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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1729
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
36
या꣢ द꣣स्रा꣡ सिन्धु꣢꣯मातरा मनो꣣त꣡रा꣢ रयी꣣णा꣢म् । धि꣣या꣢ दे꣣वा꣡ व꣢सु꣣वि꣡दा꣢ ॥१७२९॥
स्वर सहित पद पाठया꣢ । द꣣स्रा꣢ । सि꣡न्धु꣢꣯मातरा । सि꣡न्धु꣢꣯ । मा꣣तरा । मनोत꣡रा꣢ । र꣣यीणा꣢म् । धि꣣या꣢ । दे꣣वा꣢ । व꣣सुवि꣡दा꣢ । वसु꣣ । वि꣡दा꣢꣯ ॥१७२९॥
स्वर रहित मन्त्र
या दस्रा सिन्धुमातरा मनोतरा रयीणाम् । धिया देवा वसुविदा ॥१७२९॥
स्वर रहित पद पाठ
या । दस्रा । सिन्धुमातरा । सिन्धु । मातरा । मनोतरा । रयीणाम् । धिया । देवा । वसुविदा । वसु । विदा ॥१७२९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1729
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में मन और आत्मा के गुण-कर्मों का वर्णन है।
पदार्थ
(या) जो मन-आत्मा रूप अश्वीयुगल (दस्रा) दोषों को नष्ट करनेवाले, (सिन्धुमातरा) आनन्दस्राविणी जगदम्बा जिनका माता के समान पालन करनेवाली है, ऐसे (रयीणाम्) सत्य, अहिंसा आदि वा स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य आदि ऐश्वर्यों को (मनोतरा) अतिशय दीप्त करनेवाले, (देवा) बल के दाता और (धिया) प्रज्ञा तथा कर्म से (वसुविदा) योगसिद्धिरूप ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले हैं, उनकी मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ। [यहाँ ‘स्तुषे’ पद पूर्व मन्त्र से लिया गया है] ॥२॥
भावार्थ
मन और आत्मा को साधने से दोषों का क्षय, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, सत्य-अहिंसा आदि ऐश्वर्य और योगसिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥२॥
पदार्थ
(या दस्रा) जो दर्शनीय४ (सिन्धुमातरा) स्यन्दमान उपासनारस का मान कराने वाले जिसके हैं ऐसा दोनों धर्मों युक्त (रयीणां मनोहरा) धनों के मन को धन संग्रह के मनो विचार को हराने हटाने वाला (धिया वसुविदा) ध्यान धारणा से वसाने योग्य वस्तु को प्राप्त कराने वाला (देवा) इष्टदेव उपास्य ज्योतिस्वरूप आनन्दरसरूप परमात्मा है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
प्राण और अपान
पदार्थ
ये प्राणापान तो वे हैं या-जो
नैर्मल्य- १. (दस्त्रा) = [दसु उपक्षये]=इन्द्रियों के सब दोषों को नष्ट करनेवाले हैं। ('तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्') = । इन्द्रियों के दोष ही क्या, शरीर के रोगों तथा मन के मलों को भी ये दूर करनेवाले हैं, बुद्धि की कुण्ठा के भी ये विनाशक हैं । इन्हीं कारणों से [दस्रा-दर्शनीयौ] ये दर्शनीय व सुन्दर हैं ।
स्वास्थ्य – २. (सिन्धुमातरा) = ये शरीर में रुधिर के ठीक प्रकार से स्यन्दन = प्रवाह [सिन्धु] के निर्माण करनेवाले हैं। इनकी साधना से उच्च और निम्न रक्तचाप High and Low blood pressure नहीं होता तथा रुधिर का अभिसरण सदा ठीक चलता है। इसी कारण तो प्राणापान स्वास्थ्य के मूलकारण हो जाते हैं ।
धनलाभ – ३. ये प्राणापान (मनोतरा रयीणाम्) = मनोबल के द्वारा धन के बढ़ानेवाले हैं । तृ धातु का प्रयोग बढ़ाने अर्थ में 'प्रायः तारिष्टम्' इत्यादि मन्त्रभागों में स्पष्ट है । प्राणापान की साधना से चित्तवृत्तिनिरोध द्वारा मन की शक्ति दिव्य हो जाती है और उस दिव्य मानसशक्ति से हम जिस भी कार्य को करते हैं उसमें सफलता प्राप्त होती ही है। कर्मेन्द्रियों से कर्म करते हैं तो उसमें पूर्ण सफलता मिलती है – इन्द्रियों की शक्ति बढ़ती है। ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्ति में लगते हैं तो ज्ञानधन की अद्भुत वृद्धि होती है। शक्ति और ज्ञान ही तो मनुष्य के उत्कृष्ट धन हैं। इनके लिए ही हम प्रभु से आराधना करते हैं—हे प्रभो! (‘इदं मे ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम्') = मेरा ज्ञान बढ़े, मेरी शक्ति फूले-फले।
प्रभु-प्राप्ति –४. ये प्राणापान देवाः- देव हैं – दिव्य शक्ति सम्पन्न हैं । (धिया) = ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा ये (वसुविदा) = सारे ब्रह्माण्ड में बसनेवाले व ब्रह्माण्ड के निवासभूत प्रभु को ये प्राप्त करानेवाले हैं। आराधना से मनुष्य देव बन जाता है और उस महादेव को प्राप्त करने का उसका अधिकार हो जाता है। तीव्र बुद्धि से ही तो उसका दर्शन होना है, ('दृश्यते त्वग्यया बुद्ध्या') । ज्ञान व पवित्र कर्मों से ही प्रभु की अर्चना सम्पन्न होती है 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य'। एवं, ज्ञानपूर्वक कर्मों से ये हमें प्रभु तक पहुँचाते हैं।
भावार्थ
प्राणापानों की साधना से १. इन्द्रियों में नैर्मल्य होगा, शरीर में स्वास्थ्य । २. शक्ति व ज्ञानधन की वृद्धि होगी तथा प्रभु की प्राप्ति के हम अधिकारी होंगे।
विषय
missing
भावार्थ
(या) जो दोनों (देवा) देव, प्राण और अपान (दस्रा*) अत्यन्त दर्शनीय, अथवा काम क्रोधादि मलों के नाशक, अथवा सब कर्म कराने हारे, या रोग विनाशक, शरीर के भीतर सब के कर्म के करने कराने हारे (सिन्धुमातरौ) देह के सब रक्तप्रवाहिनी नदियों या प्राणों को प्रवाहित करने हारे उनको ठीक रीति से संचालक, (रयीणां) सब ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों के ज्ञान और कर्मों को (मनोतरा) मनोबल द्वारा प्रेरणा करने और मनोबल से ही उनके ज्ञान और क्रिया को स्वयं प्राप्त करने कराने हारे (धिया) ध्यान वृत्ति से (वसुविदा) वसु, आत्मा को ज्ञान कराने वाले या, उस तक स्वयं पहुंचने वाले हैं।
टिप्पणी
दर्शि दंशदर्शनयोः। दसि दस इत्येके (चुरादिः), दसि भावार्थः (चुरादिः), तसु उपक्षये दसु च (दिवादिः) इत्येतेभ्यो ‘स्फायितञ्ची ति०’ औणादिको रक् (उणा० २। १३)। दस्यति रोगान् उपक्षपयति इति दस्रः (दया० उणा०) दस्त्रा शत्रूणां दासयितारौ, दंसयितारौ, कर्मणा कृष्यादीनां कारयितारौ। एतावेवंविधौ कर्म कारयन्तौ कुर्वाणौ वा इति दुर्गाचार्यः (निरु० अ० ६ ० २६) निरुक्तटीकायाम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः–१ विरूप आंङ्गिरसः। २, १८ अवत्सारः। ३ विश्वामित्रः। ४ देवातिथिः काण्वः। ५, ८, ९, १६ गोतमो राहूगणः। ६ वामदेवः। ७ प्रस्कण्वः काण्वः। १० वसुश्रुत आत्रेयः। ११ सत्यश्रवा आत्रेयः। १२ अवस्युरात्रेयः। १३ बुधगविष्ठिरावात्रेयौ। १४ कुत्स आङ्गिरसः। १५ अत्रिः। १७ दीर्घतमा औचथ्पः। देवता—१, १०, १३ अग्निः। २, १८ पवमानः सोमः। ३-५ इन्द्रः। ६, ८, ११, १४, १६ उषाः। ७, ९, १२, १५, १७ अश्विनौ॥ छन्दः—१, २, ६, ७, १८ गायत्री। ३, ५ बृहती। ४ प्रागाथम्। ८,९ उष्णिक्। १०-१२ पङ्क्तिः। १३-१५ त्रिष्टुप्। १६, १७ जगती॥ स्वरः—१, २, ७, १८ षड्जः। ३, ४, ५ मध्यमः। ८,९ ऋषभः। १०-१२ पञ्चमः। १३-१५ धैवतः। १६, १७ निषादः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनआत्मनोर्गुणकर्माणि वर्णयति।
पदार्थः
(या) यौ अश्विनौ मनआत्मानौ (दस्रा) दोषाणामुपक्षेतारौ, (सिन्धुमातरा) सिन्धुः आनन्दरसस्य स्यन्दयित्री जगदम्बा माता मातृवत् पालयित्री ययोः तौ, (रयीणाम्) सत्याहिंसादीनां स्वास्थ्यदीर्घायुष्यादीनां चैश्वर्याणाम् (मनोतरा) अतिशयेन दीपयितारौ। [मन्यते दीप्तिकर्मा। निरु० १०।२९।] (देवा) देवौ बलस्य दातारौ, (धिया) प्रज्ञया कर्मणा च (वसुविदा) वसुविदौ योगसिद्धिरूपस्यैश्वर्यस्य लम्भकौ स्तः, तौ अहं ‘स्तुषे’ इति पूर्वेण सम्बन्धः। [अत्र सर्वत्र ‘सुपां सुलुक्०’। अ० ७।१।३९ इति प्रथमाद्विवचनस्याकारादेशः] ॥२॥२
भावार्थः
मनआत्मनोः साधनेन दोषक्षयः स्वास्थ्यं दीर्घायुष्यं बलं सत्याहिंसाद्यैश्वर्याणि योगसिद्धयश्च प्राप्यन्ते ॥२॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Both the gods ore, the suppressors of lust, wrath and sickness, the nice conductors of the veins of blood in the body, to urgers of knowledge and action through mental force, and the vehicles of knowledge for to soul through prayer.
Translator Comment
Both the gods: Prana and Apana.
Meaning
Ashvins, harbingers of the dawn, wonder-workers are they. Born of the oceans of space, they create the seas of morning mist. Faster than the mind, they bring wealths of the world. With intelligence and inspiration, they reveal the treasures of the Vasus, they are brilliant, generous, divine. (Rg. 1-46-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (या दस्रा) જે દર્શનીય-અત્યંત સુંદર (सिन्धुमातरा) સ્યંદમાન ઉપાસનારસનું માન કરનારા જેના છે. એવા બન્ને ધર્મોયુક્ત (रयीणां मनोहरा) ધનોના મનને ધનસંગ્રહને-મનના વિચારને હરાવનાર દૂર કરનાર (धिया वसुविदा) ધ્યાન, ધારણાથી વસાવવા યોગ્ય વસ્તુઓને પ્રાપ્ત કરાવનાર (देवा) ઇષ્ટદેવ ઉપાસ્ય જ્યોતિસ્વરૂપ આનંદરસરૂપ પરમાત્મા છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
मन व आत्म्याच्या कार्यसिद्धीमुळे दोषांचा क्षय, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, सत्य-अहिंसा इत्यादी ऐश्वर्य व योगसिद्धी प्राप्त होतात. ॥२॥
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