निर्देवता। छन्दः-१-काकुभम्। ११ उष्णिक्। १२ अनुष्टुप् प्रथमस्य गायत्री चरमयोः। १३ जगती॥ स्वरः—१-३, ६, ९, १५ षड्जः। ४, ७, ८, १० मध्यमः। ५ धैवतः ११ ऋषभः। १२ गान्धरः प्रथमस्य, षडजश्चरमयोः। १३ निषादः श्च॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जगदीश्वरस्य कृपाविषयमाह।

    पदार्थः

    (मीढुषः) सुखसेचकस्य (देवस्य) प्रकाशकस्य (अग्नेः) जगदीश्वरस्य (पदम्) प्राप्तव्यं मोक्षपदम् (अनाधृष्टाभिः) अदब्धाभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः युक्तं वर्तते। किञ्च, तस्य (उपदृक्) कृपादृष्टिः (सूर्यः इव) आदित्यस्य (भद्रा) शुभा अस्ति ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मनः शरणं गत्वा मानवस्तस्याऽक्षय्यां रक्षाममृतमयीं कृपादृष्टिं च लभते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे यज्ञाग्निपरमेश्वरविषयोर्वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The Supreme nature of the Lustrous God the Fulfiller of all ambitions, is full of incomparable joys. His realisation is a source of bliss like the Sun.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    The seat of the refulgent, generous and virile divinity, Agni, with undaunted powers of protection is auspicious and blissful, shining like an inner sun and the second inner eye with inward light and vision. (Rg. 8-102-15)

    इस भाष्य को एडिट करें

    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (मीढुषः देवस्य) સુખનું સિંચન કરનાર પરમાત્મદેવનું (पदम्) પરમ પદ સ્વરૂપ (अनाधृष्टाभिः ऊतिभिः) અબાધિત રક્ષાઓથી સુરક્ષિત છે. (उपदृक् भद्रा) તેના સાક્ષાત્ દર્શનની અનુભૂતિ કલ્યાણકારી છે, (सूर्यः इव) જેમ સૂર્યની આભા કલ્યાણકારી છે તેમ. (૩)
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराला शरण जाऊन माणूस त्याचे कधी क्षीण न होऊ शकणारे रक्षक व अमृतमयी कृपादृष्टीला प्राप्त करतो. ॥३॥ या खंडात यज्ञाग्नी व परमेश्वराविषयी वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top