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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1604
    ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - अग्निर्हवींषि वा छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    43

    सि꣣ञ्च꣡न्ति꣢ न꣡म꣢साव꣣ट꣢मु꣣च्चा꣡च꣢क्रं꣣ प꣡रि꣢ज्मानम् । नी꣣ची꣡न꣢वार꣣म꣡क्षि꣢तम् ॥१६०४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सि꣣ञ्च꣡न्ति꣢ । न꣡म꣢꣯सा । अ꣣वट꣢म् । उ꣣च्चा꣡च꣢क्रम् । उ꣣च्चा꣢ । च꣣क्रम् । प꣡रि꣢꣯ज्मानम् । प꣡रि꣢꣯ । ज्मा꣣नम् । नीची꣡न꣢वारम् । नी꣣ची꣡न꣢ । वा꣣रम् । अ꣡क्षि꣢꣯तम् । अ । क्षि꣣तम् ॥१६०४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिञ्चन्ति नमसावटमुच्चाचक्रं परिज्मानम् । नीचीनवारमक्षितम् ॥१६०४॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सिञ्चन्ति । नमसा । अवटम् । उच्चाचक्रम् । उच्चा । चक्रम् । परिज्मानम् । परि । ज्मानम् । नीचीनवारम् । नीचीन । वारम् । अक्षितम् । अ । क्षितम् ॥१६०४॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1604
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर वही विषय है।

    पदार्थ

    परमेश्वर की ही महिमा से सूर्य-किरणें (उच्चाचक्रम्) उच्च विद्युत्-रूप चक्रवाले, (नीचीनवारम्) नीचे की ओर द्वारवाले, (अक्षितम्) अक्षय (अवटम्) मेघ-रूप कुएँ को (परिज्मानम्) भूमि पर चारों ओर फैलाने के लिए (नमसा) बिजली-रूप वज्र से (सिञ्चन्ति) सींचती हैं ॥३॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर की व्यवस्था से मेघों का निर्माण होता है और उनसे वर्षा होती है, उसे हृदय में धारण करके योगी लोग धर्ममेघ समाधि को प्राप्त करें ॥३॥ इस खण्ड में परमेश्वर, विद्वान्, सन्तान, आत्मा-बुद्धि, उपासक तथा वृष्टि का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ सोलहवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (अक्षितम्) क्षयरहित—अविनाशी—(उच्चाचक्रम्) उच्च सर्वोच्च तृप्तिकर्ता३ (परिज्मानम्) सर्वत्र परिप्राप्त—व्याप्त४ (नीचीनवारम्) नीचे हम उपासकों की ओर द्वार वाले५ प्रवृत्त होने वाले आनन्दस्रोत परमात्मा को (नमसा सिञ्चति) उपासकजन नमस्कारों—नम्र स्तुतियों से अपने आत्मा को समर्पित करते हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    नम्रता से हृदय को सींचना

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘हर्यत प्रागाथ' अवटम्-कामादि के आक्रमण से सुरक्षित अपने हृदय को (नमसा)= नम्रता से (सिञ्चन्ति) = सींच देते हैं, अर्थात् ये बड़े ही नम्र बनते हैं । कामादि शत्रुओं के विजय का भी इन्हें गर्व नहीं होता । इसे तो यह प्रभु कृपा के रूप में ही देखते हैं।

    (परिज्मानम्) = [परि=चारों ओर, ज्मा=गति] इस चारों ओर भटकनेवाले हृदय को ये (उच्चाचक्रम्) = ऊर्ध्वचक्रवाला, अर्थात् ऊर्ध्वगतिवाला करते हैं । ये प्रयत्न करते हैं कि इनका हृदय इधर-उधर विषयों में न भटकता रहे, अपितु उस परम स्थान में, परमपद में प्रतिष्ठित 'परमेष्ठी' की ओर ही गतिवाला हो । (नीचीनवारम्) = नीचे की ओर द्वारोंवाले इस हृदय को (अक्षितम्) = ये अहिंसित बनाते हैं। नीचे की ओर जाना यह हृदय की प्रवृत्ति ही है । 'हर्यत' प्रयत्न करता है कि यह उन निचले द्वारों से न जाए, ऊर्ध्वगति को स्थिर रखकर सुरक्षित रहे – 'अ-क्षित' रहे ।
     

    भावार्थ

    १. हम हृदय को नम्रता से ओतप्रोत कर दें । २. इधर-उधर भटकने की बजाय इसे प्रभु में लगाएँ। ३. इसकी निम्न प्रवृत्तियों को रोककर इसे नष्ट होने से बचाएँ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे विद्वान् आत्मज्ञानी गण ! (नीचीनवारं) निर्बल इन्द्रिय आदि नव द्वारों वाले (अक्षितं) अक्षीण (परिज्मानं) परिणाम या वृद्धता को प्राप्त होने वाले, (उच्चाचक्रं) उच्च प्राणचक्र वाले (अवटं) इस देह को (नमसा) अन्न द्वारा (सिंचन्ति) सबल बनाये रहते हैं अर्थात् जब तक देह बना रहता है तब तक उसकी अन्न से रक्षा करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘अव्रतमुच्चा चक्र’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    अग्नेः परमेश्वरस्यैव महिम्ना सूर्यकिरणाः (उच्चाचक्रम्) उच्चा उच्चैः चक्रं विद्युद्रूपं यस्य तम्, (नीचीनवारम्) नीचैर्मुखद्वारम्, (अक्षितम्) अक्षयम् (अवटम्) मेघरूपं कूपम्(परिज्मानम्) ज्मायां पृथिव्यां परिव्याप्तं यथा स्यात् तथा(नमसा) विद्युद्वज्रेण। [नमः इति वज्रनाम। निघं० २।२०।] (सिञ्चन्ति) भूमौ क्षारयन्ति ॥३॥

    भावार्थः

    यस्य परमेश्वरस्य व्यवस्थया मेघानां निर्माणं ततो वृष्टिश्च संजायते तं हृदि संधार्य योगिनो धर्ममेघसमाधिमधिगच्छन्तु ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमेश्वरस्य विदुषः सन्तानानामात्मबुद्ध्यो- रुपासकस्य वृष्टेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Learned sages, keep fit with food, the body, possessing eminent circles of breaths, ever aging, uninjured, and equipped with nine feeble gates of organs.

    Translator Comment

    Nine gates: Two eyes, two ears, two nostrils, mouth, anus, penis.

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    Meaning

    With homage the devotees serve Agni, radiating and vibrating on high, pervading all round, full of peace and joy, just an inverted well, inexhaustible, with release of showers on the down side for the celebrants. (Rg. 8-72-10)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अक्षितम्) ક્ષયરહિત-અવિનાશી (उच्चाचक्रम्) ઊંચ સર્વોચ્ચ તૃપ્તિકર્તા (परिज्मानम्) સર્વત્ર પરિપ્રાપ્ત-વ્યાપ્ત (नीचीनवारम्) નીચે અમારા ઉપાસકોની તરફ દ્વારવાળા પ્રવૃત્તિ થવાવાળા આનંદ સ્રોત પરમાત્માને (नमसा सिञ्चति) ઉપાસક જન નમસ્કારો-નમ્ર સ્તુતિઓ દ્વારા પોતાના આત્માને સમર્પિત કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या परमेश्वराच्या व्यवस्थेमुळे मेघांची निर्मिती होते व त्याद्वारे वृष्टी होते, त्याला हृदयात धारण करून योगी लोकांनी धर्ममेघ समाधी प्राप्त करावी. ॥३॥ या खंडात परमेश्वर, विद्वान, संतान, आत्मा-बुद्धी, उपासक व वृष्टीचे वर्णन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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