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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1674
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - विष्णुर्देवो वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
35
अ꣡तो꣢ दे꣣वा꣡ अ꣢वन्तु नो꣣ य꣢तो꣣ वि꣡ष्णु꣢र्विचक्र꣣मे꣢ । पृ꣣थिव्या꣢꣫ अधि꣣ सा꣡न꣢वि ॥१६७४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡तः꣣ । दे꣣वाः꣢ । अ꣣वन्तु । नः । य꣡तः꣢꣯ । वि꣡ष्णुः꣢꣯ । वि꣣चक्रमे꣢ । वि꣣ । चक्रमे꣢ । पृ꣣थिव्याः꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । सा꣡न꣢꣯वि ॥१६७४॥
स्वर रहित मन्त्र
अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्या अधि सानवि ॥१६७४॥
स्वर रहित पद पाठ
अतः । देवाः । अवन्तु । नः । यतः । विष्णुः । विचक्रमे । वि । चक्रमे । पृथिव्याः । अधि । सानवि ॥१६७४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1674
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में जगदीश्वर का शरीर में व्याप्त होना वर्णित है।
पदार्थ
(यतः) क्योंकि (विष्णुः) व्यापक जगदीश्वर (पृथिव्याः) पार्थिव शरीर के (सानवि अधि) उच्च प्रदेश मस्तिष्क में (विचक्रमे) व्याप्त है, (अतः) इसी कारण (देवाः) विद्वान्, जन, उसकी कृपा से मस्तिष्क द्वारा ज्ञान पाकर (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें ॥६॥
भावार्थ
परमेश्वर ही शरीर के मस्तिष्क आदि अङ्गों में स्थित हुआ उनके द्वारा सब ज्ञान-ग्रहण आदि करवाता है ॥६॥
पदार्थ
(पृथिव्याः-अधि सानवि) पृथिवीलोक से लेकर ऊपर द्युलोक तक में (यतः-विष्णुः-विचक्रमे) जिससे कि व्यापक परमात्मा ने अपनी व्याप्तिरूप विक्रम क्रिया है (अतः) इससे वह परमात्मा सर्वत्र है (देवाः-नः-अवन्तु) जीवन्मुक्त आत्माएँ हमें उस व्यापक परमात्मा का श्रवण एवं बोध करावे६॥६॥
विशेष
<br>
विषय
शिखर पर
पदार्थ
(यतः) = क्योंकि (विष्णुः) = व्यापक मनोवृत्तिवाले ने (विचक्रमे) = विशेषरूप से तीन पगों को रक्खा है–उसने मस्तिष्क में ज्ञान को भरने का प्रयत्न किया है, हाथों को यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगाया है तथा हृदय को भक्ति से परिपूर्ण किया है, (अतः) = इसलिए (नः) = हमारे (देवाः) = दिव्य गुण (पृथिव्याः) = इस पार्थिव शरीर के (अधिसानवि) = शिखर पर अवन्तु उन्नत करें, प्राप्त कराएँ ।
उल्लिखित मन्त्रार्थ में यह बात स्पष्ट है कि तीन पगों को रखने के कारण यह मनुष्य 'विष्णु' है। ज्ञान, कर्म व भक्तिरूप तीन कदमों के कारण उसमें दिव्य गुणों की उत्पत्ति होती है, और ये दिव्य गुण उसे उन्नति के शिखर पर पहुँचाते हैं। इस पार्थिव शरीर में जितना ऊँचा उठना सम्भव है, उतना इसी प्रकार हम पहुँच सकते हैं।
उन्नति का अनुपात व्यापकता मूलक ही है । जितनी व्यापक हमारी मनोवृत्ति होगी उतनी ही अधिक उन्नति हम कर पाएँगे। व्यापाक मनोवृत्तिवाला व्यक्ति ही 'विष्णु' है— यह उन्नति के शिखर पर पहुँचता है।
भावार्थ
‘ज्ञान, कर्म व भक्ति' की त्रयी, दिव्य गुणों को उत्पन्न करके, हमें उन्नति के शिखर पर ले जानेवाली हो ।
विषय
missing
भावार्थ
(यत्) जिस कारण से (विष्णुः) सर्वव्यापक परमेश्वर (विचक्रमे) सर्व संसार को रचता और चलाता है (अतः) उसी बल से (देवाः) समस्त दिव्य पदार्थ अग्नि, वायु, जल, पृथिवी, आकाश आदि भूत और सूर्य, चन्द्र आदि सब लोक, या विद्वान्गण (पृथिव्याः) इस लोक के (अधि सानवि) उच्च से उच्च भाग पर या उत्कृष्ट पद मोक्ष के विषय में भी (नः) हमें (अवन्तु) प्राप्त करावें। इन मन्त्रों पर भाष्यकारों का अद्भुत मतभेद है और वह सभी विचार योग्य है। हम संक्षेप से उल्लेख करते हैं— (१) सायण—(विष्णुः) त्रिविक्रमावतारधारी ने इस जगत् को उद्देश करके (विचक्रमे) विशेष रूप से क्रमण किया और तब (त्रेधा पदं निदधे=त्रिभिः प्रकारः स्वकीयं पदं निक्षिप्तवान्) तीन प्रकारों से अपना पद रक्खा। (अस्य पांसुले समूढं=विष्णोः धूलियुक्ते पादस्थाने इदं सर्व जगत् सम्यगन्तर्भूतम्) उस विष्णु के धूली वाले पैर में यह सब जगत् भली प्रकार छिपा है। (२) उव्वट—यज्ञ में दक्षिण शकट के दायें चक्र के समीप सुवर्ण रख कर इस मन्त्र से होम करता है। (‘इदं’ ‘जगत्’ ‘विष्णुर्विचक्रम’ विक्रान्तवान्, सर्वप्राणिनो हि भूतेन्द्रियमनोजीवकायेनाविशति इति विष्णुः किंच “त्रेधा निदधे पदं” पद्यतं ज्ञायते अनेनेति पदं भूम्यन्तरिक्षद्युलोकेषु अग्निवायुसूर्यरूपेण त्रिधा निहितवान् पदं। किंच “समूढमस्य पांसुरे” अस्य विष्णोरन्यत् पदान्तरं विज्ञानघनानन्दमजमद्वैतमक्षरमित्येवंल क्षणम् समूढमन्तर्हितमविज्ञातमकृतात्मभिः। पांसुरे लुप्तोपममेतत्। पासुल इव प्रदेशे निहितं न दृश्यते तत्समूढमिति, अर्थात्–सब प्राणियों में पंचभूत इन्द्रिय मन और जीव इन सब में प्रवेश करने से वह विष्णु है। उसने इस जगत् का क्रमण किया, जिससे ज्ञान किया जाय वह ‘पद’ है। भूमि, अन्तरिक्ष और द्युलोक में अग्नि, वायु, सूर्य, रूप से तीन रूपों में वह पद (ज्ञानसाधन) या ज्ञापक लिंग रक्खा। इस ही विष्णु का अन्य एक ‘पद’ है विज्ञानघन, आनन्दस्वरूप, अज, अद्वितीय, अक्षर स्वरूप जिसको अकृतात्मा, असाधक, अविद्वान् पुरुष नहीं जानते। यह लुप्तोपमा है। जिस प्रकार धूल भरे स्थान में पड़ी वस्तु नहीं दीखती उस प्रकार इत्यादि। (३) महीधर—इस भाष्यकार ने सायण और उब्वट दोनों का अंश लिया है। इतना विशेष लिखा है कि (“समूढमस्य पांसुरे” पांसवो भूम्यादिलोकरूपाः विद्यन्ते यस्य तत्पासुरं तस्मिन् पांसुरे अस्य विष्णोः पदं समूढं सम्यग् अन्तर्भूतं विश्वमिति शेषः यद्वेति उव्वटवत्) अर्थात् पांसुरे—भूमि आदि लोक जिसमें स्थित हैं उस पांसुर पद में सब विश्व छिपा है। ‘यद्वा’ से आगे दूसरा अर्थ उव्वट के समान ही है। ग्रीफिथ—‘इस संसार में विष्णु ने पैर रक्खे, तीन बार उसने पैर जमाये और सब उसके पैर की धूल में जमा हो गया’। सायण और महीधर ने यह मन्त्र पौराणिक आशय को लेकर लगाया है। उव्वट को वह अर्थ सम्मत नही। उसने पद का अर्थ ज्ञापक लिङ्ग किया है। और संसार में ईश्वर के तीन ज्ञापक अग्नि, वायु, और सूर्य बतलाये हैं। और चतुर्थ ज्ञापक वह परम अक्षर बतलाया है जिसका ज्ञान योगी मुमुक्षु लोग करते हैं। सायण के आशय से विष्णु ने तीन चरण रक्खे और धूलियुक्त है चरण में समस्त लोक छिपे हैं। उसके मत में ‘पद’ क्या वस्तु है यह प्रतीत नही होता। महीधर ने ‘पद’ शब्द की उव्वट कृत व्याख्या को माना है। और भूम्यादिलोकमय पांसु से युक्त समस्त ब्रह्माण्ड को एक पद माना है। और अग्नि, वायु, सूर्य रूप से तीनों लोकों में विष्णु का एक एक ज्ञापक भी स्वीकार किया है। इसमें महीधर के मत में त्रिविक्रम का निरूपण आलंकारिक है। महर्षि दयानन्द—(इदं) प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत् को व्यापक ईश्वर ने (विचक्रमे) यथायोग्य प्रकृति परमाण्वादि पादों को अर्थात् अंशों को विक्षेप करके सावयव किया। इस जगत् के (पांसुरे) प्रशान्त रेणुओं वाले अन्तरिक्ष में (त्रेधा निदधे पदं) और तीन प्रकार से प्राप्त करने योग्य ‘पद’ धरा। वह उत्तम रीति से जानने योग्य पदार्थ ‘पद’ कहता है। भावार्थ यह है कि यह तीन प्रकार का संसार बनाया (१) प्रत्यक्ष पृथिवीमय जो प्रकाश से रहित है, (२) कारण रूप अदृश्य, (३) प्रकाशमय सूर्यादिक। (२) धर्माणि = अग्निहोत्र आदि, (सा०) कर्माणि=कर्म, (उव्वटो महीधरश्च) स्वस्वभावजान्य धर्म, (दया०), अत: इन तीन लोकों में, (सा०) तीनों पदों से (उ०, म०) (३) विष्णोः कर्माणि=वीर्याणि (उ०), सृष्टिसंहारादि (म०), जगद्रचन पालनन्यायकरणप्रलय आदि (द०), व्रतानि=अग्निहोत्रादि (सा०), लौकिकवैदिककर्म (म०), कर्म=आधान, पशु सोम याग आदि, अथवा अग्नि वायु और सूर्य का अपना अपना कार्य। (४) विष्णोः परमं पदं=उत्कृष्ट स्थान (सा०), विज्ञानघनबहुल आनन्दस्वरूप विष्णु का परमपद आदित्य (उ०), मोक्षाख्य (द०)। (५) समिन्धते-दीपयन्ति (सा०, उ०, य०) प्रकाशयन्ते प्राप्नुवन्ति (द०)। (६) देवाः=विष्णु आदि (सा०) विद्वान् लोग और अग्नि आदि पदार्थ (द०)।
टिप्पणी
‘पृथिव्या सप्तधाममिः’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जगदीश्वरस्य शरीरव्यापित्वमाह।
पदार्थः
(यतः) यस्मात् (विष्णुः) व्यापको जगदीश्वरः (पृथिव्याः) पार्थिवायाः तन्वाः (सानवि अधि) उच्चप्रदेशे मस्तिष्के(विचक्रमे) व्याप्तोऽस्ति, (अतः) अस्मादेव कारणात् (देवाः) विद्वांसो जनास्तत्कृपया मस्तिष्कात् ज्ञानं प्राप्य (नः) अस्मान्(अवन्तु) रक्षन्तु ॥६॥२
भावार्थः
परमेश्वर एव शरीरस्य मस्तिष्कादिष्वङ्गेषु स्थितस्तैः सर्वं ज्ञानग्रहणादिकं कारयति ॥६॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as the All-pervading God creates mid sustains the universe, so should the forces of nature and learned persons take us to the highest stage of salvation on the earth.
Meaning
May the scholars of light and vision favour and protect us with knowledge of the seven stages of creation from earth to Prakrti on top through which Vishnu, lord omnipresent, created the universe (of five elements, Virat and Prakriti). (Rg. 1-22-16)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (पृथिव्याः अधि सानवि) પૃથિવીલોકથી લઈને ઉપર દ્યુલોક સુધીમાં (यतः विष्णुः विचक्रमे) જેથી વ્યાપક પરમાત્માએ પોતાની વ્યાપ્તિરૂપથી વિક્રમ-પરાક્રમ કરેલ છે. (अतः) તેથી તે પરમાત્મા સર્વત્ર છે. (देवाः नः अवन्तु) જીવન મુક્ત આત્માઓ અમને તે વ્યાપક પરમાત્માનું શ્રવણ અને જ્ઞાન કરાવે. (૬)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरच शरीराच्या मस्तक इत्यादी अंगात स्थित होऊन त्यांच्याद्वारे सर्व ज्ञान-ग्रहण इत्यादी करवितो. ॥२॥
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