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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1712
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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    ऊ꣣र्ज्जो꣡ नपा꣢꣯त꣣मा꣡ हु꣢वे꣣ऽग्निं꣡ पा꣢व꣣क꣡शो꣢चिषम् । अ꣣स्मि꣢न्य꣣ज्ञे꣡ स्व꣢ध्व꣣रे꣢ ॥१७१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊ꣣र्जः꣢ । न꣡पा꣢꣯तम् । आ । हु꣣वे । अ꣣ग्नि꣢म् । पा꣣वक꣡शो꣢चिषम् । पा꣣वक꣢ । शो꣣चिषम् । अस्मि꣢न् । य꣣ज्ञे꣢ । स्व꣣ध्वरे꣢ । सु꣣ । अध्वरे꣡ ॥१७१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्ज्जो नपातमा हुवेऽग्निं पावकशोचिषम् । अस्मिन्यज्ञे स्वध्वरे ॥१७१२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्जः । नपातम् । आ । हुवे । अग्निम् । पावकशोचिषम् । पावक । शोचिषम् । अस्मिन् । यज्ञे । स्वध्वरे । सु । अध्वरे ॥१७१२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1712
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर को पुकारा गया है।

    पदार्थ

    मैं (अस्मिन्) इस (स्वध्वरे) शुभ अहिंसाव्रताचारवाले (यज्ञे) जीवन-यज्ञ में (ऊर्जः) आत्मबल और प्राणशक्ति को (नपातम्) न गिरने देनेवाले, प्रत्युत बढ़ानेवाले, (पावकशोचिषम्) शोधक ज्योतिवाले (अग्निम्) अग्रनायक परमेश्वर को (आहुवे) पुकारता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि वे परमात्मा की उपासना से सत्प्रेरणा लेकर अपने जीवन को पवित्र और उन्नत करें ॥२॥

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    पदार्थ

    (अस्मिन् स्वध्वरे यज्ञं) इस शोभन प्राणप्रद४ अध्यात्मयज्ञ में (ऊर्जः-नपातम्) अध्यात्मरस५ के न गिराने वाले (पावक-शोचिषम्) पवित्रकारक दीप्ति वाले (अग्निम्) अग्रणायक परमात्मा को (आहुवे) आमन्त्रित करता हूँ॥२॥

    विशेष

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    विषय

    विरूप द्वारा प्रभु का आह्वान

    पदार्थ

    यह ‘विरूप' उस प्रभु [वि-प्र] के सम्पर्क में निरन्तर बढ़ता है और कहता है कि (अस्मिन्) = इस (स्वध्वरे) = उत्तम हिंसाशून्य यज्ञे-यज्ञरूप जीवन में [जीवन-यज्ञ में] (आहुवे) = मैं उस प्रभु को पुकारता
    हूँ, जो–

    १. (ऊर्ज: न-पातम्) = मेरी शक्ति को नष्ट नहीं होने देते। प्रभु के स्मरण से जीवन में वासना को स्थान नहीं मिलता और परिणामतः शक्ति शीर्ण नहीं होती ।

    २. (अग्निम्) = वे प्रभु मुझे अक्षीण शक्ति बनाकर उन्नत्ति-पथ पर ले-चलनेवाले होते हैं । शक्ति की क्षीणता में किसी भी प्रकार की उन्नति सम्भव नहीं ।

    ३. (पावकः शोचिषम्) = वे प्रभु पवित्र ज्ञान-दीप्तिवाले हैं। ‘शक्ति की अक्षीणता, उन्नति व पवित्रता' यह क्रम है, जो इस मन्त्र में संकेतित हुआ है । अक्षीण शक्ति बनकर मैं आगे बढ़ता हूँ। मेरी इस आगे बढ़ने की प्रक्रिया में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं हो तो 

    भावार्थ

    ‘विरूप' बनने के लिए हम उस प्रभु का स्मरण करें जो हमारी शक्तियों को क्षीण नहीं होने देते—उन्नति-पथ पर आगे ले-चलते हैं और पवित्र ज्ञानदीप्ति प्राप्त कराते हैं

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    विषय

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    भावार्थ

    (ऊर्जोनापातम्) बल वीर्य का विनाश न होने देने हारे (पावकशोचिषम्) लोकों को शाध कर पवित्र करने हारे तेज से युक्त (अग्निम्) अग्निस्वरूप आत्मा को (अस्मिन्) इस (स्वध्वेर) उत्तमरूप, अविनाशी (यज्ञे) दान प्रतिदान स्वरूप यज्ञ या इष्टदेवपूजा या समाधि दशा में या सर्व पूज्य परमात्मा में (आहुवे) समर्पित करता हूं।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेशमाह्वयति।

    पदार्थः

    अह्म् (अस्मिन्) एतस्मिन् (स्वध्वरे) शोभनः अध्वरः अहिंसाव्रताचारः यस्मिन् तादृशे (यज्ञे) जीवनयज्ञे (ऊर्जः) आत्मबलस्य प्राणशक्तेश्च। [ऊर्ज बलप्राणनयोश्चुरादिः।] (नपातम्) न पातयितारम्, प्रत्युत वर्धकम् (पावकशोचिषम्) शोधकदीप्तिम् (अग्निम्) अग्रनेतारं परमेशम् (आहुवे) आह्वयामि ॥२॥

    भावार्थः

    मानवाः परमात्मोपासनया सत्प्रेरणां गृहीत्वा स्वकीयं जीवनं पावयन्तामुन्नयन्तां च ॥२॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I dedicate to this Immortal God, the soul, which does not allow our strength decay, whose glow is bright and pure.

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    Meaning

    In this noble yajna of love free from violence, I invoke and celebrate the unfailing master and protector of energy, blazing with holy light and fire of purity. (Rg. 8-44-13)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अस्मिन् स्वध्वरे यज्ञम्) એ શોભન પ્રાણપ્રદ અધ્યાત્મયજ્ઞમાં (ऊर्जः नयातम्) અધ્યાત્મરસને ન પડવા દેનાર-રક્ષક (पावक शोचिषम्) પવિત્રકારક પ્રકાશવાળા (अग्निम्) અગ્રણી પરમાત્માને (आहुवे) આમંત્રિત કરું છું. (૨)

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी परमात्म्याच्या उपासनेने सत्प्रेरणा घ्यावी व आपले जीवन पवित्र व उन्नत करावे. ॥२॥

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