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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1605
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
34
मा꣡ भे꣢म꣣ मा꣡ श्र꣢मिष्मो꣣ग्र꣡स्य꣢ स꣣ख्ये꣡ तव꣢꣯ । म꣣ह꣢त्ते꣣ वृ꣡ष्णो꣢ अभि꣣च꣡क्ष्यं꣢ कृ꣣तं꣡ पश्ये꣢꣯म तु꣣र्व꣢शं꣣ य꣡दु꣢म् ॥१६०५॥
स्वर सहित पद पाठमा꣢ । भे꣣म । मा꣢ । श्र꣣मिष्म । उग्र꣡स्य꣢ । स꣣ख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । त꣡व꣢꣯ । म꣣ह꣢त् । ते꣣ । वृ꣡ष्णः꣢꣯ । अ꣣भिच꣡क्ष्य꣢म् । अ꣣भि । च꣡क्ष्य꣢꣯म् । कृ꣣त꣢म् । प꣡श्ये꣢꣯म । तु꣣र्व꣡श꣢म् । य꣡दु꣢꣯म् ॥१६०५॥
स्वर रहित मन्त्र
मा भेम मा श्रमिष्मोग्रस्य सख्ये तव । महत्ते वृष्णो अभिचक्ष्यं कृतं पश्येम तुर्वशं यदुम् ॥१६०५॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । भेम । मा । श्रमिष्म । उग्रस्य । सख्ये । स । ख्ये । तव । महत् । ते । वृष्णः । अभिचक्ष्यम् । अभि । चक्ष्यम् । कृतम् । पश्येम । तुर्वशम् । यदुम् ॥१६०५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1605
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
प्रथम मन्त्र में इन्द्र परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे इन्द्र परमात्मन् ! (उग्रस्य) अधार्मिकों के प्रति उग्रता दिखानेवाले (तव) आपकी (सख्ये) मित्रता में रहते हुए हम(मा भेम) किसी से भयभीत न हों, (मा श्रमिष्म) थकें नहीं।(वृष्णः ते) सुख आदि की वर्षा करनेवाले आपका (महत्) महान् (कृतम्) कर्म (अभिचक्ष्यम्) प्रशंसनीय है। आपकी कृपा से हम अपने राष्ट्र में (तुर्वशम्) हिंसकों को वश में करनेवाले तथा (यदुम्) संयमशील मनुष्य-समाज को(पश्येम) देखें ॥१॥
भावार्थ
जगदीश्वर से मित्रता स्थापित करनेवाले लोग न कभी डरते हैं, न थकते हैं, प्रत्युत सत्कर्मों को करते हुए सदा ही उन्नति के मार्ग पर अग्रसर रहते हैं ॥१॥
पदार्थ
(तव-उग्रस्य-वृष्णः) तुझ प्रतापी सुखवर्षक ऐश्वर्यवान् परमात्मा के (सख्ये) सखित्व—मित्रता में (मा भेम) हम न भय करें—किसी भी भयप्रद या भयावह से दुःख न पा सकें (मा श्रमिष्म) न स्वयं हम खेद को प्राप्त करें—न खिन्न६ हो सकें यह निश्चित है (ते) तेरा (कृतम्) सखिकार्य—मित्रत्व का कार्य (महत्-अभि चक्ष्यम्) महान् सर्वथा प्रशंसनीय—स्तुत्य है७ जिसे हम (तुर्वशं यदुं पश्येम) समीप८ देखते हैं—जो सूँघने को नासिका, स्वाद लेने को जिह्वा, रूप दर्शन के लिये नेत्र, स्पर्श करने को त्वचा, शब्द सुनने को कान—भोग साधन और भोग दिया है तथा दूसरा कार्य मित्रता का है अपवर्ग—मोक्षप्रदान करना जो दूर का है—इस लोक का नहीं (तुर्वश) समीप की तुलना से दूर का कार्य हुआ अपवर्ग—मोक्ष प्रदान कार्य ‘तुर्वश’ तुरन्त वश में होने वाला—मिलने वाला जो९ ‘यदुम्’ यजनीय—सङ्गमनीय कहा जा सकता है१०॥१॥
विशेष
ऋषिः—देवातिथिः (परमात्मदेव में अतन-प्रवेश करने वाला)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥<br>
विषय
देव की ओर कौन जा रहा है ?
पदार्थ
निरन्तर प्रभु की ओर चलनेवाला [देव+अत्] प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि देवातिथि प्रार्थना करता है कि
१. (मा भेम) = हम अभय हों। हम न तो डरें, न किसी को डराएँ ।
२. (मा श्रमिष्म) = हम थक न जाएँ, अर्थात् हम अनथक कार्य करनेवाले हों । हमारे अन्दर शक्ति हो और हम सदा कार्यों में लगे रहें ।
३. हे प्रभो! (उग्रस्य तव) = उदात्त - उत्कृष्ट आपकी (सख्ये) = मित्रता में हमारा निवास हो। ४. (वृष्णः ते) = शक्तिशाली आपका (महत्) = महान् (अभिचक्ष्यम्) = रक्षण-साधन [means of defence] (कृतम्) = किया गया है, अर्थात् हे प्रभो! हमने तो आपको ही अपनी ढाल बनाया है । आपके द्वारा हमने अपने को आसुर आक्रमण से बचाया है। ५. हम अपने को (तुर् वशम्) = हमारी हिंसा करनेवाले इन आन्तर शत्रुओं का नाश करनेवाला तथा (यदुम्) = सदा प्रयत्नशील (पश्येम) = देखें, अर्थात् हम अपने को तुर्वश व यदु बना पाएँ।
मन्त्रार्थ से यह बात स्पष्ट है कि प्रभु की ओर वही व्यक्ति जा रहा है जो — १. निर्भय है। २. अनथक श्रम करनेवाला है । ३. प्रभु को ही अपना मित्र बनाता है । ४. प्रभु को ढाल बनाकर कामादि के आक्रमण से अपनी रक्षा करता है । ५. काम-क्रोधादि को शीघ्र वश में करता है, इसी कार्य के लिए प्रयत्न में लगा रहता है ।
भावार्थ
प्रभु हमारी ढाल हों, फिर पराजय का क्या डर ?
पदार्थ
शब्दार्थ = हे जगदीश्वर ! ( उग्रस्य तव सख्ये ) = अति बलवान् आपकी मित्रता में ( मा भेम: ) = हम किसी से न डरें ( मा श्रमिष्म ) = न थकें ( ते वृष्णः ) = कामना पूरक आपका ( महत् ) = बड़ा ( अभिचक्ष्यम् ) = सर्वतः स्तुति योग्य ( कृतं ) = कर्म है आपकी मित्रता से ( तुर्वशम् ) = समीप स्थित ( यदुम् पश्येम ) = मनुष्य को हम देखें ।
भावार्थ
भावार्थ = हे परमात्मन् ! संसार में यह प्रसिद्ध है, कि जिसका कोई राजा आदि बलवान् मित्र बन जाता है, तब वह मनुष्य साधारण मनुष्य से नहीं डरता, प्राय: उसके अधीन सब मनुष्य हो जाते हैं। ऐसे ही जो पुरुष, प्रबल प्रतापी आप प्रभु की शरण में आ गये और आपको ही अपना मित्र बनाते हैं, वे किसी से भी नहीं डरते उलटा सबको अपना भाई जान, सबके हित में लगे रहते हैं, ऐसे सच्चे भक्तों की सब कामनाओं को आप पूर्ण करते हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
हे परमात्मन् ! (तव सख्ये) आपके मित्र भाव में रहते हुए हम (मा भेम) कभी भय न करें। (मा श्रमिष्म) कभी श्रम से पीड़ित न हों, कभी न थकें। (वृष्णः) सब सुखों की वर्षा करने हारे (ते) तेरा (कृतं) बनाया हुआ यह संसार (अभिचक्ष्यं) साक्षात् स्तुति योग्य, दर्शनीय एवं (महत्) बहुत बड़ा है। हम इसमें (तुर्वशं*) हिंसाशील, जन्म जरा मरण और रोगों से परिपीड़ित या बेसबरा होकर भोग करने हारे या काम से पीड़ित, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि पर वश करने हारे इस जीव को (यदुं) परमेश्वर के नियम में स्थित या यम नियमादि के अभ्यासी होकर विषयों से उपरत हुआ (पश्येम) देख लें।
टिप्पणी
*तुर्वश—तुर्वी हिंसायाम् (भ्वादिः) इत्यतो बाहुलक ‘अशच’ औणादिकः हिंसित हिंस्यते वा व्याध्यादिभिरिति तुर्वशः। यशा, तूरत्वरणहिंसनयोः (दिवादिः) इत्यत तूर्णमश्नुते इति पृषोदरादित्वात्पूर्बपदह्रवकारश्चोपजनः, तुर्वशः असन्तुष्टः। यद्धा तुर्वशः कामो यस्य सः। गद्धा वश कान्तौ (दिवादिः। इत्यत अप। चतुर्षु धर्मादिषु वशोऽस्येतिं चकारलोपेन तुर्वशः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ८, १८ मेध्यातिथिः काण्वः। २ विश्वामित्रः। ३, ४ भर्गः प्रागाथः। ५ सोभरिः काण्वः। ६, १५ शुनःशेप आजीगर्तिः। ७ सुकक्षः। ८ विश्वकर्मा भौवनः। १० अनानतः। पारुच्छेपिः। ११ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः १२ गोतमो राहूगणः। १३ ऋजिश्वा। १४ वामदेवः। १६, १७ हर्यतः प्रागाथः देवातिथिः काण्वः। १९ पुष्टिगुः काण्वः। २० पर्वतनारदौ। २१ अत्रिः॥ देवता—१, ३, ४, ७, ८, १५—१९ इन्द्रः। २ इन्द्राग्नी। ५ अग्निः। ६ वरुणः। ९ विश्वकर्मा। १०, २०, २१ पवमानः सोमः। ११ पूषा। १२ मरुतः। १३ विश्वेदेवाः १४ द्यावापृथिव्यौ॥ छन्दः—१, ३, ४, ८, १७-१९ प्रागाथम्। २, ६, ७, ११-१६ गायत्री। ५ बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० अत्यष्टिः। २० उष्णिक्। २१ जगती॥ स्वरः—१, ३, ४, ५, ८, १७-१९ मध्यमः। २, ६, ७, ११-१६ षड्जः। ९ धैवतः १० गान्धारः। २० ऋषभः। २१ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादाविन्द्रं परमात्मानं प्रार्थयते।
पदार्थः
हे इन्द्र परमात्मन् ! (उग्रस्य) अधार्मिकान् प्रति प्रचण्डस्य (तव) ते (सख्ये) सखित्वे, वयम् (मा भेम) भीता मा भूम, (मा श्रमिष्म) श्रमं प्राप्ता मा भूम। (वृष्णः ते) सुखादीनां वर्षकस्य तव (महत्) महिमोपेतम् (कृतम्) कर्म (अभिचक्ष्यम्) प्रशंसनीयमस्ति। त्वत्कृपया वयम् अस्मद्राष्ट्रे (तुर्वशम्२) हिंसकानां वशकरम्(यदुम्३) संयमशीलं च जनम्। [यदवः इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३। यमेर्दुक् प्रत्ययः।] (पश्येम) अवलोकयेम ॥१॥
भावार्थः
जगदीश्वरस्य सखायो न कदापि बिभ्यति, न श्राम्यन्ति, प्रत्युत सत्कर्माणि कुर्वन्तः सदैवोन्नतिपथेऽग्रेसरा जायन्ते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In the friendship of the Almighty God, we should have no fear and feel no exhaustion. This world created by Him, is the bestower of happiness, beautiful and grand. May we find that lust stricken soul free from passions.
Translator Comment
Griffith following Sayana translates: Turvasa and Yadu as two tribes. This explanation is untenable as there is no historical reference in the Vedas. Turvasa means lust stricken soul. Yadu means free from passion.
Meaning
Let us never feel afraid, let us never tire or feel depressed under your kind care and friendship, commander of blazing lustre. Admirable is your action and prowess, mighty generous lord. We celebrate you and pray we may see that our people and our progeny be industrious and high achievers. (Rg. 8-4-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तव उग्रस्य वृष्णः) તારી પ્રતાપી, સુખવર્ષક, ઐશ્વર્યવાન પરમાત્માની (सख्ये) મિત્રતામાં (मा भेम) અમે ભય ન કરીએ-કોઈથી પણ ભયપ્રદ અથવા ભયાવહથી દુઃખ ન પામીએ. (मा श्रमिष्म) અમે સ્વયં ખેદને પ્રાપ્ત ન થઈએ-ખિન્ન ન બનીએ તે નિશ્ચિત છે. (ते) તારું (कृतम्) સખિકાર્ય-મિત્રતાનું કાર્ય (महत् अभि चक्ष्यम्) મહાન સર્વથા પ્રશંસનીય-સ્તુત્ય છે. જેને અમે (तुर्वशं यदुं पश्येम) નિકટથી નિહાળીએ છીએ-જેમ કે-સૂંઘવા માટે નાક, સ્વાદ લેવા માટે જિહ્વા, રૂપ દર્શન માટે નેત્ર, સ્પર્શ કરવા માટે ત્વચા, શબ્દ સાંભળવા માટે કાન-ભોગ સાધનો અને ભોગ આપેલ છે. તથા બીજું મિત્રતાનું કાર્ય અપવર્ગ છે-મોક્ષ પ્રદાન કરવાનું છે જે દૂરનું છે-આ લોકનું નથી. (तुर्वश) નિકટ પાસે રહેલ કરતા દૂરનું કાર્ય અપવર્ગ છે-મોક્ષ પ્રદાન કાર્ય ‘તુર્વશ’-તુરત વશમાં થનાર-મળનાર જે ‘યદુમ્’-યજનીય સંગમનીય કહી શકાય છે. (૧)
बंगाली (1)
পদার্থ
মা ভেম মা শ্রমিষ্মোগ্রস্য সখ্যে তব।
মহৎ তে বৃষ্ণো অভিচক্ষ্যং কৃতং পশ্যেম তুর্বশং যদুম্।।৬৩।।
(সাম ১৬০৫)
পদার্থঃ হে জগদীশ্বর! (উগ্রস্য তব সখ্যে) অতি বলবান তোমার মিত্রতায় (মা ভেম) আমরা কাউকে ভয় পাই না, (মা শ্রমিষ্ম) ক্লান্ত হই না। (তে বৃষ্ণঃ) হে কামনা পূরক! তোমার (মহৎ) মহান (অভিচক্ষ্যম্) সর্বত্র স্তুতি যোগ্য (কৃতম্) কর্ম রয়েছে। তোমার মিত্রতায় (তুর্বশম্) সমীপ স্থিত (যদুম্ পশ্যেম) মানুষকে আমরা দর্শন করি।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে পরমাত্মা! সমাজে এটা প্রচলিত আছে যে, যার মিত্র রাজা বা বলবান কেউ থাকে, তখন সে সাধারণ মানুষকে ভয় করে না। বরং বেশিরভাগ মানুষ তার অধীনে হয়ে যায়। এমন যেসব ব্যক্তি তোমার মতো মহাপ্রতাপশালীর শরণে আসেন এবং তোমার মিত্র হন, তাঁরা কাউকে ভয় পান না, সকলকে নিজের মিত্র ভাবেন, সকলের ভালো করার জন্য লেগে থাকেন। এমন উপাসকদের সমস্ত আশা তুমি পূরণ করো।।৬৩।।
मराठी (1)
भावार्थ
जगदीश्वराबरोबर मैत्री करणारे लोक कधी घाबरत नाहीत, थकत नाहीत, तर सत्कर्म करत सदैव उन्नतीच्या मार्गावर अग्रेसर होतात. ॥१॥
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