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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1629
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रवायू छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    29

    इ꣡न्द्र꣢श्च वायवेषा꣣ꣳ सो꣡मा꣢नां पी꣣ति꣡म꣢र्हथः । यु꣣वा꣡ꣳ हि यन्तीन्द꣢꣯वो नि꣣म्न꣢꣫मापो꣣ न꣢ स꣣꣬ध्र्य꣢꣯क् ॥१६२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣣ । वा꣡यो꣢꣯ । एषाम् । सो꣡मा꣢꣯नाम् । पी꣣ति꣢म् । अ꣣र्हथः । युवा꣢म् । हि । य꣡न्ति꣢꣯ । इ꣡न्द꣢꣯वः । नि꣣म्न꣢म् । आ꣡पः꣢꣯ । न । स꣣꣬ध्र्य꣢क् । स꣣ । ध्र्य꣣꣬क् ॥१६२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रश्च वायवेषाꣳ सोमानां पीतिमर्हथः । युवाꣳ हि यन्तीन्दवो निम्नमापो न सध्र्यक् ॥१६२९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः । च । वायो । एषाम् । सोमानाम् । पीतिम् । अर्हथः । युवाम् । हि । यन्ति । इन्दवः । निम्नम् । आपः । न । सध्र्यक् । स । ध्र्यक् ॥१६२९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1629
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में इन्द्र और वायु के नाम से जीवात्मा और प्राण का साहचर्य वर्णित है।

    पदार्थ

    हे (वायो) प्राण ! तू (इन्द्रः च) और जीवात्मा, तुम दोनों (एषां सोमानाम्) इन शान्त-रसों के (पीतिम् अर्हथः) पान के योग्य हो। (युवाम् हि) तुम दोनों की ओर (इन्दवः) प्रकाशपूर्ण शान्त-रस (सध्र्यक्) एक साथ (यन्ति) आते हैं, (आपः न) जैसे जल (निम्नम्) निचले भूभाग की ओर आते हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य का आत्मा प्राणायाम से और योगसाधना से परमेश्वर के साथ मित्रता संस्थापित करके उससे मधुर शान्त-रस प्राप्त कर सकता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (वायो) हे अध्यात्मजीवनप्रेरक (च) और (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् परमात्मा (एषां सोमानाम्) इन सोमों—उपासनरसों को (पीतिम्) पान को—स्वीकार करने को (अर्हथः) योग्य हो (इन्दवः) आर्द्ररस भरे उपासनारस प्रस्तुत करने वाले उपासक आत्माएँ१ (युवां हि) तेरी ओर ही (यन्ति) जाते हैं (निम्नम्-आपः-न सध्र्यक्) नीचे स्थान—समुद्र को जैसे जलप्रवाह एक दूसरे से मिलकर चले जाते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    इन्द्र और वायु का सोमपान

    पदार्थ

    हे (वायो) = प्राण ! तू (च) = और (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव, जिसे पिछले मन्त्र में ‘नियुत्वान्' उत्तम इन्द्रियरूप अश्वोंवाला कहकर स्मरण किया था, तुम दोनों एषां (सोमानाम्) = इन सोमों के (पीतिम् अर्हथ:) = पान के योग्य हो । प्राणसाधना के बिना वीर्य व रेतस् की ऊर्ध्वगति नहीं होती और इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव [इन्द्र] ही प्राणसाधना करनेवाला होता है । एवं, इन्द्र और वायु मिलकर सोमपान करते हैं ।

    (युवां हि) = निश्चय से तुम दोनों को ही (इन्दवः) = ये सोमकण यन्ति प्राप्त होते हैं (न) = उसी प्रकार स्वाभाविकरूप से जैसे (आपः) = जल (निम्नम् सध्यक्) = निम्न स्थान [slope] की ओर जानेवाले होते हैं। जैसे पानी सहजतया ढलान की ओर जाते हैं उसी प्रकार ये सोमकण इन्द्र और वायु की ओर स्वाभाविकरूप से जाते हैं । इस समय इनकी ऊर्ध्वगति उतनी ही स्वाभाविक हो जाती है जितनी कि पानी की निम्नगति स्वाभाविक है ।

    एवं, स्पष्ट है कि जीवात्मा 'इन्द्र' बने – इन्द्रियों का अधिष्ठाता बने और प्राणों की साधना करे। इस प्रकार जितेन्द्रियता व प्राणायाम द्वारा ही हम सोमरक्षा कर पाएँगे और यह सोमरक्षा ही हमारे जीवन-उत्थान का कारण बनेगी ।

    भावार्थ

    मैं प्राणायाम द्वारा वीर्य की ऊर्ध्वगति करके सोमपान करनेवाला 'इन्द्र' बनूँ ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे वायो ! प्राण और (इन्द्रः च) इन्द्र ! आत्मन् ! आप दोनों ही (सोमानां) ज्ञानों या ब्रह्मानन्द रसों का (पात) पान करने के (अर्हथः) योग्य हैं। (इन्दवः) समस्त सोम और ब्रह्मरस का आनन्द लेने हारे योगी लोग भी (युवां) आप दोनों के प्रति (सध्र्यक्) एक साथ (निम्नं) नीचे ढालू स्थान पर (आपः न) जलों के समान (यन्ति) चले जाते हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रवायुनाम्ना जीवात्मप्राणयोः साहचर्यमाह।

    पदार्थः

    हे (वायो) प्राण ! त्वम् (इन्द्रः च) जीवात्मा च, युवाम् (एषां सोमानाम्) एतेषाम् शान्तरसानाम् (पीतिम् अर्हथः) पानाय योग्यौ भवथः। (युवाम् हि) युवां खलु (इन्दवः) प्रकाशपूर्णाः शान्तरसाः (सध्र्यक्) युगपत् (यन्ति) प्राप्नुवन्ति। कथमिव ? (आपः न) उदकानि यथा (निम्नम्) नीचीनं भूभागं गच्छन्ति तद्वत् ॥२॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    मनुष्यस्यात्मा प्राणायामेन योगसाधनया च परमेश्वरेण सख्यं संस्थाप्य ततो मधुरं शान्तरसं प्राप्तुं प्रभवति ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Prana and soul. Ye both are competent to enjoy the juice of divine pleasure. Yogis go unto Ye, as waters go together to a vale!

    Translator Comment

    God it realizable not in this apparent world, but in the realm of salvation.

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    Meaning

    Indra and Vayu, you two love and deserve the drink of these somas distilled in yajnas. Just as waters altogether flow to the sea, so do all flows of soma and all movements of dedicated devotees end up when they join you. (Rg. 4-47-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वायो) હે અધ્યાત્મજીવન પ્રેરક (च) અને (इन्द्र) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા (एषां सोमानाम्) આ સોમો ઉપાસનારસોના (पीतिम्) પાનને-સ્વીકાર કરવાને (अर्हथः) યોગ્ય છે. (इन्दवः) આર્દ્રરસપૂર્ણ ઉપાસનારસ પ્રસ્તુત કરનારા ઉપાસક આત્માઓ (युवां हि) તારી તરફ જ (यन्ति) જાય છે. (निम्नम् आपः न सध्र्यक्) નીચેના સ્થાનમાં-જેમ પાણીનો પ્રવાહ નીચાણ સ્થાનમાં વહીને એક બીજાને મળીને સમુદ્રમાં ચાલ્યો જાય છે. (૨)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाचा आत्मा प्राणायामाने व योगसाधनेने परमेश्वराबरोबर मैत्री करून त्याच्याकडून मधुर शांतरस प्राप्त करू शकतो. ॥२॥

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