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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1714
ऋषिः - अवत्सारः काश्यपः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
43
उ꣢त्ते꣣ शु꣡ष्मा꣢सो अस्थू꣣ र꣡क्षो꣢ भि꣣न्द꣡न्तो꣢ अद्रिवः । नु꣣द꣢स्व꣣ याः꣡ प꣢रि꣣स्पृ꣡धः꣢ ॥१७१४॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢त् । ते꣣ । शु꣡ष्मा꣢꣯सः । अ꣣स्थुः । र꣡क्षः꣢꣯ । भि꣣न्द꣡न्तः꣢ । अ꣣द्रिवः । अ । द्रिवः । नुद꣡स्व꣢ । याः । प꣣रिस्पृ꣡धः꣢ । प꣣रि । स्पृ꣡धः꣢꣯ ॥१७१४॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्ते शुष्मासो अस्थू रक्षो भिन्दन्तो अद्रिवः । नुदस्व याः परिस्पृधः ॥१७१४॥
स्वर रहित पद पाठ
उत् । ते । शुष्मासः । अस्थुः । रक्षः । भिन्दन्तः । अद्रिवः । अ । द्रिवः । नुदस्व । याः । परिस्पृधः । परि । स्पृधः ॥१७१४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1714
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र में स्तुतिपूर्वक परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।
पदार्थ
हे (अद्रिवः) किसी से विदीर्ण न किये जा सकने योग्य पवमान सोम अर्थात् पवित्रतादायक सद्गुणकर्मप्रेरक जगदीश ! (ते) आपके (शुष्मासः) बल (रक्षः) काम, क्रोध, आदि छहों रिपुओं को और व्याधि, स्त्यान, संशय आदि योग-मार्ग के विघ्नों को (भिन्दन्तः) तोड़ते-फोड़ते हुए (अस्थुः) दृढ़ता से स्थित रहते हैं। (याः परिस्पृधः) जो स्पर्धाशील आन्तरिक वा बाह्य शत्रु-सेनाएँ हैं उन्हें आप (नुदस्व) परे खदेड़ दो ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर की आराधना से मनुष्य सब आन्तरिक और बाह्य शत्रुओं को जीतने के लिए अपार बल, साहस और उद्बोधन प्राप्त करता है ॥१॥
पदार्थ
(अद्रिवः) हे स्तुतिकर्त्ताओं वाले७ (ते शुष्मासः) तेरे बल वेगशक्ति—प्रवाह (रक्षः-भिन्दन्तः) अपने को जिससे रक्षित रखना बचाना ऐसे काम आदि दोष को विदीर्ण करने के हेतु (उद्-अस्थुः) उठ रहे हैं (याः-स्पृधः) जो हमारी स्पर्द्धा करने वाली विरोधी प्रवृत्तियाँ हैं उन्हें (परि नुदस्व) परे निकाल दे॥१॥
विशेष
ऋषिः—अवत्सारः (रक्षा करते हुए का अनुसरणकर्ता उपासक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥<br>
विषय
प्रभु के आतिथ्य के परिणाम
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि' अवत्सारः काश्यपः' है–‘सार= शक्ति की रक्षा करनेवाला ज्ञानी', शरीर में पहलवान तथा आत्मा में ऋषि । गत मन्त्र में इसने प्रभु के स्वागत की तैयारी की थी । प्रभु का आतिथ्य करने पर, प्रभु इससे कहते हैं -
१. (ते) = तेरे (शुष्मासः) = वासनारूप शत्रुओं का शोषण करनेवाले बल (उत् अस्थुः) = उन्नत होकर स्थित होते हैं। प्रभु के सम्पर्क में जीव में शक्ति का संचार न हो यह तो सम्भव ही नहीं ।
२. (रक्षः भिन्दन्तः) = तेरे ये बल राक्षसवृत्तियों का विदारण करनेवाले हैं। प्रभु के सम्पर्क से प्राप्त होनेवाला सात्त्विक बल हमें अपने रमण [मौज] के लिए औरों का क्षय करनेवाली राक्षसी वृत्तियों के हनन व विदारण में समर्थ करता है ।
३. हे (अद्रिवः) = अपने संकल्प से विचलित न होनेवाले इन्द्र! तू (नुदस्व) = परे ढकेल दे । किनको ? (याः परिस्पृधः) = जो तेरी उन्नति की स्पर्धा करनेवाले हैं— जो तेरी उन्नति को समाप्त करने के लिए प्रबल उत्कण्ठावाले तेरे शत्रु हैं । काम, क्रोध, लोभ आदि मनुष्य के प्रमुख शत्रु हैं, ये उसकी उन्नति को समाप्त करने में लगे हैं । यह अवत्सार प्रभु के आतिथ्य के द्वारा इनको परे धकेल देता है— अपने समीप नहीं फटकने देता।
भावार्थ
हम प्रभु का आतिथ्य करनेवाले बनें । इसके हमारे जीवन में निम्न परिणाम होंगे१. शक्ति की वृद्धि, २. राक्षसों का विदारण, ३. वासनाओं का विनाश ।
विषय
missing
भावार्थ
हे (सोम) सर्वोत्पादक ! हे (अद्रिवः) आदरणीय ! अक्षयवलन् ! परमात्मन् ! आदर करने वाले भक्तों के स्वामिन् ! (ते) तेरे (शुष्मासः) बलप्रयोग (रक्षः) दुष्ट पुरुषों को, या विघ्नों को (भिन्दन्तः) विनाश करते हुए (उत् अस्थुः) सबसे ऊपर विराजमान हैं (याः) जो (स्पृधः) तुझ से स्पर्द्धा करते है उन नास्तिकों को तू (नुदस्व) नीचे गिरा देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ स्तुतिपूर्वकं परमेशः प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे (अद्रिवः) न केनापि दीर्यते विनाश्यते यः तादृश पवमान सोम पवित्रतादायक सद्गुणकर्मप्रेरक जगदीश ! (ते) तव (शुष्मासः) बलानि (रक्षः) कामक्रोधादिकं षड्रिपुवर्गं व्याधिस्त्यानसंशयादिकं विघ्नसमूहं वा (भिन्दन्तः) विदारयन्तः (अस्थुः) दृढं तिष्ठन्ति। (याः परिस्पृधः) याः स्पर्धाशीलाः आभ्यन्तर्यो बाह्या वा शत्रुसेनाः सन्ति ताः, त्वम् (नुदस्व) विबाधस्व ॥१॥
भावार्थः
परमेश्वराराधनेन मनुष्यः सर्वानान्तरान् बाह्यांश्च रिपून् विजेतुमपारं बलं साहसमुद्बोधनं च प्राप्नोति ॥१॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, worthy of reverence, Thy powers reign supreme, eliminating obstacles. Thou humiliatest the atheists who entertain rivalry unto Thee!
Meaning
O lord of mountains, thunder and clouds, your powers and forces stand high, breaking down the negative and destructive elements of life. Pray impellor compel the adversaries to change or remove them from the paths of progress. (Rg. 9-53-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (अद्रिवः) હે સ્તુતિ કર્તાઓવાળા (ते शुष्मासः) તારું બળ વેગશક્તિ-પ્રવાહ (रक्षः भिन्दतः) પોતાની જેનાથી રક્ષા કરવા બચાવવા એવા કામ આદિ દોષોને વિદીર્ણ-નાશ કરવા માટે (उद् अस्थुः) ઊઠી રહેલ છે. (याः स्पृधः) જે અમારી સ્પર્ધા કરનારી વિરોધી પ્રવૃત્તિઓ છે. તેને (परि नुदस्व) દૂર કાઢી નાખ-પાડી દે. (૧)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या आराधनेने माणूस सर्व आंतरिक व बाह्य शत्रूंना जिंकण्यासाठी अपार बल, साहस व उद्बोधन प्राप्त करतो. ॥१॥
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