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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1630
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रवायू छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
    45

    वा꣢य꣣वि꣡न्द्र꣢श्च शु꣣ष्मि꣡णा꣢ स꣣र꣡थ꣢ꣳ शवसस्पती । नि꣣यु꣡त्व꣢न्ता न ऊ꣣त꣢य꣣ आ꣡ या꣢तं꣣ सो꣡म꣢पीतये ॥१६३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा꣡यो꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । च꣣ । शुष्मि꣡णा꣢ । स꣣र꣡थ꣢म् । स꣣ । र꣡थ꣢꣯म् । श꣣वसः । पतीइ꣡ति꣢ । नि꣣यु꣡त्व꣢न्ता । नि꣣ । यु꣡त्व꣢꣯न्ता । नः꣣ । ऊत꣡ये꣢ । आ । या꣣तम् । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये ॥१६३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायविन्द्रश्च शुष्मिणा सरथꣳ शवसस्पती । नियुत्वन्ता न ऊतय आ यातं सोमपीतये ॥१६३०॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वायो । इन्द्रः । च । शुष्मिणा । सरथम् । स । रथम् । शवसः । पतीइति । नियुत्वन्ता । नि । युत्वन्ता । नः । ऊतये । आ । यातम् । सोमपीतये । सोम । पीतये ॥१६३०॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1630
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    हे (वायो) प्राण ! तू (इन्द्रः च) और जीवात्मा (शुष्मिणा) बलवान् (शवसः पती) बल के रक्षक और (नियुत्वन्ता) सदा कार्य-तत्पर रहते हुए (नः ऊतये) हमारी रक्षा के लिए(सरथम्) एक ही देह-रथ पर चढ़कर (सोमपीतये) शान्त रस के पानार्थ (आयातम्) आओ ॥३॥

    भावार्थ

    जीवात्मा प्राण के ही साथ देह में आता है और उसी के साथ जीवन में सब कार्य सिद्ध करता हुआ योगाभ्यास द्वारा शान्ति प्राप्त करता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (वायो) हे अध्यात्मजीवन के प्रेरक (च) और (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (शुष्मिणा) बलवान् (शवसः-पती) बलों के पालक (नियुत्वन्ता) अमृत अन्नभोग वाला—अमृतान्न भोग देने वाला (सोमपीतये) उपासनारस पान के लिये—स्वीकार करने के लिये आ॥३॥

    विशेष

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    विषय

    सोमपान के कुछ लाभ

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र में 'शवस्' व 'शुष्म' दोनों शब्द बलवाचक हैं । वह बल जो हमें सदा गतिशील बनाये रखता है ‘शवस्' कहलाता है तथा शत्रुओं का शोषण करनेवाला बल 'शुष्म' होता है । वायु और इन्द्र जब सोम की रक्षा करके सोमकणों को शरीर में ही व्याप्त करते हैं तब हम सदा क्रियाशील व क्रोधादि के शोषण करनेवाले, अर्थात् सरलता से क्षुब्ध [upset] नहीं होते, अत: कहते हैं कि (वायो) = हे प्राण ! तू (इन्द्रः च) = और इन्द्र ' जीवात्मा' (शुष्मिणा) = शत्रु-शोषक बलवाले हो तथा (शवसस्पती) = सदा क्रियाशील बनाये रखनेवाली शक्ति से युक्त हो । (सरथम्) = तुम दोनों शरीररूप समान रथ पर आरूढ़ हुए-हुए (नियुत्वन्ता) = प्रशस्त इन्द्रियरूप अश्वोंवाले बनकर (सोमपीतये) = सोमपान के लिए (आयातम्) = आओ । फिर इस प्रकार (नः) = हमारी ऊतये रक्षा के लिए होओ । इस मन्त्र में सोमपान का लाभ इस प्रकार व्यक्त हुआ है

    १. शुष्मिणा = ये हमें क्रोध आदि शत्रुओं का शोषण करने में सहायक होंगे।

    २. शवसस्पती = ये हमें सदा क्रियाशील बने रहने के लिए शक्ति देंगे, अर्थात् हममें किसी प्रकार की थकावट न आएगी ।

    ३. नियुत्वन्ता = हमारे इन्द्रियरूप घोड़े प्रशस्त बनेंगे। 

    ४. ऊतये हम सब रोगों से बचे रहेंगे । इस प्रकार सोमपान करके ही हम अपने जीवन को सुन्दर, दिव्य गुणों से युक्त करके मन्त्र के ऋषि ‘वामदेव' बनते हैं । 

    भावार्थ

    सोमपान के द्वारा हम शक्तिशाली, क्रियाशील, उत्तम इन्द्रियोंवाले व नीरोग बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (वायो) ज्ञानवन् ! (इन्द्रः च) और ऐश्वर्यवन् ! आत्मन् जीव ! (शवसस्पती) आप दोनों बल के परिपालक हैं, आप (नियुत्वता) मनरूप अश्व से युक्त (शुष्मिणा) बलशाली होकर (सोमपीतये) आत्मज्ञान रूप सोम के पान करने और (नः) हमारी (ऊतये) रक्षा करने के लिये (आयातम्) आइये, हमें प्राप्त हो। इन्द्रियों का आत्मा और प्राण के प्रति प्रजाओं का राजा या नरपति के प्रति और योगियों का भी आत्मा और प्राण के प्रति समानरूप से वचन हैं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    हे (वायो) प्राण ! त्वम् (इन्द्रः च) जीवात्मा च (शुष्मिणा) शुष्मिणौ बलवन्तौ, (शवसः पती) बलस्य पालकौ, (नियुत्वन्ता) सदा नियुक्तौ सन्तौ (नः ऊतये) अस्माकं रक्षणाय (सरथम्) एकमेव देहरथम् आरुह्य (सोमपीतये) शान्तरसपानाय (आयातम्) आगच्छतम् ॥३॥२

    भावार्थः

    जीवात्मा प्राणेनैव सहचरितो देहमागच्छति, तेनैव सहचरितश्च जीवने सर्वाणि कार्याणि साध्नुवन् योगाभ्यासेन शान्तिं प्राप्नोति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O learned person and glorious soul, Ye both are the lords of strength. Coupled with horse-like fast mind, come Ye to our succour, for enjoying spiritual pleasure !

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    Meaning

    Vayu and Indra, most powerful, commander and ruler of the power and force of existence, controllers of the dynamics of energy, come hither together by the same chariot as two in one for the protection and promotion of our yajna of production, honour and excellence. (Rg. 4-47-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वायो) હે અધ્યાત્મ જીવનનાં પ્રેરક, (च) અને (इन्द्रः) ઐશ્વર્યવાન, (शुष्मिणा) બળવાન, (शवसः पती) બળોના પાલક (नियुत्वन्ता) અમૃત અન્નભોગવાળા-અમૃતાન્ન ભોગ આપનાર (सोमपीतये) ઉપાસનારસનું પાન કરવા માટે-સ્વીકાર કરવા માટે આવ-આવી જા. (૩)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवात्मा प्राणाबरोबरच देहात येतो व त्याच्या बरोबरच जीवनात सर्व कार्य सिद्ध करत योगाभ्यासाद्वारे शांती प्राप्त करतो. ॥३॥

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