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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1694
ऋषिः - विश्वामित्रः प्रागाथः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
29
इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ अ꣡प꣢स꣣स्प꣢꣫र्युप꣣ प्र꣡ य꣢न्ति धी꣣त꣡यः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ प꣣थ्या꣢३ अ꣡नु꣢ ॥१६९४॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । अ꣡प꣢꣯सः । प꣡रि꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । प्र । य꣣न्ति । धीत꣡यः । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । प꣣थ्याः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ ॥१६९४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राग्नी अपसस्पर्युप प्र यन्ति धीतयः । ऋतस्य पथ्या३ अनु ॥१६९४॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । अपसः । परि । उप । प्र । यन्ति । धीतयः । ऋतस्य । पथ्याः । अनु ॥१६९४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1694
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
द्वितीय ऋचा की व्याख्या उत्तरार्चिक में १५७७ क्रमाङ्क पर जीवात्मा और परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ आत्मा और मन का विषय वर्णित है।
पदार्थ
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (धीतयः) ज्ञान (अपसः परि) कर्मों में ही (उप प्रयन्ति) परिसमाप्त हुआ करते हैं। अतः तुम दोनों(ऋतस्य) सत्य कर्म के (पथ्याः) मार्गों का (अनु) अनुसरण करो ॥२॥
भावार्थ
कर्महीन अकेले ज्ञान शोभा नहीं पाते ॥२॥
विषय
इन्द्र व अग्नि का विकास
पदार्थ
(धीतयः) = ध्यानशील लोग, अर्थात् जो बहते चले जाने [drifting] की नीति को न अपनाकर अपनी उन्नति का ध्यान करते हैं, वे (ऋतस्य पथ्या अनु) = सत्य व नियमपरायणता [regularity] के मार्ग का अनुसरण करते हुए (अपसः) = स्वार्थ की भावना से ऊपर उठे हुए, व्यापक कर्मों के द्वारा (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के तत्त्वों को परि उप (प्रयन्ति) = सर्वथा समीपता से प्राप्त होते हैं । पिछले मन्त्र में ‘इन्द्र और अग्नि' की महिमा का वर्णन किया था कि ये शरीर को सशक्त व
प्रकाशमय बनाते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में इन दोनों तत्त्वों के विकास के लिए निम्न उपायों का संकेत किया है ।
१. धीतयः – हम अपने जीवन की उन्नति का ध्यान करनेवाले हों ।
२. ऋतस्य पथ्य अनु– सूर्य और चन्द्रमा की भाँति नियमितता के मार्ग को अपनाएँ। हमारा 'खाना-पीना, सोना-जागना' – सब-कुछ नियमित [regular] हो । यह नियमितता ही तो सत्य है ।
३. अपसः–लोक में हमारे कर्म कुछ स्वार्थ की भावना से ऊपर उठकर किये जाएँ । हमारे कर्म व्यापक मनोवृत्ति से हों ।
उल्लिखित तीन बातों के होने पर ही इन्द्राग्नी का विकास सम्भव है। इन्होंने ही हमारे जीवन को सुभूषित करना है ।
भावार्थ
मैं ज्ञान व बल की वृद्धि के लिए १. सदा इनके विकास का ध्यान करूँ २. मेरा जीवन नियमित हो तथा ३. मेरे कर्म व्यापक हों ।
विषय
missing
भावार्थ
‘इन्दाग्नी अपसस्परि०’ प्रतीकमात्र है। व्याख्या देखो अवि० सं० [ १५७७ ] पृ० ६७१।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चांगिरसः। २ श्रुतकक्षः सुकक्षो वा। ३ शुनःशेप आजीगर्तः। ४ शंयुर्बार्हस्पत्यः। ५, १५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ९ वसिष्ठः। ७ आयुः काण्वः। ८ अम्बरीष ऋजिश्वा च। १० विश्वमना वैयश्वः। ११ सोभरिः काण्वः। १२ सप्तर्षयः। १३ कलिः प्रागाथः। १५, १७ विश्वामित्रः। १६ निध्रुविः काश्यपः। १८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। १९ एतत्साम॥ देवता—१, २, ४, ६, ७, ९, १०, १३, १५ इन्द्रः। ३, ११, १८ अग्निः। ५ विष्णुः ८, १२, १६ पवमानः सोमः । १४, १७ इन्द्राग्नी। १९ एतत्साम॥ छन्दः–१-५, १४, १६-१८ गायत्री। ६, ७, ९, १३ प्रागथम्। ८ अनुष्टुप्। १० उष्णिक् । ११ प्रागाथं काकुभम्। १२, १५ बृहती। १९ इति साम॥ स्वरः—१-५, १४, १६, १८ षड्जः। ६, ८, ९, ११-१३, १५ मध्यमः। ८ गान्धारः। १० ऋषभः॥
संस्कृत (1)
विषयः
द्वितीया ऋगुत्तरार्चिके १५७७ क्रमाङ्के जीवात्मपरमात्मविषये व्याख्यातपूर्वा। अत्रात्ममनसोर्विषय उच्यते।
पदार्थः
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (धीतयः) ज्ञानानि (अपसः परि)कर्मसु एव (उप प्रयन्ति) परिसमाप्यन्ते। अतः युवाम्(ऋतस्य) सत्यकर्मणः (पथ्याः) मार्गान् (अनु) अनुसरतम् ॥२॥२
भावार्थः
कर्महीनानि केवलानि ज्ञानानि न शोभन्ते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God and soul, the instructors of the path of rectitude, following in your wake, our forces of deliberation abandon selfish acts!
Meaning
Indra and Agni, lord of power and lord of light and law, the pioneer forces of action and reflection go forward, all round, and close to the target, following the paths of truth and law of rectitude. (Swami Dayananda interprets Indra and Agni as wind and electric energy of space, and the movements of this energy in waves directed to the targets of purpose). (Rg. 3-12-7)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (इन्द्राग्नी) હે ઐશ્વર્યવાન તથા જ્ઞાનપ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (अपसः परि) તારા દર્શન કર્મને અધિકૃત કરીને-લક્ષ્ય કરીને (धीतयः) પ્રજ્ઞાઓ અર્થાત્ સ્તુતિઓ (ऋतस्य पथ्याः अनु) અધ્યાત્મ માર્ગોને અનુસાર (उप प्रयन्ति) તારી તરફ અથવા તને અનેક પ્રકારે પ્રાપ્ત થાય છે. (૩)
मराठी (1)
भावार्थ
कर्महीन ज्ञान एकटेच अपूर्ण असते. ज्ञान कर्मामुळेच शोभते. ॥२॥
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