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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1631
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
43
अ꣡ध꣢ क्ष꣣पा꣡ परि꣢꣯ष्कृतो꣣ वा꣡जा꣢ꣳ अ꣣भि꣡ प्र गा꣢꣯हसे । य꣡दी꣢ वि꣣व꣡स्व꣢तो꣣ धि꣢यो꣣ ह꣡रि꣢ꣳ हि꣣न्व꣢न्ति꣣ या꣡त꣢वे ॥१६३१॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡ध꣢꣯ । क्ष꣣पा꣢ । प꣡रि꣢꣯ष्कृतः । प꣡रि꣢꣯ । कृ꣣तः । वा꣡जा꣢꣯न् । अ꣡भि꣢ । प्र । गा꣣हसे । य꣡दि꣢꣯ । वि꣣व꣡स्व꣢तः । वि꣣ । व꣡स्व꣢꣯तः । धि꣡यः꣢꣯ । ह꣡रि꣢꣯म् । हि꣣न्व꣡न्ति꣢ । या꣡त꣢꣯वे ॥१६३१॥
स्वर रहित मन्त्र
अध क्षपा परिष्कृतो वाजाꣳ अभि प्र गाहसे । यदी विवस्वतो धियो हरिꣳ हिन्वन्ति यातवे ॥१६३१॥
स्वर रहित पद पाठ
अध । क्षपा । परिष्कृतः । परि । कृतः । वाजान् । अभि । प्र । गाहसे । यदि । विवस्वतः । वि । वस्वतः । धियः । हरिम् । हिन्वन्ति । यातवे ॥१६३१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1631
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 17; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा और जीवात्मा का विषय वर्णित करते हैं।
पदार्थ
हे मानव ! (यदि) जब (विवस्वतः) तमोगुणों को हटानेवाले परमेश्वर की (धियः) प्रज्ञाएँ (हरिम्) तुझ मनुष्य को (यातवे) पुरुषार्थ करने के लिए (हिन्वन्ति) प्रेरित करती हैं, तब (क्षपा)परमेश्वर की दोष क्षीण करने की शक्ति से (परिष्कृतः)संस्कृत हुआ तू (वाजान्) विविध ऐश्वर्यों में (अभि प्र गाहसे) अवगाहन अर्थात् रमण करने लगता है ॥१॥
भावार्थ
आत्मशुद्धि और पुरुषार्थ से ही मनुष्य विविध सम्पदाएँ पा सकते हैं ॥१॥
पदार्थ
(क्षपा-अध) रात्रि के२ अनन्तर उषाकाल—प्रभातवेला में (परिष्कृतः) उपासक द्वारा भूषित पूजित स्तुत हुआ तू परमात्मन्! (वाजान्-अभि प्रगाहसे) अमृत अन्नभोगों को३ प्राप्त कराता है (यदी विवस्वतः-धियः) यदि उपासकजन४ की स्तुतिवाणियाँ५ (हरि यातवे हिन्वन्ति) तुझ दुःखहर्ता परमात्मा को उपासक के प्रति प्राप्त होने को प्रेरित करती हैं—खींचती हैं प्रेरणा देती हैं॥१॥
विशेष
ऋषिः—काश्यपौ रेभसूनू ऋषी (द्रष्टा से सम्बन्ध स्तोता और साक्षात्कर्ता उपासक)॥ देवता—पवमानः सोमः (धारारूप में प्राप्त होने वाला परमात्मा)॥ छन्दः—अनुष्टुप्॥<br>
विषय
व्रतों से शरीर-नैर्मल्य
पदार्थ
'क्षप्' धातु का अर्थ व्रत करना तथा कई वस्तुओं से अपने को अलग रखना [ to fast, to be abstinent] है। गत मन्त्र में सोमपान का उल्लेख था । उसका प्रबल इच्छुक क्या करता है ? (अध) = सबसे प्रथम तो (क्षपा) = व्रतों के द्वारा (परिष्कृतः) = परिशुद्ध शरीरवाला हुआ हुआ तू (वाजान्) = शक्तियों का (अभिप्रगाहसे) = आलोडन करता है । व्रतों से शरीर के सब मल नष्ट होकर कायाकल्प-सा हो जाता है और शरीर में नवशक्ति का संचार हो जाता है ।
(यत ई) = और निश्चय से यह व्रत करनेवाला (विवस्वतः) = सूर्य से - सूर्य के समान प्रकाशमय मस्तिष्कवाले आचार्य से (धियः) = ज्ञानों को [अभिप्रगाहसे] = प्राप्त करता है । 'विवस्वतः' यह पञ्चमी विभक्ति नियमपूर्वक ज्ञान की प्राप्ति का संकेत कर रही है ।
ये नवशक्ति-सम्पन्न शरीरवाले व्यक्ति (यातवे) = राक्षसों के लिए, आसुरी वृत्तियों को दूर करने के लिए [मशकाय धूम:- मशक निवृत्ति के लिए धुँआ है] (हरिः) = उस सब दुःखहरणशील प्रभु को (हिन्वन्ति) = प्राप्त होते हैं। उस प्रभु की स्तुति करते हैं। प्रभु की स्तुति करने के कारण ही ये ‘रेभ'=स्तोता कहलाते हैं। सदा उत्तम प्रेरणा को सुननेवाले होने से ‘सूनु' नामवाले होते हैं । 'रेभः सूनु' ही इस मन्त्र का ऋषि है। प्रभु-स्मरण के कारण इनके पास आसुरी वृत्तियाँ फटकतीं ही नहीं।
भावार्थ
हम व्रतों से परिष्कृत जीवनवाले बनकर- -१. शक्ति का सम्पादन करें २. ज्ञान में सूर्य के समान चमकें तथा ३. आसुर वृत्तियों को दूर करने के लिए प्रभु का स्मरण करें ।
विषय
missing
भावार्थ
(यदि) जब (विवस्वतः) सूर्य के समान प्रेरक आदित्ययोगी की (धियः) अपनी चित्तवृत्तियां अपनी ध्यान और धारणा शक्तियों को (हरिं) प्राण, या मन, या दुःखहारी प्रभु को (यातवे) आत्मा के समीप प्राप्त होने के लिये (हिन्वन्ति) प्रेरित करता है (अध) तब हे सोमरूप आत्मन् ! (क्षपा*) अन्धकार, अज्ञानों का नाश करने हारी चित् शक्ति से (परिष्कृतः) सुभूषित होकर (वाजान्) नाना बलों और बल से साध्य कार्यों या ज्ञानों को (अभि) साक्षात् स्वयं तू (प्र गाहसे) पार कर जाता है।
टिप्पणी
‘वाजी अभिप्रगाहते’ इति ऋ०। *क्षपा क्षपयित्री सेना, इति सायणः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ७ शुनःशेप आजीगतिः। २ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ३ शंयुर्वार्हस्पत्यः। ४ वसिष्ठः। ५ वामदेवः। ६ रेभसूनु काश्यपौ। ८ नृमेधः। ९, ११ गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १० श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। १२ विरूपः। १३ वत्सः काण्वः। १४ एतत्साम॥ देवता—१, ३, ७, १२ अग्निः। २, ८-११, १३ इन्द्रः। ४ विष्णुः। ५ इन्द्रवायुः। ६ पवमानः सोमः। १४ एतत्साम॥ छन्दः—१, २, ७, ९, १०, ११, १३, गायत्री। ३ बृहती। ४ त्रिष्टुप्। ५, ६ अनुष्टुप्। ८ प्रागाथम्। ११ उष्णिक्। १४ एतत्साम॥ स्वरः—१, २, ७, ९, १०, १२, १३, षड्जः। ३, ९, मध्यमः, ४ धैवतः। ५, ६ गान्धारः। ११ ऋषभः १४ एतत्साम॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मजीवात्मविषयमाह।
पदार्थः
हे मानव ! (यदि) यदा (विवस्वतः) तमोगुणान् विवासनवतः परमेश्वरस्य (धियः) प्रज्ञाः (हरिम्) मनुष्यं त्वाम्। [हरयः इति मनुष्यनामसु पठितम्। निघं० २।३।] (यातवे) यातुम्, पुरुषार्थं कर्तुम् (हिन्वन्ति) प्रेरयन्ति, तदा (क्षपा) क्षपया, परमेश्वरस्य दोषक्षपणशक्त्या (परिष्कृतः) संस्कृतः त्वम् (वाजान्) विविधानि ऐश्वर्याणि (अभि प्रगाहसे) अभ्यालोडयसि, तेषु ऐश्वर्येषु रमसे इत्यर्थः। [गाहू विलोडने, भ्वादिः] ॥१॥
भावार्थः
आत्मशुद्ध्या पुरुषार्थेनैव च मनुष्या विविधाः सम्पदः प्राप्तुं क्षमन्ते ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When the mental attitudes of a Yogi are urged to lean towards God, then, O soul, adorned with the force of mind, that dispels darkness and ignorance, thou absorbest thyself in mighty adventures!
Meaning
When the thoughts and actions of bright celebrants invoke, invite and inspire Soma to move, initiate and bless, then the divine spirit, exalted by the songs, moves toward battles and inspires, energises and exalts their mind and courage for victory. (Rg. 9-99-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (क्षपा अध) રાત્રિ પછી ઊષાકાલ-પ્રભાતકાલમાં (परिष्कृतः) ઉપાસક દ્વારા વિભૂષિત, પૂજિત, સ્તુતિ કરેલ તું પરમાત્મન્ ! (वाजान् अभि प्रगाहसे) અમૃત અન્નભોગને પ્રાપ્ત કરાવે છે. (यदी विवस्वतः धियः) જે ઉપાસકજનોની સ્તુતિ વાણીઓ (हरि यातवे हिन्वन्ति) તું દુઃખહર્તા પરમાત્માને ઉપાસક પ્રત્યે પ્રાપ્ત થવાને પ્રેરિત કરે છે-ખેંચે છે-પ્રેરણા આપે છે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
आत्मशुद्धी व पुरुषार्थानेच माणसे विविध संपदा प्राप्त करू शकतात. ॥१॥
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