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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 1713
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    37

    स꣡ नो꣢ मित्रमह꣣स्त्व꣡मग्ने꣢꣯ शु꣣क्रे꣡ण꣢ शो꣣चि꣡षा꣢ । दे꣣वै꣡रा स꣢꣯त्सि ब꣣र्हि꣡षि꣢ ॥१७१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः꣢ । नः꣣ । मित्रमहः । मित्र । महः । त्व꣢म् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । शु꣣क्रे꣡ण꣢ । शो꣣चि꣡षा꣢ । दे꣣वैः꣢ । आ । स꣣त्सि । बर्हि꣡षि꣢ ॥१७१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो मित्रमहस्त्वमग्ने शुक्रेण शोचिषा । देवैरा सत्सि बर्हिषि ॥१७१३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । नः । मित्रमहः । मित्र । महः । त्वम् । अग्ने । शुक्रेण । शोचिषा । देवैः । आ । सत्सि । बर्हिषि ॥१७१३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 1713
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं।

    पदार्थ

    (मित्रमहः) जिसका तेज हमारा मित्र बनता है ऐसे, हे (अग्ने) अग्रनायक परमेश ! (सः) वह (नः) हमारे सखा (त्वम्) आप जगदीश (शुक्रेण) पवित्र (शोचिषा) ज्योति के साथ और (देवैः) दिव्य गुणों के साथ (बर्हिषि) हमारे हृदयान्तरिक्ष में (आ सत्सि) आकर बैठो ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा की उपासना से मनुष्य प्रकाश को और दिव्य गुणों को प्राप्त कर सकते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (सः-त्वम्) वह तू (मित्रमहः-अग्ने) स्नेह करने वाले उपासकों के प्रशंसनीय स्तुतियोग्य अग्रणायक परमात्मन्! (शुुक्रेण शोचिषा) निर्मल दीप्ति से६ (देवैः) अपने दिव्यगुणों के साथ (बर्हिषि) हृदयाकाश में (आ सत्सि) आ बैठ॥३॥

    विशेष

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    विषय

    प्रभु के आतिथ्य की तैयारी

    पदार्थ

    हे (मित्रमहः) = प्रमीति व मृत्यु से त्राणकारक तेजवाले प्रभो ! [मि-त्र-महस्] अथवा स्नेहपूर्वक प्राणिमात्र से प्रेम करने के कारण महनीय – पूजनीय प्रभो ! हे (अग्ने) = हमारी उन्नति के साधक प्रभो ! (सः त्वम्) = वे आप (शुक्रेण शोचिषा) = निर्मल ज्ञान की दीप्ति से अथवा [शुक् गतौ] क्रिया में परिणत होनेवाली ज्ञान की दीप्ति से तथा (देवै:) = दिव्य गुणों से (न:) = हमारे (बर्हिषि) = हृदयान्तरिक्ष में (आसत्सि) = विराजमान होते हैं ।

    वे प्रभु 'मित्रमहः' व 'अग्नि' हैं। उनका तेज मेरे सब अशुभों को समाप्त करनेवाला है और वे मुझे आगे ले-चलनेवाले हैं। प्रभु की उपासना प्राणिमात्र के साथ स्नेह के द्वारा होती है ।

    ये प्रभु मेरे हृदय में विराजेंगे- यदि मैं १. उज्ज्वल ज्ञान की दीप्तिवाला बनकर क्रियाशील जीवनवाला बनूँगा तथा २. यदि मैं अपने अन्दर दिव्यता की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्नशील होऊँगा ।

    प्रभु का निवास ‘बर्हिः' में होता है । 'बर्हि' उस हृदय का नाम है जिसमें से सब वासनाओं का उद्बर्हण कर दिया गया है । एवं, मुझे प्रभु की प्राप्ति के लिए ज्ञानी बनना, क्रियाशील होना, अपने में व्यता को बढ़ाना और हृदय में से वासनाओं का उन्मूलन करना होगा।

    भावार्थ

    मुझे ज्ञानवृद्धि, क्रियाशीलता, दिव्यता व वासनाओं के विनाश के द्वारा प्रभु के आतिथ्य की तैयारी करनी चाहिए ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे (अग्ने) आत्मन् ! हे (मित्रमहः) अपने मित्र परमस्नेही परमेश्वर के संग से स्वतः तेजस्विन् ! (त्वम्) तू (शुक्रेण) शुद्ध (तेजसा) तेज से (देवैः) अपनी इन्द्रियों के साथ (बर्हिषि) इस देह में (आ सत्सि) विराजमान है। परमात्म पक्ष में—हे मित्र ! या सूर्य के समान कान्ति वाले या सब के मित्र एवं पूजनीय परम प्रभो ! (त्वं) आप शुद्ध कान्ति से दिव्य गुण युक्त विद्वानों और सूर्यदि ‘देव’ लोकों के संग इस (बर्हिषि) ब्रह्माण्ड में (आ सत्सि) विराजमान हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरं प्रार्थयते।

    पदार्थः

    (मित्रमहः) मित्रं मित्रभूतं महः तेजो यस्य तादृश, हे (अग्ने) अग्रनायक परमेश ! (सः) असौ (नः) अस्मत्सखा (त्वम्) जगदीश्वरः (शुक्रेण) पवित्रेण (शोचिषा) ज्योतिषा (देवैः) दिव्यगुणैश्च सह (बर्हिषि) अस्माकं हृदयान्तरिक्षे (आ सत्सि) आसीद ॥३॥

    भावार्थः

    परमात्मोपासनया जना दिव्यं पवित्रं प्रकाशं दिव्यगुणांश्च प्राप्तुं शक्नुवन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O soul, full of lustre in the company of God, thy Friend, with thy pure splendour, thou residest in my heart with thy divine virtues!

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    Meaning

    Agni, greatest friend of humanity, with pure and purifying flames of fire, you sit on our holy seats of grass on the vedi along with the divinities. (All our senses and mind are suffused with the presence of divinity. ) (Rg. 8-44-14)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः त्वम्) તે તું (मित्रमहः अग्ने) સ્નેહ કરનારા ઉપાસકોના પ્રશંસનીય સ્તુતિયોગ્ય અગ્રણી પરમાત્મન્ ! (शुक्रेण शोचिषा) નિર્મળ દીપ્તિ-તેજ દ્વારા (देवैः) પોતાના દિવ્યગુણોની સાથે (बर्हिषि) હૃદયાકાશમાં (आ मत्सि) આવ-બેસ. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराच्या उपासनेने माणूस प्रकाश व दिव्य गुणांना प्राप्त करू शकतो. ॥३॥

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