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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1695
    ऋषिः - विश्वामित्रः प्रागाथः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    44

    इ꣡न्द्रा꣢ग्नी तवि꣣षा꣡णि꣢ वां स꣣ध꣡स्था꣢नि꣣ प्र꣡याँ꣢सि च । यु꣣वो꣢र꣣प्तू꣣र्यं꣢ हि꣣त꣢म् ॥१६९५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । त꣣विषा꣡णि꣢ । वा꣣म् । स꣣ध꣡स्था꣢नि । स꣣ध꣢ । स्था꣣नि । प्र꣡या꣢꣯ꣳसि । च꣣ । युवोः꣢ । अ꣣प्तू꣡र्य꣢म् । अ꣣प् । तू꣡र्य꣢꣯म् । हि꣣त꣢म् ॥१६९५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राग्नी तविषाणि वां सधस्थानि प्रयाँसि च । युवोरप्तूर्यं हितम् ॥१६९५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । तविषाणि । वाम् । सधस्थानि । सध । स्थानि । प्रयाꣳसि । च । युवोः । अप्तूर्यम् । अप् । तूर्यम् । हितम् ॥१६९५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1695
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    तृतीय ऋचा उत्तरार्चिक में १५७८ क्रमाङ्क पर जीवात्मा और परमात्मा के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ आत्मा और मन का विषय कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (वाम्) तुम दोनों के (तविषाणि) बल (प्रयांसि च) और प्रयत्न (सधस्थानि) साथ मिलकर होते हैं।(युवोः) तुम दोनों का (अप्तूर्यम्) कर्मों की शीघ्रता का गुण(हितम्) हितकर होता है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य का आत्मा और मन परस्पर मिलकर ही ज्ञान एकत्र करके, पुरुषार्थ करके बल तथा कर्मों में सिद्धि प्राप्त करते हैं ॥३॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १५७८)

    विशेष

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    विषय

    इन्द्र और अग्नि के विकास का लाभ

    पदार्थ

    इन्द्राग्नी के विकास का उल्लेख करके अब कहते हैं कि हे (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के तत्त्वो ! (वाम्) = आप दोनों में ही (तविषाणि) = सब शक्तियाँ निहित हैं । १. (सध-स्थानि) = मिलकर ठहरने की भावनाएँ भी आप दोनों में ही निहित हैं । बल और प्रकाश के अभाव में पशु-प्रवृत्ति जन्म लेती है और मनुष्य परस्पर विरोध करते रहते हैं । बलवान् व ज्ञानी बनकर वे मिलकर चलना सीखते हैं। ३. (प्रयांसि) = आनन्द व प्रसन्नताएँ भी इन्हीं इन्द्राग्नी में आश्रित हैं । इन दोनों तत्त्वों के अभाव में मनुष्य आनन्द का अनुभव नहीं कर पाता । ४. हे इन्द्राग्नी ! (युवोः) = आप दोनों में ही (अप्तूर्यम्) = [Zeal] कर्मों के प्रति उत्साह [अप्तुर्-active] (हितम्) = रखा हुआ है । इन्द्राग्नी के अभाव में मनुष्य आलसी होता है— उसमें कर्मों के प्रति किसी प्रकार का उत्साह नहीं होता । एवं, इन्द्राग्नी के चार लाभ हैं – १. शक्ति, २. मेल, ३. प्रसन्नता, ४. उत्साह ।

    भावार्थ

    हम इन्द्राग्नी के विकास के द्वारा शक्ति सम्पन्न बनें, मेल की भावनावाले हों, प्रसन्नता व उत्साह से हमारा जीवन भरपूर हो ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    ‘इन्दाग्नी तविषाणि वा०’ यह भी प्रतकिमान है। व्याख्या देखो अविकल सं० [ १५७८ ] पृ० ६७१।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तृतीया ऋगुत्तरार्चिके १५७८ क्रमाङ्के जीवात्मपरमात्मनोर्विषये व्याख्याता। अत्रात्ममनसोर्विषय उच्यते।

    पदार्थः

    हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (वाम्) युवयोः (तविषाणि)बलानि (प्रयांसि च) प्रयत्नाश्च (सधस्थानि) सहकृतानि भवन्ति। (युवोः) युवयोः (अप्तूर्यम्) कर्मणि त्वरितत्वम्(हितम्) हितकरं जायते ॥३॥२

    भावार्थः

    मनुष्यस्यात्मा मनश्च परस्परं मिलित्वैव ज्ञानं संचित्य पुरुषार्थं कृत्वा बलं कर्मसु सिद्धिं च प्राप्नुतः ॥३॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O God and soul, your forces work harmoniously, and lead us on. Ye both goad us to action!

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    Meaning

    Indra and Agni, your forces, strategic concentrations of the forces deployed and collective resources, are well disposed, and integrated, and your zeal for making a move is instantaneous, everything being just at hand. (Rg. 3-12-8)

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    Translation

    For translation and notes, please refer to the mantra no. 1587.

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    Translation

    Only fragmentary: इन्द्राग्नी तविषाणि वाम् - [O rays of the inner cosmic Sun and lightning, in you, vigour and food are abiding together. Your readiness for dispensing justice is highly commendable.]

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાન પ્રકાશ સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (वाम्) તારા (तविषाणि)  મહાન-મહત્ત્વવાળા-મહત્ત્વ પૂર્ણ (सधस्थानि) સહસ્થાન-સહયોગ સ્થાન (प्रयांसि) અત્યંત પ્રિય મોક્ષ સુખ છે. (युवोः "युवयोः") તારી અંદર (अप्तूर्यं हितम्) તને પ્રાપ્ત કરીને શ્રેયાન બની જવું, મુક્ત બની જવું અર્થાત્ આપ્તગતિ પામવું નિહિત છે. (૪)
     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाचा आत्मा व मन परस्पर मिळूनच ज्ञान एकत्र करून, पुरुषार्थ करून, बल व कर्मात सिद्धी प्राप्त करतात. ॥३॥

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