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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1598
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    26

    म꣣ही꣢ मि꣣त्र꣡स्य꣢ साधथ꣣स्त꣡र꣢न्ती꣣ पि꣡प्र꣢ती ऋ꣣त꣢म् । प꣡रि꣢ य꣣ज्ञं꣡ नि षे꣢꣯दथुः ॥१५९८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म꣣ही꣡इति꣢ । मि꣣त्र꣡स्य꣢ । मि꣣ । त्र꣡स्य꣢꣯ । सा꣣धथः । त꣡र꣢꣯न्तीइ꣡ति꣢ । पि꣡प्र꣢꣯ती꣣इ꣡ति꣢ । ऋ꣣त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣢म् । नि । से꣣दथुः ॥१५९८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मही मित्रस्य साधथस्तरन्ती पिप्रती ऋतम् । परि यज्ञं नि षेदथुः ॥१५९८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    महीइति । मित्रस्य । मि । त्रस्य । साधथः । तरन्तीइति । पिप्रतीइति । ऋतम् । परि । यज्ञम् । नि । सेदथुः ॥१५९८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1598
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब दोनों के आश्रय से योगसिद्धि होने का वर्णन करते हैं।

    पदार्थ

    हे आत्मा और बुद्धि ! (मही) महान् तुम दोनों (मित्रस्य) मित्र उपासक की (साधथः) योगसाधना को पूर्ण करते हो। (तरन्ती) योग के विघ्नों को पार करते हुए, (ऋतम्) सत्य को (पिप्रती) पूर्ण करते हुए तुम दोनों (यज्ञम्) योगी के योग-यज्ञ को (परि निषेदथुः) चारों ओर से व्याप्त करते हो ॥३॥

    भावार्थ

    जीवात्मा के बिना बुद्धि और बुद्धि के बिना जीवात्मा योग सिद्ध नहीं कर सकते। दोनों आपस में मिलकर ही योगयज्ञ की पूर्ति करते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (मही) हे प्रकाशमान और आधाररूप परमात्मन्! तू (मित्रस्य साधथः) स्नेही उपासक का अभीष्ट साधता है (ऋतं तरन्ती पिप्रती) ब्राह्मण उपासक को संसार सागर से तराता है और पालन करता है (यज्ञं परिनिषेदथुः) सङ्गतिकर्ता उपासक को परिप्राप्त होता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    मित्र की साधना

    पदार्थ

    द्युलोक व पृथिवीलोक का उपासक ‘मित्र' है १. यह ज्ञान व शरीर की दृढ़ता के द्वारा ‘प्रमीतेः त्रायते'=असमय की मृत्यु से अपने को बचाता है । २. ज्ञान के कारण ही यह 'संमिन्वानो द्रवति'इस संसार में प्रत्येक क्रिया को माप-तोल कर करता है तथा ३. इस मेदिनी - पृथिवी के सम्पर्क में आकर ‘मेदयते' सबके साथ स्नेह करता है, यह सम्पूर्ण पृथिवी का नागरिक बन जाता है, इसे सभी से प्रेम होता है ।

    (मही) = ये महनीय द्युलोक व पृथिवीलोक (मित्रस्य) = इस मित्र की (साधथ:) = साधना को पूर्ण करते हैं । (तरन्ती) = ये उसे सब (विघ्न) = बाधाओं से पार करते हैं और (ऋतम् पिप्रती) = उसके अन्दर यज्ञ की भावना को भरते हैं ।

    ये द्युलोक व पृथिवीलोक स्वयं भी तो (यज्ञं परिनिषेदथुः) = सर्वतः यज्ञ का आश्रय करते हैं । अपने उपासक के जीवन को भी ये यज्ञ की भावना से पूर्ण करते हैं ।

    भावार्थ

    हम मित्र बनकर द्युलोक व पृथिवीलोक के सच्चे उपासक बनें । ज्ञान व दृढ़ता ही वे दो गुण हैं जो हमें सब विघ्न-बाधाओं से पार करेंगे।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथोभयोराश्रयेण योगसिद्धिमाह।

    पदार्थः

    हे आत्मबुद्धी ! (मही) महत्यौ युवाम् (मित्रस्य) सुहृद्भूतस्य उपासकस्य (साधथः) योगसाधनां पूरयतः। (तरन्ती) योगविघ्नान् पारयन्त्यौ (ऋतम्) सत्यम् (पिप्रती) प्रपूरयन्त्यौ युवाम् (यज्ञम्) योगिनो योगयज्ञम् (परि निषेदथुः) परिनिषीदथः, परिव्याप्नुथः ॥३॥२

    भावार्थः

    जीवात्मानं विना बुद्धिर्बुद्धिं च विना जीवात्मा योगं साद्धुमकिञ्चित्करौ खलु। उभौ परस्परं मिलित्वैव योगयज्ञं पूर्तिं नयतः ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Promoting and perfecting knowledge, mighty teacher and pupil. Ye worship God, the Friend, and sit in solitude after performing the Yajna of self-study and mutual spread of knowledge.

    Translator Comment

    Mutual spread of knowledge' means that the teacher adds to the knowledge of the pupil and vice versa.

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    Meaning

    O mighty heaven and earth, helping friends and devotees to cross the hurdles to attainment, fulfilling the laws of truth to bliss, you preside over the yajnas of life to perfection of success. (Rg. 4-56-7)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (मही) હે પ્રકાશમાન અને આધારરૂપ પરમાત્મન્ ! તું (मित्रस्य साधथः) સ્નેહી ઉપાસકનું અભીષ્ટ સાધે છે. (ऋतं तरन्ती पिप्रती) બ્રાહ્મણ-ઉપાસકને સંસાર સાગરથી તારે છે અને પાલન કરે છે. (यज्ञं परिनिषेदथुः) સંગ કરનાર ઉપાસકને સારી રીતે પ્રાપ્ત થાય છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्म्याशिवाय बुद्धी व बुद्धीशिवाय जीवात्मा योग सिद्ध करू शकत नाही. दोन्ही आपापसात मिळूनच योग यज्ञाची पूर्ती करतात. ॥३॥

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