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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1589
ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
62
वि꣡श्व꣢कर्मन्ह꣣वि꣡षा꣢ वावृधा꣣नः꣢ स्व꣣यं꣡ य꣢जस्व त꣣न्व꣢३ꣳ स्वा꣡ हि ते꣢꣯ । मु꣡ह्य꣢न्त्व꣣न्ये꣢ अ꣣भि꣢तो꣣ ज꣡ना꣢स इ꣣हा꣡स्माकं꣢꣯ म꣣घ꣡वा꣢ सू꣣रि꣡र꣢स्तु ॥१५८९॥
स्वर सहित पद पाठवि꣡श्व꣢꣯कर्मन् । वि꣡श्व꣢꣯ । क꣣र्मन् । हवि꣡षा꣢ । वा꣣वृधानः꣢ । स्व꣣य꣢म् । य꣣जस्व । तन्व꣢म् । स्वा । हि । ते꣣ । मु꣡ह्य꣢꣯न्तु । अ꣣न्ये꣢ । अ꣣न् । ये꣢ । अ꣣भि꣡तः꣢ । ज꣡ना꣢꣯सः । इ꣣ह꣢ । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । म꣣घ꣡वा꣢ । सू꣡रिः꣢꣯ । अ꣣स्तु ॥१५८९॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वकर्मन्हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व तन्व३ꣳ स्वा हि ते । मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु ॥१५८९॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वकर्मन् । विश्व । कर्मन् । हविषा । वावृधानः । स्वयम् । यजस्व । तन्वम् । स्वा । हि । ते । मुह्यन्तु । अन्ये । अन् । ये । अभितः । जनासः । इह । अस्माकम् । मघवा । सूरिः । अस्तु ॥१५८९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1589
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
इस एक ऋचावाले सूक्त में अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन दिया गया है।
पदार्थ
हे (विश्वकर्मन्) शारीरिक सब कर्मों के कर्त्ता जीव ! (हविषा) सद्गुणों के आधान द्वारा (वावृधानः) समृद्ध हुआ तू (स्वयम्) अपने आप ही (तन्वम्) शरीर को (यजस्व) यज्ञ-कर्मों में नियुक्त कर, (हि) क्योंकि, वह (ते) तेरी (स्वा) अपनी है, उस पर तेरा अधिकार है। (अभितः) सब ओर स्थित (अन्ये) दूसरे (जनासः) उत्पन्न बाह्य तथा आन्तरिक शत्रु (मुह्यन्तु) मोह को प्राप्त हो जाएँ। (मघवा) ऐश्वर्यशाली जगदीश्वर (इह) इस जगत् में (अस्माकम्) हमारा (सूरिः) प्रेरक (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थ
जीव का यह कर्तव्य है कि वह अपने देह को शुभकर्मों में लगाकर परमात्मा की पूजा करते हुए अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करे ॥१॥
पदार्थ
(विश्वकर्मन्) हे विश्व के कर्ता—रचयिता परमात्मन्! (हविषा वावृधानः) मुझ उपासक आत्मा के समर्पण से१ बढ़ता हुआ या बढ़ने के हेतु (स्वयं तन्वं यजस्व) स्वयं अपने में आत्मा को सङ्गत कर (स्वा हि ते) यह आत्मा अपनी ही तेरी तनु देह है१ (अन्ये जनासः) अन्य जन जो तेरे प्रति अपना समर्पण नहीं करते वे (अभितः-मुह्यन्तु) प्रलय में वे नितान्त मुग्ध हो जाते हैं (इह-अस्माकं मघवा सूरिः-अस्तु) इस स्थिति में हम उपासकों का प्रेरक२ परमात्मा ही होता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—विश्वकर्मा भौवनः (भुवन-संसार में जन्मा हुआ सब अध्यात्मकर्म करने में समर्थ उपासक)॥<br>देवता—विश्वकर्मा (विश्व-जगत् जिसका कर्म है जगत् का रचयिता-जीवात्माओं का कर्मफलदाता परमात्मा)॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥
विषय
विश्वकर्मा भौवन
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘विश्वकर्मा भौवन' है— भुवन के हित के लिए व्यापक कर्मों में लगा हुआ। इस विश्वकर्मा से प्रभु कहते हैं
१. हे (विश्वकर्मन्-) सदा कर्मों में प्रविष्ट तथा व्यापक कर्मोंवाले जीव ! तू (हविषा) = दानपूर्वक अदन से, त्यागपूर्वक उपभोग से, यज्ञशेष खाने से (वावृधानः) = सदा वृद्धि को प्राप्त करता हुआ (तन्वाम्) = इस शरीर में— इस मनुष्ययोनि में (स्वयम्) = आत्मा को–अपने आपको (यजस्व) = प्राणिहित में अर्पित कर दे । (हि) = निश्चय से (ते स्वा) = यही शरीर तेरा अपना है, अन्य पशु-पक्षियों के शरीर तो भोगयोनिमात्र हैं। वे कर्मयोनि न होने से स्वातन्त्र्यवाले नहीं हैं। इस मानवशरीर में ही तू स्वतन्त्रतापूर्वक कर्म कर सकता है ।
(अभितः) = तेरे आगे-पीछे अन्ये (जनासः) = सामान्य लोग (मुह्यन्तु) = बेशक नासमझ बनें । वे यज्ञमय जीवन के महत्त्व को न समझकर चाहे स्वार्थ में फँसे रह जाएँ, परन्तु इह इस मानवजीवन में (अस्माकम्) = हमारा यह विश्वकर्मा तो (मघवा) = यज्ञमय जीवनवाला [मखवान् ह वै तं मघवान् इत्याचक्षते परोक्षन्–श० १४.१.१.१३] तथा (सूरि:) = विद्वान्, समझदार (अस्तु) = हो । यह स्वार्थ में ही रमे रहने की ग़लती न करे ।
भावार्थ
समझदार पुरुष सदा परार्थ में ही स्वार्थ को देखता है और इसलिए इस मनुष्य जन्म को पाकर अपने को यज्ञ के लिए अर्पित कर देता है। उसके चारों ओर स्वार्थ का साम्राज्य होता है परन्तु यह मूढ़ न बनकर यज्ञशील ही बना रहता है ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (विश्वकर्मन्) तमाम संसार के स्रष्टा परमेश्वर ! (हविषा) ज्ञान से और सामर्थ्य से (वावृधानः) सबसे सदा महान् (स्वाहिते) उत्तम रीति से आधान किये गये इस विश्व ब्रह्माण्ड में (तन्वां) विस्तारशील, द्यौ और पृथिवीरूप शरीर में (स्वयं) अपने आप तू (यजस्व) एक को दूसरे का उपकारक बनाता है ! (अन्ये) और तेरे से भिन्न अल्पज्ञ (जनासः) जन जीवगण (अभितः) इसको साक्षात् देखकर भी (मुह्यन्तु) मोह को प्राप्त होते हैं। (इह) इस विशाल ब्रह्माण्ड यज्ञ के विवरण करने में (मघवा) ज्ञानसम्पादक परम ज्ञानी परमेश्वर ही (अस्माकं) हमारा (सूरिः) ज्ञानोपदेष्टा (अस्तु) हो। “तत्रेतिहासमाचक्षते-विश्वकर्मा भौवनः सर्वमेधे सर्वाणि भूतानि जुहवाञ्चकार स आत्मानप्यन्ततो जुहवाञ्चकार। तदभिवादिनी एषा ऋग् भवति।” (निरु०)। विश्वकर्मा भौवन ने सर्वमेध यज्ञ में समस्त भूतों को हवन कर दिया और अन्त में अपने आपको भी स्वाहा कर दिया। यह आत्मिक यज्ञ का भी वर्णन है। और विशालरूप में यही यज्ञ ब्रह्माण्डमय विराट शरीर में भी हो रहा है। परमात्मा समस्त-पृथिवी आदि पांचों भूतों को मिश्रण करके संसार रचता है और आप भी उसका व्यापक व्यवस्थापक होकर, उसी में लीन रहता है। तत्सृष्ट् वा तदेवानुप्राविशत्। (छान्दोग्य उप०) इसी प्रकार आत्मा देह में पंचभूतों के पांचों शब्दादि विषयों को ग्रहण करता और उनसे ज्ञान सम्पादन करता, पुनः स्वप्न और समाधि दशा में अपने में भी मग्न रहता है। अध्यात्मपक्ष में—हे विश्वकर्मन् ! सर्व कर्मों के कर्त्ता जीवात्मन् ! (हविषा) ज्ञान से (वावृधानः) बढ़ता हुआ (स्वाहिते) अपने ही कर्मों से प्राप्त इस (तन्वां) देह में तू (स्वयं यजस्व) अपने आप प्राणों द्वारा यज्ञ कर रहा है। और (अन्ये जना मुह्मन्ति) दूसरे, मूर्ख, अनात्मज्ञ लोग मोह को प्राप्त हो जाते हैं और (मघवा) परमात्मा या आत्मज्ञानी आचार्य ही इस आभ्यन्तर योगयज्ञ के सम्पादन में (अस्माकं सूरिः अस्तु) हमारा ज्ञानोपदेष्टा हो। १-तनू=अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग् विवृताश्च वेदाः वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा॥ परमात्मा का स्वयं यज्ञ का रूप—तस्मादग्निः समिधो यस्य सूर्यः सोमात् पर्जंन्या ओषधयः पृथिव्याम्। पुमान् रेतः सिञ्चति योषितायां वह्नीः प्रजाः पुरुषात् सम्प्रसूताः॥ मुण्डक २। १। ५॥ गीता के यज्ञचक्र और छान्दोग्य उप० में पञ्चाहुतिप्रकरण भी देखने योग्य हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन्नेकर्चे सूक्ते स्वकीयोऽन्तरात्मा प्रोद्बोध्यते।
पदार्थः
हे (विश्वकर्मन्) विश्वेषां शारीरिकाणां कर्मणां कर्तः जीवात्मन् ! (हविषा२) सद्गुणाधानेन (वावृधानः) वृद्धः त्वम् (स्वयम्) स्वयमेव (तन्वम्) तनूम् (यजस्व) यज्ञकर्मसु नियोजय, (हि) यतः, सा (ते) तव (स्वा) स्वकीया वर्तते, तत्र तवाधिकारोऽस्ति। (अभितः) सर्वतः स्थिताः (अन्ये) इतरे (जनासः) जाताः बाह्या आन्तराश्च शत्रवः (मुह्यन्तु) मोहं प्राप्नुवन्तु। (मघवा) ऐश्वर्यशाली जगदीश्वरः (इह) अस्मिन् जगति (अस्माकम्) अस्मदीयः (सूरिः) प्रेरकः (अस्तु) जायताम् ॥१॥३
भावार्थः
जीवस्येदं कर्तव्यं यत् स स्वकीयं देहं शुभकर्मसु नियुज्य परमात्मानं पूजयन्नभ्युदयं निःश्रेयसं च प्राप्नुयात् ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O soul, the doer of all deeds, developing thyself with knowledge, thou art performing the Yoga-Yajna through the control of breaths, in this body, the fruit of thy actions. Other ignorant souls, who do not know thy significance are infatuated. God alone is our Instructor for the accomplishment of this Yoga-Yajna!
Translator Comment
See verse 463.
Meaning
O Vishvakarman, you yourself guide and perform the yajna of your own creation with the holy materials from within nature itself, yourself exalting in the expansive universe. Here the other people, unaware of the mystery, feel awe-stricken but, we pray, may you, Lord Almighty and omnificent, be the ultimate giver of enlightenment for us. (Rg. 10-81-6)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विश्वकर्मन्) હે વિશ્વના કર્તા-રચયિતા પરમાત્મન્ ! (हविषा वावृधानः) મારા ઉપાસક આત્માના સમર્પણથી વધતાં અથવા વધવાને માટે (स्वयं तन्वं यजस्व) સ્વયં પોતાનામાં આત્માને સંગત કર. (स्वा हि ते) એ આત્મા તારો જ તનુ-દેહ છે. (अन्ये जनासः) અન્ય મનુષ્યો જે તારા તરફ પોતાનું સમર્પણ કરતાં નથી તેઓ (अभितः मुह्यन्तु) પ્રલયમાં તેઓ નિતાન્ત મુગ્ધ બની જાય છે. (इह अस्माकं मघवा सूरिः अस्तु) એ અવસ્થામાં અમારો ઉપાસકોનો પરમાત્મા જ પ્રેરક બને છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
जीवाचे हे कर्तव्य आहे, की त्याने आपल्या देहाला शुभ कर्मात गुंतवावे व परमात्म्याची पूजा करत अभ्युदय व नि:श्रेयस प्राप्त करावे. ॥१॥
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