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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1621
    ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    35

    स꣡ नो꣢ वृषन्न꣣मुं꣢ च꣣रु꣡ꣳ सत्रा꣢꣯दाव꣣न्न꣡पा꣢ वृधि । अ꣣स्म꣢भ्य꣣म꣡प्र꣢तिष्कुतः ॥१६२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः꣣ । वृषन् । अमु꣢म् । च꣣रु꣢म् । स꣡त्रा꣢꣯दावन् । स꣡त्रा꣢꣯ । दा꣣वन् । अ꣡प꣢꣯ । वृ꣣धि । अस्म꣡भ्य꣢म् । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः ॥१६२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो वृषन्नमुं चरुꣳ सत्रादावन्नपा वृधि । अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः ॥१६२१॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । नः । वृषन् । अमुम् । चरुम् । सत्रादावन् । सत्रा । दावन् । अप । वृधि । अस्मभ्यम् । अप्रतिष्कुतः । अ । प्रतिष्कुतः ॥१६२१॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1621
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    हे (वृषन्) सुखों की वर्षा करनेवाले, (सत्रादावन्) एक साथ दान देनेवाले, सत्य के प्रेरक वा सृष्टियज्ञ के सम्पादक जगदीश्वर ! (अप्रतिष्कुतः) अविचल (सः) वह आप(अस्मभ्यम्) आपकी आज्ञा में और पुरुषार्थ में वर्तमान हम उपासकों के लिए (अमुं चरुम्) सूर्य के प्रतिबन्धक मेघ के समान इस मोक्षमार्ग में रुकावट डालनेवाले अविद्या, दुराचार आदि को (अपावृधि) दूर कर दो ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य अपने प्रकाश के सञ्चार में बाधा डालनेवाले मेघ रूप कपाट को खोलकर भूमण्डल को प्रकाशित करता है, वैसे ही जगदीश्वर हमारे मोक्ष में बाधक अविद्या, दुष्कर्म आदि को हटाकर हमें मोक्ष प्राप्त कराते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (सः) वह तू (सत्रादावन्) हे सब कुछ भोग पदार्थ देने वाले परमात्मन्!१ (नः) हम उपासकों के लिये (वृषन्) अमृतवर्षक (अमुं चरुम्) उस अपवर्ग—मोक्षरूप अमृतभरे पात्र को (अपावृधि) खोल दे, आशा है तू ऐसा करेगा, कारण कि तू (अस्मभ्यम्) हम उपासकों के लिये (अप्रतिष्कुतः) अस्खलित है—अविचलित है तथा किसी भी प्रकार प्रतीकार करने योग्य नहीं है२॥२॥

    विशेष

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    विषय

    रहस्योद्घाटन Revelation

    पदार्थ

    हे प्रभो ! आप (वृषन्) = शक्तिशाली हैं (सत्रादावन्) = [सत्यमेव ददाति] सत्य के ही प्राप्त करानेवाले हैं । (अप्रतिष्कुतः) = जिन आपका विरोध कोई भी नहीं कर सकता [अप्रतिष्कुतः] तथा जो आप कभी भी ग़लती नहीं कर सकते [अप्रतिस्खलितः] (सः) = ऐसे आप (नः) = हमें (अस्मभ्यम्) = हमारे हित के लिए (अमुं चरुम्) = उस चरु को [मृच्चयो भवति चरुः–यास्क], अर्थात् मिट्टी के ढेररूप इस मृण्मय पार्थिव शरीर को (अपावृधि) = उद्घाटित रहस्यवाला कीजिए। आपकी कृपा से हम इस शरीर के रहस्य को समझें ।

    इस शरीर के रहस्य को न समझने के कारण ही हम आत्मस्वरूप को नहीं पहचान रहे । हम इसे ही आत्मा समझे बैठे हैं। 'चारयति इति चरु:' [चर् to doubt] । यह शरीर हमें आत्मा के विषय में संशयवाला कर देता है । हे प्रभो ! आपकी कृपा से ही हम इस शरीर के स्वरूप का विश्लेषण करके ‘आत्म-स्वरूप' को पहचान पाएँगे। सत्य के दाता आप ही हैं, मैं तो अल्पज्ञतावश असत्य को ही सत्य समझ बैठता हूँ। मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आपकी कृपा से मेरे समक्ष इस मृण्मय शरीर [चरु] का रहस्य स्पष्ट हो जाए ।

    भावार्थ

    हम अपने को शक्तिशाली बनाएँ, सत्य के ग्रहण की वृत्तिवाले बनें और प्रभु प्रार्थना से शरीर के स्वरूप को समझें, जिससे हम अपने को पहचान सकें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (सत्रादावन्) समस्त पदार्थों के एक साथ देने हारे (वृषन्) सबसे श्रेष्ठ, सुखों के वर्षक ! परमात्मन् ! (सः) वह आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (अप्रतिष्कुतः) अद्वितीय, अपराजित, शक्तिमान् कभी सम्मलित न होने वाले, कभी भूलचूक न करने हारे होकर (चरुं) अन्नादि पदार्थों के भोगने हारे अविनाशी देह बन्धन को (अप वृधि) दूर करो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    हे (वृषन्) सुखवर्षक, (सत्रादावन्२) युगपद् दानप्रद सत्यप्रेरक सृष्टियज्ञसम्पादक वा जगदीश्वर ! (अप्रतिष्कुतः) असञ्चलितः।[अप्रतिष्कुतः अप्रतिष्कृतोऽप्रतिस्खलितो वेति निरुक्तम् (६।१६)।] (सः) असौ त्वम् (अस्मभ्यम्) त्वदाज्ञायां पुरुषार्थे च वर्तमानेभ्यः उपासकेभ्यः (अमुं चरुम्) सूर्यप्रतिबन्धकं मेघमिव एतं मोक्षमार्गप्रतिबन्धकं कदाचारादिकम्। [चरुरिति मेघनाम। निघं० १।१०।] (अपावृधि) दूरीकुरु ॥२॥३

    भावार्थः

    यथा सूर्यः स्वप्रकाशसञ्चारबाधकं मेघकपाटमपावृत्य भूमण्डलं प्रकाशयति तथैव जगदीश्वरोऽस्माकं मोक्षबाधकमविद्यादुष्कर्मादिक- मपसार्यास्मान् मोक्षं प्रापयति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, bestowing all objects simultaneously and showering Happiness, Thou, Infallible, remove this bondage of the body!

    Translator Comment

    Remove this bondage' means grant us salvation.

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    Meaning

    Indra, lord of the universe, light of the world, generous lord of wealth, irresistible wielder of power, generous giver of showers, grant us the yajnic prosperity of life and open the doors of freedom and salvation at the end. (Rg. 1-7-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    (सः) તે તું (सत्रादावन्) સર્વ કાંઈ ભોગ વસ્તુ આપનાર પરમાત્મન્ ! (नः) અમારા માટે ઉપાસકોને માટે (वृषन्) અમૃતવર્ષક (अमुं चरुम्) તે અપવર્ગ-મોક્ષરૂપ અમૃત ભરેલ પાત્રને (अपावृधि) ખોલી દે, આશા છે તું એમ કરીશ, કારણ કે તું (अस्मभ्यम्) અમારા માટે ઉપાસકોને માટે (अप्रतिष्कुतः) અસ્ખલિત છે-અવિચલિત છે તથા કોઈ પણ રીતે પ્રતિકાર કરવા યોગ્ય નથી. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा सूर्य आपल्या प्रकाशाच्या संचारात बाधा आणणारे मेघरूपी दरवाजा उघडून भूमंडलाला प्रकाशित करतो, तसेच जगदीश्वर आमच्या मोक्षात बाधक अविद्या, दुष्कर्म इत्यादी हटवून आम्हाला मोक्ष प्राप्त करवितो. ॥२॥

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